Home विविधा आपदाओं से सीख लेने की आवश्यकता

आपदाओं से सीख लेने की आवश्यकता

-प्रभांशु ओझा-

Nepal-earthquake-3

प्रसाद की रचना कामायनी का प्रमुख पत्र मनु उस विनाश का साक्षी है जहाँ देवताओं की घोर भौतिकतावादी प्रवृत्ति भोग, विलास और उनके द्वारा प्रकृति के अनियंत्रित दोहन के परिणाम स्वरुप पूरी सभ्यता का विनाश हो जाता है सिवाय मनु के कोई भी नहीं बचता है।देव सभ्यता के प्रलय के बाद नए जीवन की उदेद्बुन मेंं लगे मनु के जीवन मेंं श्रद्धा और इडा नामक दो स्त्रियाँ आती हैं। श्रद्धा मनु को अहिंसक तथा प्रकृति प्रेमी बनाती है जबकि इडा उसे घोर भौतिकतावाद मेंं उलझा देती है और, तमाम लिप्साओं को ही मनु जीवन का उद्देश्य समझने लग जाता है, फिर एक दिन ऐसा आता है जब उसे अपनी तमाम गलतियों का अहसास होता है और उसके बुरे समय मेंं श्रद्धा उसकी रक्षा करती है। श्रद्धा जो की अहिंसा, सात्विकता और प्रकृति प्रेम की परिचायक है।पिछले कुछ दिनों से लगातार जारी भूचाल की घटनाओं से ऐसा लगने लगा है की प्रकृति का चक्र खुद को दोहरा तो नहीं रहा है। कहीं अपने आपको सबसे सभ्य कहने का दंभ भरने वाले मनुष्य के पापों का घड़ा भर तो नहीं गया है उन देवताओं की तरह जो अपनी नितांत दोहनवादी प्रवृत्तियों की वजह से समूल नष्ट हो गए। ऐसा नहीं भी है तो कम से कम इसका संकेत जरूर है की हम सुधर जाएँ।

अभी पृथ्वी दिवस बीते कुछ ही दिन हुए थे की हिलती धरती ने दिल दहला कर रख दिया और हर धर्म मेंं अपने अनुसार बताई गयी विनाश की तमाम मिथकीय कथाएँ सच नजर आने लगीं की ये दुनिया एक दिन नष्ट हो जाएगी । वो विनाश की तमाम गाथाएँ पता नहीं कितनी सच है और कितनी झूठ ये बहस का एक अलग मुद्दा है लेकिन कई दिनों से काँप रही धरती और मनुष्य के मन मेंं व्याप्त मृत्यु के भय, बिछी हुयी लाशें, टूटते आलिशान बंगलों को देखकर पता नहीं क्यूँ ऐसा आभास होने लगा की कहीं प्रकृति के असीमित दोहन के बाद सच मेंं वह समय तो नहीं आ गया जब की ये दुनिया ख़त्म हो जाएगी। आखिर इन तमाम आपदाओं की दोषी अनियंत्रित मानवीय इच्छाएँ ही तो हैं जहाँ हम घर के ऊपर घर बनाते चले जाते हैं, हिमालय की छाती चीरकर सड़कें बना डालते हैं, आलिशान बंगलों के लिए नदियों का रुख मोड़ने तक की हिमाकत कर डालते हैं और फिर ऐसे ही किसी दिन सूनामी, भूकंप और कोई खतरनाक तूफ़ान आता है और सब कुछ नष्ट हो जाता है।धरती के गर्भ मेंं जो कुछ भी था हम एक एक करके सब कुछ छीनते गए हैं चाहे वह तमाम खनिज संसाधन हों अथवा की जल हो। और अगर यह पूछा जाए की हमने इसके बदले मेंं धरती को दिया क्या है तो सच्चाई यही है की कुछ भी नहीं ।हमने अपनी इच्छाओं के अनुसार प्रकृति को तोडा मरोड़ा है, चारों तरफ मौजूद हरियाली को हमारे द्वारा बनायीं गयी विकास की ऊँची चिमनियों ने लगभग ख़त्म कर दिया है।एक अजीब सी ज़िन्दगी होती जा रही है हमारी जहाँ सब कुछ प्रदूषित और सब कुछ अशुद्ध है ।प्रकृति और इंसान की लड़ाई मेंं प्रकृति ही जीतेगी यह ऐतिहासिक सत्य है और अभी जितनी भी भयावह घटनाएँ हम देख रहे हैं, वह प्रकृति की जीत भी नहीं बल्कि एक संकेत मात्र हैं आने वाली तमाम भयावह आपदाओं का।अगर सीधे शब्दों मेंं कहें तो अभी यह ट्रेलर मात्र है, विनाश की पूरी फिल्म अभी बाकी है जिसकी पटकथा हमने ही लिखा है। नेपाल मेंं फिलहाल जो भूकंप आया है उसके दरारों के आंकड़े नहीं मिले हैं, लेकिन संभावना यह है कि यह 100-200 किलोमीटर के दायरे मेंं होगा। इससे पहले 15 जनवरी 1934 मेंं बिहार और नेपाल मेंं एक बहुत बड़ा भूकंप आया था, जिसमेंं 10,000 से अधिक लोग मारे गए थे। उसकी तुलना मेंं हम कह सकते हैं कि अभी तो फिलहाल उतना तीव्र भूकंप नहीं आया है। रिक्टर स्केल पर इस भूकंप की तीव्रता 7।9 है, जो भीषण श्रेणी मेंं नहीं आती है,भारत मेंं उतना नुकसान तो नहीं हुआ है लेकिन नेपाल से सीख लेते हुए अब हमेंं अतिसतर्क हो जाने की जरूरत है। जरा कल्पना करें की जिस तीव्रता का भूकम्प काठमांडू मेंं आया उसे झेलने के लिए हमारी दिल्ली तैयार भी है? जिस हिसाब से दिल्ली मेंं कंक्रीट का जंगल बिछ गया है भला यहाँ आदमी भाग के भी जाएगा तो कहाँ जाएगा, अधिकतर भवन पर्यवार्नीय मानकों के विपरीत ही बनाए गए हैं, प्रकृति देवता से तो यही प्रार्थना है की ऐसी कोई विपदा न आए फिर भी सच्चाई को स्वीकार करते हुए हमेंं मुस्तैद हो जाने की जरूरत है।कहा जाता है की भारत मेंं आपदा प्रबंधन की बजाए, प्रबंधन की आपदा है, जरूरत इस बात की भी है की बेहतर आपदा प्रबंधन के उपाय विकसित किए जाएँ, प्रयास तो इस बात किए जाएँ की ऐसी आपदाएं आएं ही न फिर भी इन आपदाओं के स्थिति मेंं लोगों को कैसे जल्द से जल्द राहत पहुंचाई जाए इसके लिए पुलिस, सेना के साथ ही साथ एनसीसी, एन एस एस जैसे संगठनों को भी पूरी तरह से ट्रेन किया जाए जिससे की उनकी मदद ऐसी आपदाओं के समय ली जा सके।

साथ ही साथ जनता को जागरूक करना भी जरूरी है की अगर भूकंप जैसी आपदाएं आती हैं तो इनसे बिना घबड़ाए हुए कैसे निबटा जाए क्यूंकि कई बार ऐसे घटनाओं की अफवाहों से मची भगदड़ मेंं सैकड़ों लोग की जान चली जाती है । हमेंं जापान से सीख लेने की जरूरत है जहाँ आए दिन के भूकम्प से बचने के लिए भवन निर्माण का तरीका भूकंपरोधी बनाया गया, वहां की स्कूली शिक्षा मेंं भूकंप से बचाव के उपाय सिखाए गए और आज हम देखते हैं की जापान ने काफी हद तक इसमें सफलता प्राप्त की है। हाल ही मेंं नेपाल मेंं आई भीषण आपदा से निबटने मेंं हमारे प्रधानमंत्री द्वारा बढ़ाया गया मदद का हाथ सराहनीय है, और भारत के भी कुछ भागों मेंं आई इस भयावह आपदा से निबटने मेंं सरकार द्वारा तत्परता दिखाई गयी ।ऐसे ही प्रयासों को और अधिक तेजी के साथ अमल मेंं ले जाने की जरूरत है। समय आ गया है कि प्रकृति को दांव पर लगा कर किए जाने वाले विकास के मॉडल को तत्काल ख़त्म किया जाए और पर्यावरन को बचने के वैश्विक प्रयास सामूहिक रूप से किए जाएँ ।विकसित और विकासशील देशों के बीच जारी तमाम मतभेदों को भुलाकर पर्यावरण की समस्याओं से मिलकर निबटा जाए।और एक बात यह भी की पर्यावरण की दिन प्रतिदिन गंभीर होती समस्याओं का समाधान सिर्फ तमाम वैश्विक सम्मेंलनों मेंं न देखा जाए, क्यूंकि अब तक अनुभाव यही रहा है की ये तमाम सम्मलेन एक दूसरे पर दोषारोपण की कवायद मात्र बनकर रह जाते हैं और अगर इनके कुछ परिणाम भी निकलते हैं तो वह ये की विकासशील देशों पर विकसित देशों द्वारा कुछ नए नियम कानून थोप दिए जाते हैं और विकसित देश अपनी जिम्मेंदारियों से भाग निकलते हैं।बहरहाल यह भी सच है की हम सारा दोष विकसित देशों पर थोप कर अपनी गलतियों को छुपा नहीं अकते हैं ।

इस सच को हमेंं स्वीकार करना ही पड़ेगा की पर्यावरण संरक्षण को लेकर हमसे बहुत ही गंभीर भूलें हुई हैं, अगर तमाम विकशित देश दोषी हैं तो हम भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। आखिर हमारे कितने घर ऐसे हैं जिनके निर्माण मेंं पर्यवार्नीय मानकों का ध्यान रखा जाता है,भूकम्परोधी मानकों का कितना प्रयोग हम भवन निर्माण के समय करते हैं भारत मेंं भूकंपरोधी निर्माण से संबंधित पहली संहिता 1935 मेंं आये भूकंप के बाद बनी थी। ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड ने भूकंपरोधी डिजाइन की अपनी पहली संहिता 1962 मेंं बनायी थी, पर अभी तक भारत ऐसा कोई कानून तैयार नहीं कर सका है, जिसमेंं इस संहिता को अनिवार्य तौर पर लागू करने का दिशा-निर्देश हो। वर्ष 1997 के भूकंप संवेदी एटलस पर यकीन करें, तो दिल्ली मेंं रिक्टर पैमाने पर आठ अंक की तीव्रतावाला भूकंप आने से यहां के 85 फीसदी से ज्यादा मकान ढह सकते हैं।। एक रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है की ग्रीन रेटेडबिल्डिंग्स , ऊर्जा दक्षता ब्यूरो ( बीईई ) द्वारा जारी  अपने सरकारी रेटिंग प्रणाली के न्यूनतम मानक स्तर को भी पूरा नहीं कर पा रही हैं। भारत ने 2007 मेंं भवनों केलिए राष्ट्रीय रेटिंग प्रणाली के रूप मेंं ग्रीन मूल्यांकन इंटीग्रेटेड हैबिटेट एसेसमेंंट ( गृहा ) को अपनाया। भारत ने भवनो के लिये ग्रीन रेटिंग की यह प्रणाली संयुक्त राज्य अमेरिका की एक निजी संस्था यूएसजीबीसी द्वारा भारत में भनाओं की ग्रीन रेटिंग के लिये शुरू की गयी एक निजी पहल का परिणाम थी। भारत में कुल ग्रीन रेटेड भवन निर्मित क्षेत्र भारत के कुल भवन निर्मित क्षेत्रों का महज़ ३ प्रतिशत ही है। रिपोर्ट के अनुसार इन  इमारतों के निर्माण तथा उनके संचालन में 30-50 फीसदी ऊर्जा और 20-30 फीसदी पानी बचाने का पैमाना तो महज एक स्वप्न बनकर रह गया है और मूल्याकं व्यस्था में तय किये गये विभिन सिल्वर गोल्ड तथा डायमंड स्टार के पैमानो में ज्यादातर भवन न्यूनतम सिल्वर स्टार के लायक भी नहीं हैं। हरित हमारे एतिहासिक काल में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के समय भवन निर्माण कला प्रकृति के बेहद करीब थी परंतु सभ्यता के विकास क्रम में आधुनिक विज्ञान और तकनीकी से लैश होकर भी हम उनसे हज़ारों साल पीछे हो गये हैं तथा छद्म भौतिकतावाद और पूंजीवाद द्वारा बिछाये जाल में ऐसे फंसे हैं की हालत यह हो गये हैं की आयेज कुंवा और पीछे खाई और एक ऐसे बाज़ार में खड़े हो गये हैं जहां हमने प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही खुद को भी बेच डाला है। ये गगनचुंबी इमारतें प्रलय की आंधी में चकनाचूर हो जाएं इससे पहले हमें सचेत हो जाने की आवश्यकता है समय की मांग है की गांव में मिट्टी के कच्चे मकानो को डहा कर बनाई गयी आग उगलने वाली इंट की दीवारों  और शहर में कंक्रीट के बड़े महलों की निर्माण प्रक्रिया को पर्यावरण मैत्री बनाया जाये और हम ऐसे हरित भवनों का निर्माण करें जो की हमारे आंतरिक और बाह्य दोनो स्वास्थ्य को संतुलित करें । हम अगर मकान ना रहे तो ज़िंदा रह सकते हैं जैसा की इतिहास भी रहा लेकिन अगर पर्यावरण को दांव पर लगाकर आशियाने बनाये तो इंसान के अस्तित्व की कल्पना भी अकल्पनीय लगती है।

NO COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here