नींद नैन में बस जाती है

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नींद हमे जब ना आती है

चलती घड़ी रुक सी जाती है।

कलम उठाकर लिखना चाहूँ

भूली बीसरी याद आती है।

कलम जब कभी रुक जाती है

नींद कंहा फिर तब आती है।

कोई कहानी मुकम्मल होकर

जब काग़ज पे उतर आती है,

नींद नैन में बस जाती है।

शब्द कभी कहीं खो जाते हैं

भाव रुलाने लग जाते हैं

किसी पुराने गाने की लय पर

कोई कविता जब बन जाती है।

नींद हमें फिर आ जाती है।

राह में जब रोड़े आते है,

चलते चलते थक जाते हैं

पैरों में छाले पड़ जाते

ऐसे सपने हमें आते है,

कोई नई कहानी तब

सपनो में ही गढ़ी जाती है,

नींद चौंक कर खुल जाती है।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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