जनता परिवार के विलय के बाद भी संशय बरकरार

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janta pariwar

निर्भय कर्ण

अपने आप को समाजवाद का अग्रदूत मानने वाले जदयू, राजद, सपा, इनेलो, जेडीएस एवं एसजेपी के बीच महाविलय की बातें 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद से ही शुरू हो गयी थी। इसी बीच महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर और झारखंड में भाजपा की जीत ने इन दलों को महाविलय प्रक्रिया में तेजी लाने पर विवश कर दिया और उसके बाद लगातर बैठक दर बैठक चलती रही और अंततः 15 अप्रैल, 2014 को जनता परिवार का विलय हो ही गया। साथ ही सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव निर्विरोध रूप से अध्यक्ष चुन लिए गए लेकिन यह दल अभी भी बेनामी की राह पर ही है। यानि कि इस नए दल का नाम, चिह्न व अन्य पदों का अभी कोई अता-पता नहीं जिससे लोगों के मन में यह संशय उत्पन्न होने लगा है कि आखिर लगभग एक साल तक इस विलय को लेकर चल रही उठापटक के बाद भी अभी भी अधर में ही क्यों है?

 

यह महाविलय अब एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में जानने-पहचानने के पथ पर अग्रसर है। लेकिन यह नया दल कब तक एकजुट रहेगी, यह कोई नहीं जानता। सभी दलों की वर्तमान सियासी मजबूरियां है जो सबको एकजुट कर रही है। इस महामोर्चा पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि शून्य यदि शून्य से मिलता है तो उसका परिणाम भी शून्य ही होता है। इससे पहले केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने चुटकी लेते हुए कहा था कि लोकतंत्र में सभी दलों को किसी भी मुद्दे पर एकजुट होने या अलग होने की छूट है, लेकिन जनता दल परिवार का डीएनए संकेत देता है कि वे एक साथ आएंगे और फिर अलग हो जाएंगे। वहीं कांग्रेस नेता शकील यादव ने कुछ समय पूर्व कहा था कि पुराने समाजवादी अपनी विशेषताओं के लिए जाने जाते हैं, वे ज्यादा दिनों तक अलग नहीं रह सकते, लेकिन वे एक साल से ज्यादा साथ भी नहीं रह सकते।

विलय की रूपरेखा तय करने की जिम्मेदारी सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को सौंपी गयी है। यह तय है कि महत्वपूर्ण नेताओं की जवाबदेही और पदों को लेकर महाविलय में महासंकट की भी आने की संभावना है। क्योंकि ऐसी संभावना है कि उस समय अपने-अपने स्वार्थ के चलते कहीं आपसी मनमुटाव न शुरू हो जाए। इसकी असली शुरुआत बिहार में 2015 में होने जा रहे चुनाव से पहले ही देखने को मिलने लगेगा जिसमें बिहार में इन नेताओं की अहम आगे आड़े आएगी और महामोर्चा की नींव कमजोर होगी। क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें तो साथ रह नहीं सकती। याद रहे कि लालू यादव के कुशासन को वर्षों तक जमकर कोसने वाले नीतीश कुमार भाजपा के सहयोग से बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे लेकिन मोदी के पीएम उम्मीदवार चुने जाने के बाद नीतीष कुमार (जदयू) एनडीए से अलग हो गए। फिलहाल जदयू राजद की शरण में है लेकिन यह नौटंकी कब तक चलेगा, देखने वाली बात होगी।

बिहार में जहां लालू यादव को कुशासन का प्रतीक माना जाता था तो वहीं नीतीश कुमार को सुशासन का प्रतीक, ऐसे में इस विलय ने बिहार की जनता को सोचने पर जरूर मजबूर कर दिया है कि आगामी विधान सभा चुनाव में किसे वोट दिया जाए। जब सुशासन और कुशासन एक साथ हो जाए तो राज्य का विकास क्या होगा, यह अब भगवान के भरोसे ही है क्योंकि सुशासन के प्रतीक नितीश कुमार अब उनके साथ हैं जो परिवारवाद, भ्रष्टाचार, आदि के लिए जाने जाते हैं। बिहार का आखिर अब जो हो लेकिन दूसरी ओर यूपी में सत्तासीन सपा के प्रमुख और राजद के प्रमुख लालू प्रसाद यादव के बीच न केवल राजनीतिक बल्कि पारिवारिक रिश्ते भी मजबूत हुए हैं।

वहीं महामोर्चा का प्रमुख दल सपा के कई नेता इस विलय से चिंतित है तो कुछ ऐसा ही हाल लालू यादव व नीतीश कुमार के दल का है। इसका गुब्बार समय दर समय देखने को मिल सकता है। लेकिन इस विलय का निचोड़ यह भी निकाला जा सकता है कि 2013 में बिहार में विधान सभा चुनाव तो 2017 में यूपी में होने जा रहे विधान सभा चुनाव में अपनी सरकार को बनाए रखने व बचाने के लिए यह सब किया जा रहा है। जहां यूपी में मुलायम सिंह की सपा तो बिहार में नीतीश की पार्टी जदयू व लालू प्रसाद यादव की राजद को भाजपा से कड़ी चुनौती मिल रही है। भाजपा ‘हिन्दुत्व’ के अपने बुनियादी विचारों पर कायम रहते हुए उसने नए ढ़ंग की सोशल-इंजीनियरिंग के जरिए दलितों-पिछड़ों में भी अपनी जगह बनाने में सफल हो रही है। मोदी लहर का आलम यह है कि अब तक हरियाणा और महाराष्ट्र सहित कुल दस राज्यों में भाजपा व उसके सहयोगी की सरकार बन चुकी है। इस परिस्थिति को सभी दल बखूबी समझ रहे हैं। सभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बढ़ती प्रसिद्धि से बेहद ही चिंतित  हैं। इसलिए कभी समाजवाद के नाम पर बनी पार्टियां एक-दूसरे के करीब आ रही है। ज्ञात रहे कि समाजवाद के नायक जय प्रकाष नारायण के अनुयायी लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव ये सभी तमाम नेता रहे हैं लेकिन सत्ता के लोभ ने उन्हें जेपी की विचाराधारा से बिल्कुल अलग कर दिया। सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाली ये पाटियां अब तक बिहार और यूपी में लंबे समय तक सत्ता में रहने के बावजूद समाज को मजबूत करने के बजाय नुकसान ही पहुंचाती रही। एक तरफ वे सत्ता का सुख भोगते रहे तो दूसरी ओर राज्य विकास के बजाय पिछड़ता चला गया। यूपी हो या बिहार, यहां कितना विकास हो पाया, यह सभी जानते हैं। इनके घनघोर जातिवाद और परिवारवाद पर चोट करते हुए नरेंद्र मोदी ने सभी को लोक सभा चुनाव में धूल चटा दी जिसका बुरा हालिया विधान सभा चुनाव में भी देखा गया। अब आनेवाला समय ही बताएगा कि महामोर्चा किस पार्टी में तब्दील होने जा रही है और वह पार्टी भाजपा को रोकने में किस हद तक सफल होगी? यह बहुत हद तक नरेंद्र मोदी सरकार के कामकाज की रूपरेखा भी तय करेगी कि महामोर्चा को सफलता मिले या विफलता लेकिन इतना तय है कि राजनीति ने अब एक ऐसी करवट ली है जो केवल और केवल भाजपा यानि नरेंद्र मोदी की सफलता को रोकने के लिए संघर्ष करेगी।

 

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  1. बूढ़े खपे हुए नेताओं की लालसा को जागरूक बनाये रखने का यह आखिरी प्रयास है , अभी तो घोषणा हुई है , आगे का रास्ता काफी दुर्गम है सभी अपने अपने दाल के मुखिया रहे हैं और वह खुमार अभी उतरा नहीं है , व आसानी से उतरने वाला भी नहीं है ऐसे में उनकी महत्वाकांक्षाएं अभी जगी रहेंगी और कोई न कोई बिगड़ जायेगा आखिर इतने चूहों को एक पिंजरे में कितने समय तक बंद रखा जा सकेगा सब के अपने अपने स्वार्थ हैं और उनसे वे विलग होना नहीं चाहते इसलिए कुछ समय बाद ही जूते चलने चालू हो जायेंगे ज्यादा से ज्यादा बिहार का एक चुनाव साथ रह कर लड़ लेंगे लेकिन उसके बाद तो लड़ाई तय ही है
    वैसे भी इस दाल का कोई सिद्धान्त नहीं है सिवाय सत्ता प्राप्त कर राज करने के , और इनका अराजक राज जनता देख रही है, देख चुकी है इसलिए ज्यादा संभावना न देखे तो ही अच्छा है

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