हमारा राष्ट्रीय चरित्र

हरिकृष्ण निगम

देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की जब भी बात उठती है तब उससे दूसरा जुड़ा विषय हमारे राष्ट्रीय चरित्र की बात उठायी जाती है। राष्ट्रीय चरित्र की युक्तियुक्त परिभाषा क्या है, यह गिर रहा है, यथावत है कि उठ रहा है। इस पर चर्चा कोई नयी नहीं है और इस पर भी लोग अपनी अपनी दृष्टि से दशकों से टिप्पणियां करते आ रहे हैं। कोई कहता है कि यह राष्ट्र के जातीय जीवन की विशेषताओं और मर्यादाओं का समन्वय है जो विदेशियों के लिए हमारी पहचान बनता है। पर दूसरे हमें कैसे देखते हैं यह कभी-कभी हम पचा नहीं पाते। दूसरे कुछ व्यक्ति मानते हैं राष्ट्रीय चरित्र व्यक्तिगत चरित्र का ही एक उन्नत और विकसित रुप होता है। पर आज का परिदृश्य ऐसा है कि राष्ट्रीय चरित्र नेताओं और देश के चर्चित लोगों के व्यक्तित्व पर ही अधिक निर्भर होता है। दूसरी ओर एक मत है राष्ट्रीय चरित्र और राष्ट्र हित की जिम्मेदारी नेताओं और कुछ लोगों पर छोड़ देना भी धर्म होगा क्योंकि उनकी छवि इस देश में पहले से ही समग्र रुप से धूमिल है। कुछ बुध्दिजीवी यह भी कहते हैं कि चरित्र व्यक्ति का गुण है, राष्ट्र का नहीं। इसलिए राष्ट्रीय चरित्र किसी प्रतिनिधी चरित्र का पर्याय मात्र है और प्रजातांत्रिक ढांचे में समूचे जनसमुदाय को ही प्रतिनिधि का दर्जा देना होगा। पर एक बात यह भी सामने आती है कि सामान्य नागरिक निजी और सामूहिक रुप से जो आचरण करता है वही राष्ट्रीय चरित्र का मानदण्ड है। इन सब बुनियादी बातों के बावजूद राष्ट्रीय चरित्र में गिरावट की सर्वत्र चर्चा हो रही है क्योंकि पहले जहां भ्रष्टाचार की राह संकरी थी और राही कभी-कभी ही दिखते थे आज वह राजमार्ग बन गयी हैऔर सफेदपोश भ्रष्टाचारियों की सेना उस पर से होकर जा रही है। राष्ट्रीय चरित्र शब्द भी भ्रामक बनता जा रहा है। भ्रष्टाचार पहले भी था लेकिन उसका इतना अनुमोदन पहले नहीं था। आज की चारित्रिक अराजकता से ही सार्वजनिक जीवन का समग्र चरित्र उभर रहा है जिससे वितृष्णा होती है क्योंकि व्यवहार दूषित है, अहंकार व दिखा वाही सफलता की नई बातें बन चुकी है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र आज यह है जो सत्ताधारी नेताओं द्वारा असुविधाजनक व कड़वा सच बोलने वालों की आवाज बन्द कर देना चाहता है। ऐसे नासमझ लोग अभद्र, अश्लील भाषा के आधार पर तनी भौंहें, सिकुड़ी नाक और बिचकाए होठों को अपनी बड़ी उपलब्धि मान बैठे हैं। अगर देश का आज कोई राष्ट्रीय चरित्र है तो यही कि पारदर्शिता और ईमानदारी का हमसे दूर तक संबंध नहीं है। भारत के तथाकथित बुध्दिजीवियों, आरामकुर्सियों पर बैठे समाजकर्मिर्यों अथवा स्यूडो इन्टेलेक्चुअल्स का राष्ट्रीय चरित्र तर्कों, कुतर्कों,आशंकाओं और कुशंकाओं का एक पिरामिड बन चुका है। अनेक बुध्दिजीवियों की असफलता का यह हाल है कि एक और पुरानी व्यवस्था के खण्डहर टूट रहे हैं तो दूसरी ओर पूरे विश्व में वामपंथियों के आदर्श ढांचे ध्वस्त हो चुके हैं। मात्र शब्दाडम्बरों की राजनीति ही इस देश में बच रही है। आज राष्ट्र को बहस करने वालों और बड़े-बड़े सोचने वालों से कुछ कर गुजरने वालों की बड़ी आवश्यकता है। जहां तक लोकतंत्र का प्रश्न है यह अपना उद्देश्य और अर्थ खोता जा रहा है। अब यह मात्र सत्ता हथियाने का साधन रह गया है और कुछ नहीं। संख्या बढ़ाने की राजनीति और भीड़ जुटाने की राजनीति के अतिरिक्त अब कुछ बच नहीं रहा है। इसके विपरीत एक अन्य देश का युवक एक बार जापानी सार्वजनिक पुस्तकालय से पुस्तक लाया। उसने पुस्तक के दुर्लभ चित्र फाड़ कर निकाल लिए और कुछ दिनों में वह पुस्तक लौटा दी। न केवल उसे उस पुस्तकालय में प्रतिबंधित किया गया बल्कि पुस्तकालय के बाहर बोर्ड पर लिख दिया गया कि अमुक देश का जापान में रहने वाला कोई नागरिक उस पुस्तकालय में प्रवेश नहीं कर सकताहै। स्पष्ट है कि उस युवक ने अपने दुष्कर्म से सच्चे को ही नहीं अपने देश को भी कलंकित कर दिया। देश की बदनामी या गौरव का फल व्यक्तियों को ही नहीं मिलता है बल्कि देश को भी मिलता है। हम मानें या ना मानें आज भी विदेशों में भारतीयों की छवि उतनी अच्छी नहीं है क्योंकि बहुधा चाहे पश्चिमी देश हो या अन्य कहीं विदेश जा कर भी भारतीय अपने प्रान्त, भाषा या जाति के लोगों के बीच ही मूलतः रहना या संवाद स्थापित करना चाहते हैं जब कड़वी टिप्पणी का सामना करना पड़ता है वे विचलित हो जाते हैं। हमारे राष्ट्रीय चरित्र की अनेक विसंगतियों की ओर पश्चिमी लेखकों ने ध्यान दिलाया है जो हमें अच्छी नहीं लगती है और हम रूष्ट हो जाते हैं। कभी-कभी आचरण उनके मन्तव्य को समझे बिना हम आलसी, बड़बोले, बकवादी, प्रतिशोध लेने वाले ईर्ष्‍यालु, किसी की मृत्यु के बाद भी शोकसंवादों में दिवंगत की बुराई करने वाले दुर्घटना में हताहत व्यक्ति के चारों ओर तमाशबीन की तरह भीड़ लगाने वाले संवेदन शून्य व्यक्ति हैं। एक लेखक के अनुसार अपने देश की गौरवगाथा वर्णित करने में कभी-कभी हम अनजाने नस्लवादी या फासीवादी भी बन जाते हैं। अपने राष्ट्रीय चरित्र का गुणगान करते हुए हम कब दूसरों की अनायास निन्दा कर बैठते हैं, यह कहना मुश्किल है। उदाहरण के लिए यह कहना कहां तक शोभनीय है हिन्दू महिला की तरह सूती नारी और कहां मिलेगी। हमारी संयुक्त परिवार जैसी सामाजिक धारणा कहां मिलेगी। भारतीय मां की ममता और किस मां से हो सकती है उस पश्चिमी लेखक ने अपने दृष्टिकोण से लिखा है कि ऐसा लगता है कि भारतीय दूसरों को ओछा सिध्द किये बिना अपनी अच्छाइयों के दावे भी नहीं कर सकते। राष्ट्रीय चरित्र की ऐसी अवधारणा यथार्थ से परे है कि नहीं, यह हमें सोचना है। सच तो यह है कि हम अपने राष्ट्रीय चरित्र के अधोमुखी रुझानों को याद नहीं करना चाहते। एक बार ज्वलंत राष्ट्रप्रेम पनपा पर दूसरी ओर इससे विमुख राष्ट्रीय चरित्र जयचन्द, मीरजाफर और उनके नये अवतारों में भ्रष्ट नेताओं की कहानी कहता है। देश में वामपंथियों एवं संशयवादियों ने राष्ट्र की जड़े खोदी है और देश पर गर्व करने को भी फैशन के बाहर निकाल दिया गया है। मनोरंजन की दुनिया के लिए तो उसमें सुरुचि का जितना दिवालियापन है उस पर कोई भी संशय नहीं है। राष्ट्रीय चरित्र को न तो देश की सम्पत्ति से आंका जा सकता है, न उसकी सामरिक शक्ति से। राष्ट्रीय चरित्र तो देश का सर्वस्व है, देश के नागरिकों का समग्र मनोबल है। आज जब हमारे राष्ट्र की रंगों में भ्रष्टाचार को तो भ्रष्टाचारण मानने को भी तैयार नहीं है। मना करने पर जो मान जाए, वह भारतीय नहीं है। कुछ वर्षों पहले एक अंग्रेजी पत्रिका में एक चुटकुला पढ़ा था जिससे देशवासियों के राष्ट्रीय चरित्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इसमें यह इंगित किया गया है कि असली विद्रोही भारतीय ही होता है। उसे किसी भी नाम से कोई मोह नहीं। जिसे न करने का स्पष्ट आदेश होगा, उसे वह जरुर करेगा। यही है हमारा रार्ष्टीय चरित्र! एक वायुयान में चार मुसाफिर यात्रा कर रहे थे-एक अंग्रेज, एक फ्रांसीसी, एक अमेरिकी, और एक भारतीय। अचानक विमान में कोई खतरनाक गड़बड़ी पैदा हो गयी। पायलट ने परिचारिकाओं से कहा कि वह यात्रियों से कहे कि वे हवाई छतरी लगाकर यान से कूद जाएं। परिचारिका ने यात्रियों को चेतावनी दी, लेकिन कोई टस से मस नहीं हुआ। यह स्थिति देख कर विमान चालक ने परिचारिका के कान में कुछ कहा और परिचारिका ने आकर घोषणा की कि कृपा करके अपने देश की साम्राज्ञी के नाम पर आप छतरी लगा कर कूद पड़ें। इतना सुनना था कि अंग्रेज यात्री चुपचाप उठा और आदर सहित छतरी लगाकर कूद गया। परिचारिका ने फिर ऐलान किया कि अपनी प्रेयसी के नाम पर आप हवाई छतरी का प्रयोग करें। यह सुनकर फ्रांसीसी उठा और आत्मविभोर सा हवाई छतरी पहन कर कूद पड़ा। उसके कूदते ही परिचारिका ने फिर घोषणा की कि जो भी हवाई छतरी लगाकर कूदेगा, वह संसार में एक नया कीर्तिमान स्थापित करेगा, क्योंकि इस समय विमान बहुत उंचाई पर है। इतना सुनना था कि अमेरिकी फूर्ती से उठा और विमान के बाहर कूद पडा। अब बचा रहा भारतीय। परिचारिका ने कुछ देर सोचा, चालक से बातचीत की और फिर आकर घोषणा की यान अब बहुत उंचाई पर पहुंच गया है। इतनी उंचाई से कूदना सख्त मना है। इतना कहकर वह यान में आ गयी। भारतीय ने किसी को न देखकर अपना कर्तव्य निश्चित किया। वह झटपट छतरी पहन कर विमान से बाहर कूद गया। सच है कि जिसे यदि कुछ भी मना किया जाए, वह वही करता है।

यदि हम आज के कुछ चर्चित लेखकों जैसे नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस.नयपाल, नीरद चौधरी, अमर्त्य सेन, पवन कुमार वर्मा आदि की अपने देशवासियों पर की गयी टिप्पणियों पर आपत्ति कर उन्हें साम्राज्यवादी अपशिष्ट भी कहें तो भी उनमें आत्मवलोकन के लिए कुछ तो आवश्यकता बची ही रहती है। देखें वे क्या कहते हैं। हम भारतीय छोटे-छोटे मनमुटावों व किसी के विरुध्द शिकायतों को लम्बे अरसे तक दिल में पालते हैं और कभी-कभी तो वर्षों बाद उसकी मृत्यु के उपरान्त भी विद्वेष प्रकट करते हैं। वी.के.कृष्ण मेनन के निधन के बाद भी प्रसिध्द पत्रकार व लेखक खुशवन्त सिंह द्वारा लिखे शोक संवाद को लोग आज भी उध्दृत करते हैं। इसी तरह विश्व प्रसिध्द लेखक नीरद चौधरी पर अपने दशकों पहले किये गये कथित एहसानों का वह कई बार उल्लेख कर चुके हैं। एक दूसरे प्रसिध्द लेखक ने भारतीयों को जुगाड़ु की संख्या दी थी जिसका अन्तनिर्हित गुढार्थ हम सभी जानते हैं। नीरद चौधरी ने स्वयं अपने ग्रंथ ‘कन्टीनेंट आफ सिरसे’ में लिखा है कि भारत के कठोर मौसम या यहां की भौगोलिक जलवायु ने यहां के लोगों को सुअर बना दिया है। यहां कोई अच्छा विचार पनप ही नहीं सकता है। यह वैसा ही विचार था जब अनेक ब्रिटिश लेखक कहते थे कि भारत की धूल, धूप, उमस, और बदहाली यहां के लोगों के दृष्टिकोण को भी संकीर्ण बना दिया है। ‘दि अग्ली इंण्डियन’ भारतीयों के लिए अंग्रजों को दिया विशेषण था। यदि साम्राज्यवादी दृष्टि असत्य की बुनियाद पर खड़ी थी और आज भी अंग्रेजी लेखक इसे उध्दृत करते रहते हैं। क्या हम भारतीय भी नस्लवादी मानसिकता वाले हैं? गोरेपन या निखरते रंग की खोज में हम कहां तक जा सकते हैं, यह विषय भी बहुधा उठाया जाता है जो हमें अप्रिय और असुविधाजनक लगता है। जब बॉलीवुड की अभिनेत्री फ्रीडा पिन्टो ने एक वक्तव्य में कहा कि अपने देश के लोगों सामाजिक मानदण्ड आज भी गोरेपन के अहसास से लिप्त हैं और जाने अनजाने हम इसके उपर उठना नहीं चाहते हैं, तब नैतिकता के उच्चासन पर बैठने वालों के अहंकार को गहरी चोट पहुंची थी। यह सच है कि मनोरंजन की दुनिया में सभी अपने चेहरे-मोहरे के लिए असुरक्षित महसूस करते हैं तथा फिल्म उद्योग की व्यावसायिकता के दबाव के कारण हर कोई अलग और विशेष रूप से अपने को प्रस्तुत करना चाहता है। चेहरे की झुर्रियां मिटाने, अधरों, नितम्बों, कटि प्रदेशों या आंखों के लिए आवश्यक प्रसाधन शल्य चिकित्सा आदि का सहारा आज आम बात है। पर फ्रीडा पिन्टो का आरोप है कि भारतीय गोरे रंग के प्रति अपना पक्षपात व आकर्षण जिस तरह दिखाते हैं वह बहुधा चर्चित नहीं होता है। सच होने पर भी अनकहा रह जाता है। गोरे रंग के लिए प्रसाधन के उपकरण जिसमें बोटोक्स-झुर्रियां मिटाने की महंगी दवाएं और इन्जेक्शन, क्रीम, लोशन, फेस पैक, और न्यूनतम अवधि में बेहतर सफेद निखार की गारंटी देने वाले उत्पादों के लिए कॉरपोरेट जगत द्वारा श्रव्य, दृश्य व मुद्रित मीडिया के सैंकड़ों करोड़ के प्रचारतंत्र के आधार से कौन अवगत नहीं है? दूसरा प्रमाण है कि महानगरों के संभ्रान्त, धनाढ्य, शिक्षित या उच्च मध्यवर्गीय परिवार से लेकर छोटे शहरों तक में लड़के के विवाह के लिए प्रकाशित विज्ञापनों में सभी को छरहरी, स्मार्ट, और गोरी बहू ही चाहिए। इस तरह का पक्षपात हर परिवार में बच्चों के शैशव से ही देखा जा सकता है। नवजात शिशु, विशेषकर यदि वह बालिका हुयी और गोरी न पैदा हुयी तो मां-बाप और परिवार की सभी महिलाएं मन मसोस कर रह जाती हैं और उसकी मां पर विविध रूपों में गुस्सा भी निकालती हैं। निकट संबंधी और अन्य परिजन भी काली या गेहुएं रंग की बच्ची के आगामी वर्षो में उसके लिए उचित वर की खोज का रोना शुरु कर देते हैं। लगभग शत-प्रतिशत खाते-पीते सम्पन्न घरों के वैवाहिक विज्ञापनों में भी गोरी लड़की की अनवरत खोज सामान्य बात है। जिसे दबे रंग की लड़की कहा जाता है चाहे कितनी शिक्षित, सुशील, या स्मार्ट हो, हमारे देश के मां-बाप अपने बच्‍चों के लिए उसे पहला विकल्प कभी नहीं मानते हैं। गोरी, श्वेत काया व चेहरे के विषय में सारा देश एकजुट होकर अपनी प्राथमिकता तय करता है। इसी के पीछे निखरते रंग की सुन्दरता का आश्वासन देने के लिए आज बड़ी से बड़ी कम्पनियों ने दो हजार करोड़ रुपये से अधिक का बाजार खड़ा कर दिया है। सिर्फ युवतियां या महिलाएं ही नहीं अब तो पुरुषों के गोरे बनने के लिए अलग प्रसाधन उपकरणों के विपणन के लिए बॉलीवुड के अनेक महानायक भी प्रचारतंत्र से जुडे दिखते हैं। पुरुषों को भी गोरा दिखने या बनने में कोई हीनता भाव न हो इसलिए मनोरंजन की दुनिया के बड़े रोल मॉडलों का अनुमोदन भी जारी है। गोरी चमड़ी आपकी बेहतर जीवन शैली की गारंटी है, यह दिन रात हमारे कानों में भरा जा रहा है। हमें भूलना चाहिए कि अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब आई.पी.एल के मोहाली में खेले जाने वाले क्रिकेट मैच के दौरान दो अश्वेत चियरलीडर लड़कियों ने यह आरोप लगाया था कि उनके गोरे न होने की वजह से अधिकारियों ने उन्हें मैदान से बाहर कर दियाथा। शायद इसलिए देश में हर नगर में फलते-फूलते ब्यूटी या मसाज पार्लर या ब्राइडल मेकअप के अनेक पैकेजों के नाम पर या फेयरनेस क्रीम, या ब्लीचेज के बहाने रंग में रुपान्तरण का आश्वासन बेचा जा रहा है। मनोरंजन की हमारी दुनिया के केन्द्र बॉलीवुड में गोरी सिनेतारिकाएं स्वयं ऐसे उपकरणों के अनेक ब्रांडों के अनुमोदक या प्रायोजक के रुप में आज देखी जा सकती है। जन सम्पर्क और छवि निर्माण उद्योग आज पश्चिम की नकल पर करोड़ों रुपये मात्र इस प्रकार के उत्पादों पर खर्च कर रहा हैकि वस्तुतः लोगों को जिन चीजों की आवश्यकता नहीं है, वे विश्वास कर लें कि उनकी चीजों की आवश्यकता नहीं हैं, वे विश्वास कर लें कि उनकी जरुरत उन्हें है। सामाजिक संबंधों को तोडने में यह मानसिकता सहायक होती है जैसे यदि पडोसी की लड़की की अपेक्षा आपकी बच्ची उतनी गोरी नहीं हैं, श्यामवर्णी सीधी सादी है तो उससे अहसास होना चाहिए कि नए प्रसाधन के उत्पाद उसे भी गोरा बना सकते हैं। चारों तरफ आपा-धापी, लूट और गोरे बनने की दमित इच्छाओं की रेलमपेल है। मीडिया भी इस प्रचार को नए नए छलों जैसे फर्जी सर्वेक्षणों, क्लीनीकल ट्रायल आदि द्वारा सजाया संवारा जाता है। प्रसाधन उद्योग के कर्णधारों की भी यह जिम्मेदारी बन जाती है। इसी को जनमानस का उपनिवेशीकरण भी कहा जा सकता है। आज प्रसाधन उद्योग का अनगिनत सीधी सादी साधारण युवतियों पर मीडिया का निरन्तर दबाव अनैतिक भी है। और नस्लवादी वर्णभेद को भी अप्रत्क्ष बढावा देता है। आज देश के टी.वी चैनल, पत्र-पत्रिकाएं, फिल्में, बड़ी विज्ञापन एजेंसियां, प्रसाधन व श्रृंगार के उपकरणों के उत्पादक फैशन शो, मॉडलिंग, शराब, सिगरेट व इत्रों निर्माताओं की मौलिक नीतियां एक जैसी है। सभी एक दूसरे के सम्भावित युवा और यौनाभिमुख पीढी के संदेशों को मजबूत करती है। सेक्स व अश्लीलता आधार बना कर उसके लिए नये बाजार की पृष्ठभूमि तैयार करने में कभी-कभी प्रख्यात सिने स्टार और खिलाड़ियों द्वारा इनके उत्पादों का अनुमोदन या सौन्दर्य प्रतियोगिताओं द्वारा उत्तेजक रुपतंत्र की खोज जारी है। इन सबसे समाज के प्रतिष्ठित व चर्चित लोग जुड़ते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमारा राष्ट्रीय चरित्र क्या होगा?

लेखक अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

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