मानवीय रिश्तों की गरिमा और अहमियत समझने की ज़रूरत है !

क़बाल हिंदुस्तानी

उस बूढ़ी मां की जान बचाकर मुझे बेशकीमती संतोष मिला है!

आज पूंजीवाद और समाजवाद का अंतर धीरे धीरे हमारे सामने आने लगा है लेकिन दौलत और शौहरत के पुजारी मुट्ठीभर लोग इस सच्चाई को लगातार झुठलाने का प्रयास कर रहे हैं कि पैसा कमाने की होड़ समाज से रिश्ते नातों, धर्म, मर्यादा और नैतिकता को पूरी तरह ख़त्म करती जा रही है। पूंजीवाद के सबसे बड़े वैश्विक गढ़ अमेरिका की हालत दिन ब दिन पतली और समाजवाद के आज भी मज़बूत किले चीन की हालत लगातार मज़बूत होने से भी हमारी आंखे नहीं खुल रही हैं। सच यह है कि आज हम इतने स्वार्थी और एकांतवादी होते जा रहे हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अपनी मनमानी करने के लिये हम रिश्तों नातों को कच्चे धागों की तरह तोड़ने में एक पल भी नहीं लगाते।

अगर थोड़ा झगड़ा और रूठना मनाना होकर ये सम्बंध फिर से प्यार मुहब्बत की डोर में बंध जायें तो फिर भी आपसी तालमेल और साझा जीवन का एक रास्ता निकल सकता था लेकिन आज तो हालत यह हो गयी है कि साझा परिवार टूटते जा रहे हैं। आज भाई भाई के बीच स्वार्थ की दीवार उूंची होती जा रही है। बच्चे मांबाप को बोझ समझने लगे हैं। हम अपनी महान सभ्यता और संस्कृति के उन बेहतरीन पहलुओं को भी भुलाते चले जा रहे हैं जिनकी वजह से भारत कभी पूरे विश्व में अपनी एक अलग पहचान रखता था। जब हम खून के रिश्ते ही संजो कर नहीं रख पा रहे तो ऐसे में पड़ौसी और मानवता का रिश्ता निभाना तो दिन में सपना देखना जैसा माना जा सकता है लेकिन मैं दावे से कह सकता हूं कि आज भी इंसान और इंसानियत का पाक और मुहज़्ज़ब सम्बंध बड़ा मानने वाले लोग मौजूद हैं। इसका सुखद अनुभव मैंने खुद पर्सनली किया है।

0एक सच्ची कहानी मैं अपने सभी दोस्तों और चाहने वालों के साथ बांटना चाहता हूं। दो दिन पहले मैं लंच करने के बाद पैदल पैदल अपनी कम्पनी को लौट रहा था। मैं जिस फैक्ट्री में काम करता हूं उसके लिये हरिद्वार रोड से होकर दो रास्ते जाते हैं। पहला रास्ता कोतवाली देहात वाले डबल फाटक से होकर गुज़रता है। दूसरा रास्ता रेलवे मालगोदाम से शॉर्टकट माना जाता है। जब तक यह रास्ता आम था मैं भी इससे होकर गुज़र जाता था लेकिन जब से नजीबाबाद से इलैक्ट्रिक लाइन रेलवे ने शुरू की है तब से यह रास्ता ख़तरनाक होने की वजह से पैदल आवागमन के लिये बंद कर दिया गया है लेकिन हम हिंदुस्तानी लोगों की आदत जोखिम लेने की इस मामले में कुछ ज़्यादा ही है। इसलिये अभी भी बड़ी संख्या में इस रास्ते से लोग आते जाते रहते हैं।

मैं जब घर से रेलवे मालगोदाम वाले तिराहे पर पहुंचा तो मैंने देखा कि गांव की लगभग 80 साल की एक बूढ़ी मां इसी ख़तरनाक रास्ते की ओर बढ़ रही है। मैंने उनको रोकना तो मुनासिब नहीं समझा लेकिन मैं पता नहीं कौन सी छटीं इंद्रिय आवाज़ पर उस बूढ़ी मां के पीछे पीछे चल पड़ा। अभी उस बूढ़ी मां ने सात में से दो लाइनें भी पार की होंगी और वही ख़तरा सामने आ गया जो मैं सोच रहा था। अचानक तीसरी लाइन पर एक इंजन शंटिंग करता हुआ धड़धड़ाता हुआ चला आ रहा है। जहां लाइन बदलती है, मैंने देखा उस बूढ़ी मां का पैर उन दो लाइनों के गैप में फंस चुका है। मेरे पास उस बूढ़ी मां की जान बचाने को सोचने का समय कुछ पलों का था।

मैंने अपनी सारी इच्छाशक्ति समेटी और दौड़कर उस बूढ़ी मां को सहारा देकर लाइन क्रॉस करानी चाही मगर यह क्या वह तो अपनी गठरी और लाठी संभालने में इतनी तल्लीन थी कि मुझे झटक कर वहीं चिपक सी गयी। मौत की शक्ल में तेजी से नज़दीक आ रहा रेलवे इंजन अब कुछ कदम की दूरी पर था मैंने उस बूढ़ी मां की गठरी और लाठी छीनी और लगभग उनको गोद में उठाने की मुद्रा में धक्का देकर खुद भी लाइन से आगे जा चुका था। उधर लाइनों के दोनों तरफ लोगों की भीड़ लग चुकी थी। उनमें से कुछ लोग बचो बचो…. चिल्ला रहे थे तो कुछ लड़कियां रोने लगी थीं। शायद वे मान चुकी थीं कि अब बूढ़ी और मैं दोनों में से कोई नहीं बचेगा।

यह सब कुछ कितनी जल्दी और कैसे हो गया मुझे याद नहीं लेकिन जान बचने पर उस बूढ़ी मां की आंखों से जो अश्रु की धारा बही और उसने मुझे गले लगाकर दुआएं दीं उससे जो अहसास मुझे जिंदगी में पहली बार हुआ वो इससे पहले कभी किसी खुशी से नहीं हुआ था। मैं कहना यह चाहता हूं कि कभी कभी हम वो कर गुज़रते हैं जिसके बारे में कभी सोचा भी नहीं होता है। आज मैंने किसी की मां की जान बचाई तो कल कोई मेरी भी इसी तरह से मदद कर सकता है। हालात और संस्कार हमें यही सिखाते हैं कि रिश्ते नाते जन्म से या ब्याह शादी से ही नहीं बनते बल्कि एक रिश्ता इंसानियत और समाजिकता भी होता है जिसको निभाने से आदमी को इतना दिली सकून और तसल्ली मिलती है कि उसकी कीमत वह रूपये पैसे में बड़ी से बड़ी रकम में पाकर भी खुश नहीं हो सकता।

सम्बंध बना तो कोई भी सकता है लेकिन उनको निभाना ही असली परीक्षा होती है। गरीबों और ज़रूरतमंद लोगों के काम आने और उनको सही सलाह देकर भला करने से जो सुख, प्रसन्नता, आनंद और संतोष मिलता है उसका कोई दूसरा विकल्प हो ही नहीं सकता। जानवर भी अपने लिये जीता है लेकिन जो अपने साथ साथ दूसरों के लिये भी जीता है वही सच्चा इंसान होता है। इस हादसे के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि जो लोग अपना धन, समय और श्रम दूसरों की सेवा में लगाते हैं उनको कितनी सुखद अनुभूति होती होगी। मैं भी कभी कभी विकलांग बच्चों की सेवा करने प्रेमधाम आश्रम जाता हूं तो यह अहसास ताज़ा हो जाता है कि दुनिया में धन दौलत और पद से भी बढ़कर और भी बहुत कुछ है।

ग़मों की आंच पर आंसू उबालकर देखो,

बनेंगे रंग जो किसी पर भी डालकर देखो।

तुम्हारे दिल की चुभन भी ज़रूर कम होगी,

किसी के पांव से कांटा निकालकर देखो।।

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

1 COMMENT

  1. इक़बाल हिंदुस्तानीजी आपके लेख का शीर्षक अच्छा है.आपके साथ घटित घटना आपकी मानव मूल्यों के प्रति आश्था भी दर्शाती है,पर समाजवाद और पूंजी वाद के चक्कर में आप एक जगह मात खा गए.आपको किसने बताया है कि आज के चीन में समाजवाद है?चीन में भी उसी तरह का पूंजीवाद है जिस तरह अमेरिका में है.मोटे तौर पर केवल दो अंतर है.पहला तो यह की जहां अमेरिका में चुनी हुई सरकार है और वहां की जनता को अधिकार मिला हुआ है कि वह प्रत्येक चार वर्षों में उस सरकारको बदल सकती है,वहीं चीन की जनता उस अधिकार से वंचित है.दूसरा अंतर यह कि जहां अमेरिका में मजदूर संगठन बहुत सशक्त है,जिसके चलते वहांकिसी भी वस्तु के उत्पादन में लागत अधिक है,वहीं चीन के नागरिकों को चाहे वे मजदूर हों या आम नागरिक ऐसा कोई अधिकार नहीं है.जिससे वे मनमानी कर सकें.आपको शायद यह ज्ञात नहीं है कि चीन में भी करोड़ पतियों की संख्या के साथ साथ गरीबों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है.मानवाधिकार के हनन में भी चीन बहुत ऊपर है.

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