अब देश में हिरासत केंद्रों पर बेकार की रार!

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लिमटी खरे

जम्मू काश्मीर में आर्टिकल 370 की समाप्ति, जम्मू एवं काश्मीर राज्यों का पुनर्गठन, अयोध्या मसले का हल के बीच नागरिकता संशोधन अधिनियम, नेशनल पापुलेशन रजिस्टर (एनपीआर), एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन) के बाद अब हिरासत केंद्र यानी डिटेंशन सेंटर्स पर बहस तेज हो गई है। एक तरह से देखा जाए तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के दूसरे कार्यकाल की पहली छमाही चर्चाओं, विवादित फैसलों के लिए जानी जाएगी। इन फैसलों से आधे लोग खुश तो आधे निराश दिख रहे हैं। संसद के अंदर मौन रहने वाली कांग्रेस और विपक्ष के तेवर अब बहुत ही तल्ख नजर आ रहे हैं। यक्ष प्रश्न यही है कि जिस मंच (प्लेटफार्म) पर विपक्ष को हमलावर होना था, वहां तो वह खामोश रहा पर वहां से बाहर निकलते ही विपक्ष ने मानों इन सभी मामलों में तलवार पजा ली है . . .!

देश में इन सारी बातों पर एक के बाद एक चर्चाओं का बाजार तेजी से गर्म हो चुका है। सोशल मीडिया पर भी इसको लेकर रार साफ नजर आ रही है। हिरासत केंद्र को लेकर अब चर्चाएं तेज हुई हैं तो बाकी सारे मामलों में शांति पसरी नजर आने लगी है। इन सभी मामलों में अब तक भ्रम की स्थिति पर से कुहासा छट नहीं सका है। देश में अन्य देशों से आने वाले उन लागों जो स्थायी रूप से देश में रह रहे हैं को दो श्रेणियों में बाटा जा सकता है, एक शरणार्थी और दूसरे घुसपैठिए। सरकार को शरणार्थी और घुसपैठियों के बीच के अंतर को जनता को विस्तार से समझाना चाहिए।

इसके पहले भी इस बारे में कई बार आवाजे उठीं पर सोशल मीडिया ने उस वक्त आमद नहीं दी थी, इसलिए इस तरह की बातों को हवा नहीं मिल पाई। हिरासत केंद्र या डिटेंशन सेंटर के बारे में लोगों को कम ही भान होगा। दरअसल, यह व्यवस्था आज की नहीं, वरन दशकों पुरानी है। वर्ष 2012 में देश की सबसे बड़ी अदालत ने भारत की सीमा के अंदर अवैध तरीके से रहते हुए लोगों के बारे में एक व्यवस्था दी थी, इसके तहत यह कहा गया था कि जिन विदेशी नागरिकों को अवैध तरीके से देश में रहते हुए पकड़ा गया है और उन्होंने अपनी सजा पूरी कर ली है इस तरह के नागरिकों को जेल से बाहर निकालकर उन्हें डिटेंशन सेंटर्स यानी हिरासत केंद्र में रखा जाना चाहिए।

इसका मतलब साफ है कि लगभग आठ साल पहले यह बात देश की सबसे बड़ी अदालत के संज्ञान में थी। इसके अलावा इस मामले में केंद्र सरकार के द्वारा लगभग दो दशक पहले भी आदेश जारी किए गए थे। केंद्रीय गृह मंत्रालय के द्वज्ञरा जुलाई 1998 में एक परिपत्र जारी किया गया था, जिसमें कमोबेश इसी तरह की बात कही गई थी। इसके बाद लगभग दस साल तक इस मसले में किसी तरह की हलचल नहीं हुई, फिर 2009 में 23 नवंबर, 2012 में 07 मार्च, 2014 में 29 अप्रैल एवं 10 सितंबर तथा 2018 में 07 सितंबर को एक बार फिर इसी आदेश को दोहराया गया था।

इसके पहले डिटेंशन सेंटर को लेकर ज्यादा शोर शराबा इसलिए भी नहीं हो पाया था, क्योंकि यह आम भारतीय से जुड़ा मसला नहीं था। इसके अलावा हिरासत केदं्रों की व्यवस्था को नागरिकता के साथ जोड़कर सवाल नहीं उठाए जा रहे थे। सोशल मीडिया पर इस तरह के कमोबेश हर मसले में जिस तरह से सवाल जवाब चल रहे हैं, वह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता है। इस तरह सोशल मीडिया पर जारी विषवमन से बहुत अच्छी स्थितियां निर्मित तो नहीं ही हो रही हैं।

दरअसल, हिरासत केंद्र की अवधारणा के लिए हमें विदेशी नागरिक अधिनियम (फारेनर्स एक्ट) 1946 एवं पासपोर्ट (भारत में प्रवेश के कानून) अधिनियम का अध्ययन करना होगा। फारेनर्स एक्ट 1946 की धारा 0 (2) (स) में कहा गया है कि भारत सरकार को यह अख्तियार है कि उसके द्वारा किसी भी विदेशी नागरिक को किसी विशेष स्थान पर आने जाने से वंचित रखा जा सकता है। इसी तरह पासपोर्ट अधिनियम 1920 के अनुसार भारत सरकार के द्वारा इस तरह के व्यक्ति जो कि बिना किसी वैध दस्तावेज, पासपोर्ट आदि के भारत में प्रवेश करता है उसे भारत से निष्काशित कर सकती है। राज्य सरकारों को भी संविधान के अनुच्छेद 258 (1) में यह अधिकार दिए गए हैं।

देश भर में अवैध रूप से रह रहे विदेशी नागरिकों पर मुकदमे चलाए जाने के बाद उन्हें सजा दी जाती रही है। सजा पूरी होने के बाद एक बड़ी समस्या यह थी कि उन नागरिकों को रखा कहां जाए! इसलिए अधिकांश मामलों में सजा पूरी करने के बाद भी इस तरह के नागरिकों को जेल में ही निरूद्ध रखा जाता रहा है, क्योंकि इन्हें खुला छोड़ा नहीं जा सकता है। वर्ष 2012 में असम में राज्य सराकर के द्वारा सिलचर, कोकराझार एवं गोलपाड़ा की जेल के अंदर ही हिरासत केंद्रों का निर्माण कराया गया था। इसके बाद जोरहाट, तेजपुर एवं डिब्रूगढ़ की जेलों में भी डिटेंशन सेंटर्स बनाए गए थे।

इसके अलावा दिल्ली के लामपुर सेवा सदन व शहजाादाबाग में महिलाओं के लिए अलग सेवा सदन बनाया गया। राजिस्थान की अलवर जेल, अमृतसर की केंदीय जेल के अतिरिक्त तमिलनाडू, गुजरात और पश्चिम बंगाल में भी डिटेंशन सेंटर्स हैं। इसके अलावा असम के गोवालपारा में देश का सबसे बड़ा डिटेंशन सेंटर 46 करोड़ रूपए की लागत से तैयार हो रहा है जो संभवतः इस साल मार्च तक बनकर तैयार हो जाए। यहां तीन हजार लोगों के रहने के लिए चार मंजिला वाली 15 इमारतें तैयार की जा रही हैं, इनमें से दो इमारतों में महिलाएं एवं शेष 13 में पुरूषों को रखा जाएगा। एक आंकलन के अनुसार दुनिया के चौधरी अमेरिका के बाद यह दुनिया का सबसे बड़ा दूसरा डिटेंशन सेंटर होगा।

वैसे देखा जाए तो हर देश को इस बात का पूरा अख्तियार है कि उसकी सरहद के अंदर बिना किसी इजाजत के आने वाले विदेशी नागरिकों को अपने देश में न रहने दे। अगर शरणार्थी के रूप में कोई आता है तो उसे रहने की इजाजत देना या न देना सरकार के हाथ में है, पर अगर कोई नागरिक बिना किसी अनुमति, जानकारी के सीमा पार कर देश में घुसता है तो वह घुसपैठिया की श्रेणी में आएगा, और इस तरह के नागरिक के खिलाफ सरकार को कार्यवाही करना ही चाहिए।

जो देश के नागरिक हैं, उन्हें इस तरह की कार्यवाही से बिल्कुल परेशान होने की जरूरत नहीं है। उनकी नागरिकता पर सरकार कभी भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकती है। रही बात अन्य विषयों जिन पर विवाद खड़ा हो रहा है, की तो इन सारे विषयों पर सालों से काम चल रहा है, ये सब कुछ आज अचानक ही पैदा नहीं किए गए हैं। हो सकता है कि केंद्र सरकार के द्वारा सालों से लंबित इस तरह के मसलों को एक के बाद एक हल करना आरंभ किया गया हो, जिससे बवाल मचने लगा हो। केंद्र सरकार को चाहिए कि इस तरह के मसले जिन पर विवाद उठ रहे हैं, इसके लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई जाकर मीडिया की उपस्थिति में बैठक कराई जाए एवं इसका सीधा प्रसारण भी कराया जाए। इसके अलावा देश भर के सूबों के निजामों (मुख्यमंत्रियों) की बैठक भी बुलाई जाकर उनका पक्ष भी सुना जाए और उन्हें भी वस्तु स्थिति से आवगत कराया जाए, ताकि सोशल मीडिया पर चल रहे वाद विवाद पर विराम लग सके। यह सही है कि किसी भी बात के पक्ष या विपक्ष में माहौल तैयार करने में सोशल मीडिया की महती भूमिका होती है। सोशल मीडिया पर अगर इस तरह की व्यर्थ की बहसों में युवा अपनी उर्जा जाया करते रहेंगे तो हम कब उनकी उर्जा को सकारात्मक दिशा में ले जाकर उसका उपयोग देश की उन्नति के मार्ग प्रशस्त करने में कर सकेंगे! इसलिए यह जरूरी है कि जल्द से जल्द केंद्र सरकार के द्वारा इस तरह के संवेदनीशल मामले में ठोस कदम उठाए जाएं!

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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