न जाति: कारणे लोके गुणा: कल्याण हेतव:’

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                          ‘मनुष्य के कल्याण का कारण उसकी जाति नहीं वरन उसके गुण ही हो सकते हैं’{ न जाति: कारणे लोके गुणा: कल्याण हेतव:’} —जैसे सूत्र को समाज के सामने प्रस्तुत करने वाले श्री रामानुज की  स्मृति में आज देश  ‘श्रीरामानुज सहस्त्रब्दी समारोहम’ (१००० वीं जयंती) मना रहा है. अध्यात्म के क्षेत्र में तो श्री रामानुज नें  बड़े उल्लेखनीय काम किये ही, पर सामाजिक समानता  को लेकर उन्होंने आगे बढकर जो पहल की वो युगप्रवर्तक हुए. इसी सन्देश को जन-जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से शमशाबाद, हेदराबाद में 216 फीट ऊंची भव्य प्रतिमा ‘ स्टेचू ऑफ़ इक्वेलिटी’  निर्मित की गयी है, जिसका अनावरण आगामी दिनों नरेंद्र मोदी के हांथों होना है. 
                श्री रामानुज का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था पर सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में समस्त प्रकार के भेदभाव युक्त बंधनों को अस्वीकार करते हुए श्रीरामानुज  निम्न जातीय बंधुओं  के हाथों भोजन करते थे. कर्नाटक के मेलुकोटे स्थित प्रसिद्ध तिरुनारायण पेरुमाल वैष्णव मंदिर के द्वार अस्पर्श्यों के लिए खुलवा दिए. गोल्ला[पिछड़े] समाज को तिरुपति बालाजी मंदिर में प्रथम दर्शन का अधिकार उनके प्रभाव से ही संभव हो पाया. वैसे तो शास्त्रों  के अध्ययन के लिए उन्होंने पांच अलग-अलग आचार्यों को चुना, पर जिनके सानिध्य में रहकर उन्होंने रामायण के तत्व-दर्शन को ग्रहण किया वो थे नाम्बी [गोष्ठिपूर्ण], जिनका जन्म अब्राह्मण  समाज में हुआ था. पहली बार जब वो उनके पास शिक्षा लेने पहुंचे तो नाम्बी जी नें पूछा, ‘मैं  निम्न कुल से उत्पन्न आप ब्राह्मण को कैसे शिक्षित कर सकता हूँ ?’ श्री रामानुज का उत्तर था— ‘गुरुदेव क्या यज्ञोपवित पहननें से कोई ब्राह्मण हो जाता है? जिसकी भक्ति इश्वर में हो, वही सच्चा ब्राह्मण है . महान आलवार भक्त , विविध जातियों के थे किन्तु सभी भगवत्भक्त थे.आप भली प्रकार से जानते हैं कि  निम्न कुल में उत्त्पन तिरुप्पन आलवार अपनी योग्यतायों के कारण अनेक ब्राह्मणों के लिए पूज्य हो गए. और युधिष्ठिर क्षत्रिय होकर भी निम्न जाति के विदुर की पूजा किया करते थे.’
                    वैसे श्री रामानुज के प्रमुख गुरु श्री पेरियर नम्बी[महापूर्ण]थे. ये निम्न जाति के माने  जाते थे, जिनसे श्री रामानुज नें वेद तथा नालायिर प्रबन्धम[तमिल वेद] का ज्ञान प्राप्त किया.इन्ही गुरु नें उनको वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित कराया; फिर  आगे चलकर वे अपनी विलक्षण प्रतिभा  के बल पर वैष्णव मत के उत्तराधिकारी बने. श्री वैष्णव मत में भक्ति व दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ तिरुवायमौली को माना जाता है, जिसके रचियता श्री नाम्मालवार थे जो की निम्न जाति के थे.श्रीरामानुज नें अपने एक प्रमुख शिष्य से तिरुवायमौली पर एक भाष्य लिखवाया. कभी मुसलमान शासक मालिक काफूर मेलुकोटे के एक मंदिर में स्थापित श्री कृष्ण की मूर्ती को देख उसे अपने साथ दिल्ली ले गया था. इस मूर्ती को वापस लाने  का काम श्रीरामानुज नें ही किया;इस महान  कार्य में उन्हें जिनका सहयोग मिला वो थे निम्न  कही जाने वाली विविध जातियों  के लोग. इस गौरवशाली घटना की स्मृति में मेलुकोटे में चली आ रही रथयात्रा की परंपरा में  इन जातियों को इस काम को पहले  करने का अधिकार प्राप्त है. इस घटना से एक प्रसंग और जुड़ा हुआ है. हुआ यूँ कि दिल्ली में रहने वाला मुस्लिम राजपरिवार की एक श्रीकृष्ण भक्त कन्या श्रीरामानुज के व्यक्तित्व से प्रभवित हो उनके पीछे-पीछे मेलुकोटे आ पहुंची. देशहित के परन्तु तब के समय में सर्वथा असंभव कार्य को पूर्ण करते हुए श्रीरामानुज नें इस मुसलमान बालिका को सम्मानपूर्वक मंदिर में प्रवेश देते हुए पूजा की अनुमति दी.यही बालिका अपनी कृष्णभक्ति के कारण बीवी नाच्चियार के नाम से विख्यात हुई.
           दूसरी हर इच्छा को त्यागकर एक भगवान की शरण में आत्मा की तृप्ति को पा लेना इस भाव से युक्त भक्ति को दक्षिण भारत में जिन्होंनें जन-जन के हृदय में स्थापित किया उनको हम आलवार संत के रूप में जानते हैं, जो कि ब्रह्मणेत्तर विविध जातियों के थे. इस भक्ति को आगे चलकर जिन संत के द्वारा ‘प्रपत्ति’ नाम से सम्मान प्राप्त हुआ वो कोई और नहीं श्रीरामानुज ही थे. श्रीरामानुज नें  ‘प्रपत्ति’ के द्वार उन सभी लोगों के लिया खोल दिए जो अब तक जात-पात के कारण धर्म के आश्रय व आनंद से वंचित रहने के लिए विवश थे. आगे चलकर १४वीं शताब्दी में रामानंद स्वामी नें इस ‘प्रपत्ति’ के माध्यम से ही उत्तर भारत में भक्ति-आन्दोलन को समाजोन्मुखी बनाने का अभूतपूर्व कार्य किया. इस प्रकार उत्तर-दक्षिण के मध्य भक्ति के माध्यम से निर्मित सेतु के पीछे भी श्रीरामानुज की प्रेरणा नें ही काम किया.

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