नानक दुखिया सब करोबार : व्यंग्य – अशोक गौतम

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thiefCartoonधुन के पक्के विक्रमार्क ने जन सभा में वर्करों द्वारा भेंट की तलवार कमर में लपेटी चुनरी में खोंस बेताल को ढूंढने महीनों से खराब स्ट्रीट लाइटों के साए में निकला ही था कि एक पेड़ की ओट से उसे किसीके सिसकने की मर्दाना आवाज सुनाई दी। विक्रमार्क ने कमर में ठूंसी तलवार निकाल हवा में ठीक वैसे ही लहराई, जैसे मंच पर नेता तलवार लहराते हैं, पूछा,’ कौन?? भूख से त्रस्त जनता?’

‘नहीं!’ पेड़ की ओट से सिसकती आवाज ने सिसकते हुए कहा।

‘बेरोजगारी की चक्की में पिसा एजुकेटिड युवा?’

‘ नो!’

‘घूंस लेते हुए बायचांस पकड़ा गयी बड़ी मछली??’

‘नो!’आवाज फिर वैसे ही सिसकती रही।

‘तो महिला सशक्तीकरण के दौर में अपनी पत्नी से त्रस्त पति?’

‘नो।’

‘नेताओं के आश्वासनों के सहारे जीने वाला अंतिम सांसें ले रहा लोकतंत्र?’

‘नो।’

‘नो ??? हद है यार!फिर इस देश में भूला भटका कौन आ गया! क्या परदेसी हो भाई? या देश भटक गए हो?’

‘नो।’ अबके भी नो कहने के साथ साथ वह मर्दाना आवाज सिसकती रही। हर बार सिसकती हुई आवाज की ओर से विक्रमार्क के प्रश्न का उत्तर नो में आया तो पहले तो विक्रमार्क ने सोचा कि शायद कोई फारनर है। बेचारे से हिंदी नहीं आती होगी इसलिए हिंदी से छुपकर बैठा होगा। विक्रमार्क ने जेब से नोकिया का टार्च वाला मोबाइल निकाल उसकी टार्च आन कर बंदे को देखने की कोशिश की तो यह क्या? मोबाइल की बैटरी गई। लो देख लो अब बंदे को! विक्रमार्क ने मोबाइल पर गुस्साते अपने आप से कहा,’ साली बैटरी को भी अभी खत्म होना था।’…..और विक्रमार्क परेशान हो उठा। उसने अपने माथे पर आए पसीने को पोंछ अपना माथा ठोंका और हिम्मत करके पुन: पूछा,’ तो आखिर मेरे बाप कौन? जीते हुए सत्ताधारी दल का हारा हुआ नेता?’

‘नहीं!’

‘ तो यार पहले नो नो क्यों कर रहा था। नहीं नहीं नहीं बोल सकता था।’

‘नो!’

‘ किसी पार्टी के मसखरे हो यार क्या!’

‘नो!’

‘हद है यार! ये बंदा फिर है कौन?’ विक्रमार्क ने अपने आप से कहा और जब अपनी तलवार हवा में लहराते थक गया तो हार कर अपनी तलवार फिर अपनी कमर में बंधी चुनरी में खोंस पेड़ की ओट में डरता डरता जा बोला,’ हे मेरे बाप! अब तो बता दे तू है कौन? तेरे पांव पड़ता हूं।’

‘चोर हूं।’ कह उस आवाज ने सिसकना बंद किया और विक्रमार्क के सामने आ गई।

‘कौन सा चोर? टैक्स चोर?’

‘नो?’

‘जंगल चोर?’

‘नहीं।’

‘अधिकार चोर?’

‘बिजली चोर?’

‘नहीं।’

‘पानी चोर?’

‘दफ्तर से बच्चों के लिए स्टेशनी चोर?’

‘नहीं।’

‘धर्म चोर?’

‘नहीं।’

‘कर्म चोर?’

नहीं ,यार नहीं।’ कह चोर ने अपना सिर धुन लिया,’ इस मुहल्ले का सी ग्रेड चोर हूं मेरे बाप।’

‘तो रो क्यों रहा है? चोरों की तो इस देश में चांदी है चाहे वह किसी भी ग्रेड का हो।’

‘यहां पुलिस थाना खुल गया।’ कह वह फिर रूआंसा सा हो गया।

‘ तो क्या हो गया! पुलिस अपना काम करती रहेगी तू अपना काम करते रहना। अच्छा लगता है जब देश में सभी को अपना अपना काम ईमानदारी से करते देखता हूं। मसलन! जनता ईमानदारी से गिड़गिड़ा रही है तो व्यवस्था ईमानदारी से गुर्रा रही है। हेड और टेल जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही ईमानदारी से गिड़गिड़ाना और ईमानदारी से गुर्राना इस एक देश के दो पहलू हैं। ‘

‘पर मेरे पेट पर तो लात पड़ गई न!’ चोर ने अपने पेट को पकड़ा।

‘ कैसे??’

‘अब मैं यहां चोरी कैसे कर पाऊंगा?’

‘जैसे पहले करता था। जहां थाने हैं वहां क्या चोरियां होना बंद हो जाता है? गुंडागर्दी बंद हो जाती है? बल्कि वहां चोरियां और भी बढ़ जाती हैं। भगवान ने जिसको सिर दिया है उसको सेर का भी इंतजाम किया है। इसलिए कर्म में विश्वास रख और निडर हो धर्म पालन करता जा। ‘

‘पर अब मुझे वहां कुछ करने को बचेगा क्या विक्रमार्क? मैं ठहरा अपंजीकृत चोर। किस ओर जा रहे हो?’

‘ बेताल को ढूंढने।’

‘ तुम तो सारे घूमते रहते हो। तो मुझे ऐसे मुहल्ले का पता दो जहां थाना न हो।’ कह उसने विक्रमार्क के कंधे पर सिर रख रोना शुरू कर दिया तो विक्रमार्क ने उसे सांत्वना दे लंबी सांस भरते अपने आप से कहा,’ रे विक्रमार्क! नानक दुखिया सब कारोबार!’

– अशोक गौतम

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