कम्युनिस्टों के नए ब्रांड एंबेसडर:विवेकानंद

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वैचारिक अस्पृश्यता ने दुनिया को सैकड़ों छोटे बड़े युद्ध की ज्वाला में जलाया है | सरहदों की लकीरें भी इस वैचारिक अस्पृश्यता की गवाही देती है | आज भी सामाजिक अस्पृश्यता से ज्यादा खतरनाक है तथाकथित बुद्धिजीवियों का वाद राग और उससे उपजते वैचारिक छुआ-छूत से समाज के सर्वांगीण विकास में रूकावट आना | ऐसे ही वैचारिक सवर्णों का एक तबका लम्बे अरसे से भारत के सामाजिक समरसता और विकास में दीमक की तरह बैठे रहे | सायद इन्हें भी समय रहते यह महसूस नहीं हो पाया कि समाज के मूल धारा के विपरीत होकर इन्होने कितना बड़ा नुकसान किया है | यह विचार का जिद था | वैसा ही जिद जैसे कुछ लोग देश-काल और मौसम बदलने पर भी अपने पसंद का भोजन कपड़ा और दिनचर्या नहीं छोड़ना चाहते, परिणामस्वरूप उनका स्वस्थ्य ख़राब हो जाता है और फिर वो प्रकृति के साथ चलना स्वीकार कर लेते हैं | भारत के कम्युनिस्टों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है | कम्युनिस्ट जब भारत में प्रवेश किया उस समय भारत की परिस्थिति वैसी नहीं थी जहां से कम्युनिस्ट आये थे | लेकिन इन्होने एक वैचारिक सांचा (फ्रेम) तैयार किया था जिसमे भारतीय समाज को फिट कर देने की जिद थी | भारत आगमन के लगभग आठ दसक बाद कम्युनिस्टों की जिद उसी तरह ख़त्म हो रही है जैसे कोई नादान बच्चा मेले में हाथी पर चढ़ने के बाद उसे साथ ले जाने की जिद कर बैठता है, लेकिन जल्दी ही उसे समझ में बात आ जाती है और वह मिट्टी या प्लास्टिक के हाथी लेने के बाद चुप हो जाता है | आजादी के पूर्व भारत में कम्युनिस्ट विचारों का भरण पोषण होता रहा क्यों कि अंग्रेज पूंजीवादी थे और साम्राज्यवादी भी इसीलिए अंग्रेज का विरोध कम्युनिस्ट का वैचारिक अधिकार था |प्रश्न यह उठता है कि स्वतंत्र भारत में कौन सा पूंजीवाद और कौन सा साम्राज्यवाद था जिसको खत्म करने के लिए वामपंथ जारी रहता ? लेकिन यह एक वैचारिक राग था जिसे आलापते रहना जरुरी था ताकि सोवियत या अन्य कम्युनिस्ट व्यवस्था के सफल होने पर यह कहा जा सके या आन्दोलन खड़ा किया जा सके कि भारत में भी वामपंथी व्यवस्था ही जरुरी है | सोवियत सफल नहीं हुआ, भारत का वामपंथ चरमपंथ में बदल गया | भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अब नए राग के साथ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी हो गई | जल्दी ही और परिवर्तन हुआ एक और शब्द गूंजा कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया मार्क्सवादी लेलिनवादी (CPI ,ML) | वामपंथ के और भी कई टुकड़े हुए | किसी ने सुभाष चंद्र बोस को अपना आदर्श बनाकर लोगों को गुमराह किया तो किसी ने भगत सिंह को ही वामपंथी साबित करने के लिए झूठा इतिहास लिख डाला | इस पूरे घटनाक्रम में दो बातों पर पूरा वामपंथ कभी एकमत नहीं हो पाया | कम्युनिस्ट के स्थापना के समय ही कई लोग ऐसे थे जो भारत के कम्युनिस्ट पार्टी को भारतीयता का जामा पहनना चाहते थे, लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ लेकिन विचारधारा के अन्दर भारतीयता का राग भी चलता रहा | कम्युनिस्ट विचार में भारतीयता के समर्थकों का मत था कि वामपंथ का माडल यदि भारतीय होगा तो हमारी जड़ें आम जनता में ज्यादा मजबूत हो पायेगी और इसके लिए भारतीय परंपरा का हम सम्मान करें, दूसरा हमारा आदर्श मार्क्स ,लेलिन और स्टालिन न होकर भारतीय का ही कोई महा पुरुष हो, हम अपने आप को नास्तिक न कहें बल्कि धार्मिक बातों पर चुप रहें या इसे व्यक्तिगत विषय बताकर लोगों के ऊपर छोड़ दे | इन्ही प्रश्नों के कारण सुभाष और भगत सिंह के नाम का प्रयोग कम्युनिस्टों ने बड़े ही चालाकी से किया परन्तु भारत के जनमानस को कम्युनिस्ट व्यव्हार में सुभाष और भगत सिंह नहीं दिखे,मुठ्ठी भर लोगों ने भी वामपंथ का साथ छोड़ दिया | अब वैचारिक शुन्यता है | कोई आदर्श नहीं है | मार्क्स और लेनिन युवाओं को अब प्रभावित नहीं करता | ऐसे में बहुत बड़ा सवाल खरा हुआ कि घराना बचाए रखना है तो कोई न कोई राग तो आलापना ही पड़ेगा | अबकी बार कम्युनिस्टों का यह नया राग है, “राग विवेकानंद” |

मौका है स्वामी विवेकनद के १५० वीं जयंती वर्ष का | पिछले दिनों कम्युनिस्टों के केरल में हुए एक बैठक में मंच के बैकड्राप पर जो बैनर लगा था उसमे स्वामी विवेकानंद की तस्वीर थी | इतना ही नहीं इस जयंती को कम्युनिस्ट वर्ष भर अपने इकाइयों में विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से मनायेंगे |स्वामी विवेकानंद को सम्मान देने का हक़ सबको है,इसलिए इस कदम का तो स्वागत होना ही चाहिए | बस ये बात समझ से बाहर हो जाती है कि यदि यह आदर्श सिर्फ युवाओं को गुमराह करने भर के लिए है या वास्तव में कम्युनिस्टों के चाल-चरित्र में भी कोई बदलाव आएगा | स्वामी विवेकानंद को जिस आधार पर वामपंथी विचारों के करीब लाकर लोगों को दिखाते हैं वह है ”नर सेवा” और ”दरिद्र नारायण” का विचार | लेकिन कम्युनिस्टों को ये ध्यान रखना होगा कि स्वामी जी ने लूट-मार कर दरिद्रता मिटने की बात नहीं कही थी, उन्होंने ये भी नहीं कहा था देश में रहकर और देश का खाकर चीन या सोवियत का गुणगान करो | स्वामी जी के विचारों को अपनाने के लिए कम्युनिस्टों को भारतीय रंग चढ़ाना पड़ेगा, भारत के इस अरुणोदय के बेला में जहां भारत की हर ओर तरक्की हो रही है वहाँ संध्याकालीन सुलाने वाला राग नहीं चलेगा | मन,कर्म और वचन में एकरूपता रखते हुए देश को सर्वोपरि मानकर यदि वामपंथ आगे बढेगा तो निश्चय ही स्वामी जी के प्रति वामपंथियों की सच्ची श्रधा और निष्ठा मानी जाएगी,और वामपंथ भी फिर से एक राजनीतिक विकल्प के तौर पर लोगों को पसंद आ सकता है और सबसे बड़ी बात की ‘सं गक्षध्वंग सं वदध्वं …………’ वाले देश में वैचारिक अस्पृश्यता में कमी भी आएगी |

राजीव पाठक

8 COMMENTS

  1. आदरणीय श्रीराम तिवारी जी आप तो विद्वान व्यक्ति हैं | क्षमा करे किन्तु आपके भाषा से विद्वता की बू आती नहीं है ! मै तो आपसे तिहाई उम्र का हूँ | आपको इतनी भी क्या जलन हो गई कि आप अपने से छोटे को आशीर्वाद भी नहीं दे सकते | जरा फिर से अपने शब्दों पर गौर फरमा लीजियेगा…….खुद ही शर्मसार हो जायेंगे | आपके शब्द ………” आजकल हर कोई ऐरा-गेरा नत्थू खेरा टटपूंजिया लेखक अपने आधे अधकचरे आलेखों को कम्युनिस्म के खिलाफ इस्तेमाल कर पूंजीवादी लुटेरों-डाकुओं की भडेती कर मानवता को शर्मशार कर रहा है.” |
    रही बात इस आलेख के दम की..वो तो आप कम्युनिस्ट साथियों से ही पूछ लेते तो ज्यादा अच्छा होता | जानकारी पक्की है ..कोई शक हो तो हमें जरुर बताइयेगा ………..

  2. शहीद भगतसिंह पक्के लेनिनवादी थे.उन्हें यदि आज के कम्युनिस्ट अपना आदर्श मानते हैं तो कोई एहसान नहीं करते.शहीद भगतसिंह के समकालीन मित्रों और स्वाधेनता सेनानियों ने समवेत स्वर में स्वीकार किया की भगतसिंह अपने अंतिम दिनों में अपने आपको गर्व से ‘वोलशेविक’ कहा करते थे[पढ़ें,सिंहावलोकन…लेखक-मन्मथनाथ गुप्त] यह तो एक अदना और सामान्य वुद्धि का आदमी भी समझता है कि वोलशेविक का तात्पर्य कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी-लेनिनवादी होता है.
    इस आलेख में कुछ भी दम नहीं कोरी लफ्फाजी और बकवास है.आजकल हर कोई ऐरा-गेरा नत्थू खेरा टटपूंजिया लेखक अपने आधे अधकचरे आलेखों को कम्युनिस्म के खिलाफ इस्तेमाल कर पूंजीवादी लुटेरों-डाकुओं की भडेती कर मानवता को शर्मशार कर रहा है.

    • लेकिन तिवारीजी भगत सिंह के साथ आजीवन सजायाफ्ता शचीन्द्रनाथ बक्शी के बारे में आपलोगों का क्या ख्याल है? वे तो जब संघ के विधायक दक्षिण कशी से रहे.
      रही बात भगत सिंह की तो वे जो भी थे उन्हें हर भारतवासी राष्ट्रवादी मानता है – १९३१ जब वे मरे कमुनिस्ट पार्टी का कोई खास फैलाव भारत में नहीं था – यदि वे कमुनिस्ट ही थे तो स्वयम मंमंथ्नाथ गुप्ता, शचीन्द्र बक्षी, बटुकेश्वर दुत्ता, चंद्रशेखर आज़ाद और ख़ास कर उनके गुरु बिस्मिल के बारे में क्या ख्याल है?
      आपलोंगों तो प्रेमचंद को भी कमुनिस्ट बना दिया? और ‘रेनू’ को भी हाथों हाथ उठा लिया(वैसे उसके बेटे ने बीजेपी का दमन थाम लिया विधायक बाने और शायद भगत सिंह का अनुज भी जन संघ का विधायक या सदस्य था).

  3. डॉ धनकर जी आपका विचार बहुत ही उत्तम है | आपके अंतिम पंक्ति “………..और यदि इस ओर राष्ट्रवादी ध्यान न देकर अपने को विलासिता, पञ्च सितारे होटलों में दिखने की कोशिश करेंगे तो विवेकनद उनके लिए अप्रासंगिक हो जायेंगे” का अनुसरण राष्ट्रवादी जरुर करें, जो विवेकानंद को अपने आदर्श में सबसे ऊपर रखतें हैं |

  4. मेरी लेझ में लेख को विवेकंद्र पर केन्द्रित होना चहिये था जिनहे कमुनिस्तों ने भी अपनाने में भला समझा पर लेख कमुनिस्ट केन्द्रित हो गया है.
    भारत की परिस्थिति आजादी के बाद खास बदली नहीं अंग्रेज पूंजीवादी थे और साम्राज्यवादी थे गए पर अंगरेजी रह गयी अंग्रेजियत रह गयी पर इसका विरोध कम्युनिस्ट का वैचारिक तंत्र इसलिए नहीं कर सकता की तब उसे राष्ट्रिय बनाना होगा . मैं नहीं मानता की स्वतंत्र भारत में पूंजीवाद नहीं है और बहुराष्टत्रीय आर्थिक साम्राज्यवाद में यह नाहे फंसा है जिसको खत्म करने के लिए वामपंथ जारी रहता पर वह यह कार्य नहीं कर सका या सकेगा क्योंकि इसका निराकरण राष्ट्रवाद से ही संभव है सुभाष और भगत सिंह के नाम का आदर्श राष्ट्रवाद से है | मार्क्स और लेनिन को छोड़ यदि कम्युनिस्टों ने भी विवेकानंद को अपनाया है तो अच्छी बात है |
    स्वामी विवेकानंद की इस जयंती को कम्युनिस्ट वर्ष भर अपने इकाइयों में विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से मनायेंगे तो अच्छी बात है -इसका स्वागत होना ही चाहिए |
    | स्वामी विवेकानंद को जिस आधार पर वामपंथी विचारों के करीब लाकर लोगों को दिखाते हैं वह है ”नर सेवा” और ”दरिद्र नारायण” का विचार | .
    और यदि इस ओर राष्ट्रवादी ध्यान न देकर अपने को विलासिता, पञ्च सितारे होटलों में दिखने की कोशिश करेंगे तो विवेकनद उनके लिए अप्रासंगिक हो जायेंगे- अभे इभी देश में गरीब ही अधिक हैं.

  5. इक़बाल जी लेख में मैंने सिर्फ उन्ही बातों का जिक्र किया है जो वास्तविकता है,फिर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने का को सवाल ही नहीं है | आप सही कह रहे हैं कि ” सभी विचारधाराएँ कट्टर और दकयानूसी होती हैं ” लेकिन यह बहुत ही सोचने वाली बात है कि कोई विचारधारा अपने आदर्श को बदल रहा है | जो भी हो स्वामी विवेकानंद सबके हैं | मुझे भी ख़ुशी है कि वामपंथियों नें स्वामी विवेकानंद के विचारों को अपनाया है |

  6. लेख पूर्वाग्रह से ग्रस्त है क्योंकि वामपंथी ही नही सभी विचारधाराएँ कट्टर और दकयानूसी होती हैं निष्पक्ष होने के लिए इनसे ऊपर उठाना होगा.

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