मीनाक्षी ही नहीं दिल्ली भी मरी है

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अरविंद जयतिलक

समझा जा रहा था कि देश में महिला अत्याचार विरोधी निर्भया कानून लागू होने के बाद दिन के उजाले और रात के अंधेरे में बेटियां महफूज रहेंगी। शासन-प्रशासन की सक्रियता बढ़ेगी और समाजद्रोहियों का हौसला पस्त होगा। लेकिन जिस तरह देश की राजधानी दिल्ली के आनंद पर्वत इलाके में हत्यारों ने बीच सड़क पर १९ वर्षीय एक छात्रा मीनाक्षी को चाकूओं से गोदकर नृशंतापूर्वक मार डाला वह न सिर्फ सत्ता-शासन की निष्क्रियता को उजागर करता है बल्कि इस सच्चाई को भी प्रमाणित करता है कि महिलाओं के प्रति समाज की खलनायकी सोच अभी कहीं गयी नहीं है। हत्यारों ने कायरतापूर्ण ढंग से मीनाक्षी की हत्याकर इंसान और शैतान होने का फर्क मिटा दिया है। इस घटना से फिर प्रमाणित हुआ है कि सिस्टम नींद की गोलियां लेकर सो रहा है और हत्यारे आजाद हैं। बताया जा रहा है कि हत्यारों ने पुरानी रंजिश की वजह से मीनाक्षी को मौत की नींद सुलायी। बहरहाल सच जो भी हो पर यह घटना न सिर्फ चंद शैतानों की दरिंदगी की इंतेहा भर है बल्कि सड़-गल चुके तंत्र और समाज की संवेदनहीनता की चरम पराकाष्ठा भी है। इसलिए और भी कि दरिंदगी और हैवानियत के चक्रव्यूह में फंसी मीनाक्षी अपनी जान बचाने के लिए भागती रही, चिल्लाती रही, तड़पती रही, रहम की भीख मांगती रही लेकिन दरिंदों ने उसे मौत की नींद सुलाकर ही माना। शर्मनाक यह भी कि घटना के दौरान सैकड़ों राहगीर सड़क से गुजरते रहे लेकिन किसी ने भी मीनाक्षी को बचाने की हिम्मत नहीं दिखायी। यह प्रवृत्ति समाज की घोर संवेदनहीनता और इंसानी मूल्यों के क्षरणहीनता को ही रेखांकित करता है। सवाल यहां जनसमूह द्वारा अन्याय के प्रतिकार को लेकर नहीं है बल्कि सवाल इंसान होने पर भी उठ खड़ा हुआ है। दो राय नहीं कि सड़क से गुजर रहे लोग हत्यारों के विरुद्ध तनकर खड़े हो  गए होते तो मीनाक्षी की जान बच सकती थी।

minakshiलेकिन ऐसे किसी साहस का परिचय नहीं दिया गया। आश्यर्च यह कि जो लोग तमाशबीन रहे वहीं अब मीनाक्षी की हत्या पर गमजदा हो रहे हैं। इस तरह का दोहरा आचरण कायरता की ही श्रेणी में आता है। विचित्र यह कि जिनके पास आमजन को सुरक्षा और अपराधियों को दण्डित करने का संवैधानिक अधिकार है वे जुगाली कर रहे हैं। दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार और केंद्र की मोदी सरकार दोनों ही अपने बचाव में कुतर्क गढ़ रहे हैं। आम आदमी पार्टी हवाला दे रही है कि चूंकि दिल्ली पुलिस गृहमंत्रालय के अधीन काम करती है लिहाजा दिल्ली में कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उसी की है। तथ्यात्मक रुप से यह दलील सत्य है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर दिल्ली सरकार की कोई जिम्मेदारी ही नहीं। बेहतर होगा कि दिल्ली और केंद्र की सरकार दोनों ही दिल्ली की कानून-व्यवस्था को लेकर संवेदनशीलता का परिचय दें। दिल्ली देश की राजधानी है और यहां इस तरह की आपराधिक घटनाएं वैश्विक स्तर पर भारत की छवि खराब करती हैं। यह समझना होगा कि निरर्थक कुतर्कों से मीनाक्षी की जिंदगी वापस लौटने वाली नहीं है। अब उपाय यह होना चाहिए कि मीनाक्षी को किस तरह न्याय मिले और इस तरह की दर्दनाक घटनाएं दुबारा न हों। लेकिन जिस तरह राजनीतिक दल इस घटना पर सियासी पेशबंदी कर रहे हैं उससे कहना मुश्किल है कि दिल्ली की सड़कों पर इस तरह की दरिंदगी नहीं होगी? सच तो यह है कि इस घटना ने विदीर्ण राजव्यवस्था और समाज की डरपोक मानसिकता को उजागर कर दिया है। सत्ता और समाज दोनों की तथाकथित संवेदना को चिथड़ा-चिथड़ा कर दिया है। सत्ता शहंशाह अब मीनाक्षी की मौत पर अफसोस जता रहे हैं। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है ? फर्क तो तब पड़ेगा न जब समाज के भेडि़यों के मन में शासन-प्रशासन का खौफ होगा। जब वे किसी मीनाक्षी को शिकार बनाने से पहले दस बार सोचेगें। फर्क तो तब पड़ेगा न जब राजसत्ता के शहंशाह झूठ-प्रवंचना के खोल से बाहर निकल दिल्ली की जनता की सलामती की गारंटी देंगे। फर्क तो तब पड़ेगा न जब अदालतें ऐसे हत्यारों को शीध्र ही शूली पर लटकाएंगी। लेकिन ऐसा हो पाएगा कहना मुश्किल है। यह कहना भी मुश्किल है कि सत्ता और मुरछित समाज अपनी जिम्मेदारियों को समझेगा। बहरहाल इस घटना ने सोचने पर विवश कर दिया है कि हम सभ्य समाज के संवेदनशील जीव हैं या उस अंधकार युग के राछस जहां इंसानी रिश्ता सिर्फ शिकार और शिकारी का होता है। यह पुरुषवादी समाज का दोगलापन ही है कि एक ओर वह लिंगभेद के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें करता है, आंदोलन चलाता है, आदर्श बघारता है, यहां तक कि आधी आबादी के अधिकारों की लड़ाई का ढोंग रचता है लेकिन अपने नजरों के सामने होते अपराध को रोकने के बजाए मौन साध लेता है। आखिर यह कैसा राज्य-समाज है जहां दरिंदों के आगे कानून-व्यवस्था पंगु है। यह सभ्य समाज की कैसी दृष्टिबोध है जो ऐसे लोगों को अपना जनप्रतिनिधि चुनती है जिनके पास राजकाज को लेकर समझ व संवेदना तक नहीं? समझना कठिन हो गया है कि आखिर हमारे संगठित, उदार और संवेदना युक्त भारतीय समाज को क्या हो गया है जो अपनी उदारता व संवेदनशीलता का परित्यागकर निर्ममता और संवेदनहीनता का पर्याय बनता जा रहा है। भारतीय समाज कभी अपनी सहिष्णुता, सहृदयता और दयालुता के लिए जगत प्रसिद्ध था वह आज अपनी नृशंसता और हृदयहीनता से मानवीय मूल्यों का दहन कर रहा है। इस घटिया और बेशर्म लोकतांत्रिक व्यवस्था से तो वह कम वैज्ञानिक व कम आधुनिक प्राचीन समाज ही बेहतर था जहां इंसानी रिश्तों की कद्र थी। राज्य का उत्तरदायित्व होता है कि वह समाज को सुरक्षा और सहुलियत दे। बेहतरी के लिए काम करे। लेकिन आश्चर्य कि जिनके कंधों पर सभ्य समाज के निर्माण की जिम्मेदारी है वे खुद कठघरे में हैं। दिल्ली  की घटना महज कुछ दरिंदों की घिनौनी कारस्तानी व नीचता की पराकाष्ठा भर नहीं है बल्कि यह हमारे समूचे सामाजिक-राजनीतिक तंत्र की विफलता की शर्मनाक बानगी भी है। इस घटना से साफ है कि हम सभ्य, और लोकतांत्रिक होने का चोंगा भर ओढ़ रखे हैं। सच तो यह है कि हम अभी भी आदिम समाज की फूहड़ता, जड़ता, मूल्यहीनता और लंपट चारित्रिक दुर्बलता से उबर नहीं पाए हैं। उम्मीद थी कि निर्भया कानून लागू होने के बाद कम से कम दिल्ली में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में कमी आएगी। दिल्ली का चरित्र बदलेगा। तंत्र की सक्रियता से व्यवस्था में सुधार होगा। राजसत्ता की संवेदना और जवाबदेही बढ़ेगी। लेकिन मीनाक्षी के साथ दरिंदगी ने सारे भ्रम तोड़ दिए। कहना गलत नहीं होगा कि आज अगर मीनाक्षियों, दामिनियों और गुडि़याओं की जिंदगी और आबरु दांव पर है तो इसके लिए दिल्ली सरकार और केंद्रीय सत्ता दोनों ही जिम्मेदार हैं। उच्चतम न्यायालय एक अरसे से कह रहा है कि पुलिस व्यवस्था में सुधार की जरुरत है। लेकिन आश्चर्य है कि इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो रही है। नतीजा सामने है। देश में महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में आम आदमी का आंदोलित होना, व्यवस्था पर सवाल दागना और जिम्मेदार लोगों की घेराबंदी करना उचित ही है। दिल्ली सरकार और केंद्रीय सत्ता चाहे जो भी दलील दे पर सड़क पर मीनाक्षी ही नहीं दिल्ली की भी मौत हुई है।

 

 

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  1. “बताया जा रहा है कि हत्यारों ने पुरानी रंजिश की वजह से मीनाक्षी को मौत की नींद सुलायी” अखबार की भाषा वे ही जानें. जैसे अखबारों में पढ़ा है कि कुछ समय पहले उसने छेड़खानी का विरोध किया था. इसलिए रंजिश तो होगी. लेकिन क्या जायज और क्या नाजायज यह तो अखबार छुपा गया. ऐसी ही है हमारी पत्रकारिता. बाकी आम जनता की सहायता की बात – कभी आप झमेले में पड़े नहीं हैं शायद – आज की हालातों में चाहे कानून जितने बन जाएं इनमें कोई भी नहीं पड़ेगा और सही में इसीलिए हड़कंप बढ़ता जा रहा है.

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