प्रभुनाथ शुक्ल

अबकी साल
गाँव आया सावन उदास है
पागलों सा लगता
बदहवाश है
खुद में खुद को तलाशता
और बदली फिज़ाओं से
पूछता सवाल है ?
अबकी सावन उदास है
अबकी साल
सुनी पड़ी गांव की गलियाँ
हाथों में मेहंदी की न अगड़ाईयाँ
झूमती घटाओं में
पूरवाई उदास है
गायब सखियों की अट्टास
और भौजाई की मजाक
नीरस
हरियाली से पूछता सवाल है
अबकी सावन उदास है
अबकी साल
झूले बगैर सूनी पड़ी नीम की डालियां
पेंग से आसमान
नापने को बेताब सहेलियां
घर की चन्नी से
गायब बैलों की जुगालियां
किवाड़ की ओट से
घूँघट में झांकती नवेलियों से
पूछता सवाल है
अबकी सावन उदास है
अबकी साल
नदियों के सैलाब में
न डूबते खेत-खलिहान
आंगन से गायब काजग की नाव
बागों में मयूरों के नृत्य वितान
मेंढ़कों और झिंगुरों की सुरताल से
पूछता सवाल है
अबकी सावन उदास है
अबकी साल
कजली के चौघट से गायब सखियाँ
तालब में जरई डूबोती न सहेलियां
गायब कुश्ती और कबड्डी
खेतों में चलते
बैलों के घुंघरुओं से
पूछता सवाल है
अबकी सावन उदास है
अबकी साल
डाकिये के झोले से निकली
न भौजाई की पाती
खैपरैल की छप्पर से टपकती न बारिश
बपपन की गायब
वह लुका-छुपी की मस्ती
बदलते गांव और प्रकृति के विधान से
पूछता सवाल है
अबकी सावन उदास है