राजनीति

नक्सलवाद पर अपराधबोध क्यों नहीं?

-सतीश सिंह

नक्सलवाद मुद्दे पर गर्माहट कब तक बनी रहेगी कोई नहीं जानता? 21 अगस्त को बिहार पुलिस ने कोलकत्ता पुलिस की मदद से मध्य कोलकत्ता के एक होटल से नक्सलवादी नेता मुसाफिर साहनी को गिरफ्तार किया। उसके खिलाफ हत्या में शामिल होने के अलावा 15 अन्य मामले चल रहे हैं। आजकल रोज दिन नक्सलवादी किसी न किसी वजह से चर्चा में रहते हैं। प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी ने भी 15 अगस्त को दिए भाषण में नक्सलवाद को लेकर अपनी चिंता जाहिर की है।

सरकार का मानना है कि विकास नहीं होने की वजह से ही नक्सलवाद पनप रहा है। अपनी इस विचारधारा के तहत केंद्र सरकार ने हाल ही में नक्सलवादी जिलों के विकास के लिए तेरह हजार करोड़ रुपए की समग्र कार्रवाई योजना तैयार की है। इसके बरक्स में कुछ जानकारों का मानना है कि इस दवा से मर्ज ठीक होने की बजाए नासूर बन जाएगा, क्योंकि नक्सली इलाकों में नक्सली विकास होने नहीं देंगे और विकास राषि का इस्तेमाल सरकार के खिलाफ करेंगे।

यहाँ इस प्रश्‍न का उठना स्वाभाविक है कि हम नक्सली किसे मान रहे हैं, आदिवासियों को या फिर गैर आदिवासियों को या फिर दोनों को? विकास से क्या नक्सली सचमुच डरते हैं या फिर यह संकल्पना आधारहीन है? आज नक्सल समस्या के कारण और निदान के संबंध में लोगों की परस्पर विरोधी विचारधाराएं चर्चा में हैं। कोई यह नहीं बता पा रहा है कि नक्सली आखिर चाहते क्या हैं? लिहाजा इन तथ्यों की सघन पड़ताल करने की जरुरत है।

मोटे तौर पर आज भी लोग नक्सली आदिवासियों को मानते हैं। इस तरह की विचारधारा रखने वालों की बात सोलह आना तो नहीं, पर तेरह-चौदह आना जरुर सच है। नक्सल प्रभावित राज्यों के कुछ जिलों में, वह भी बहुत कम संख्या में निचले स्तर पर गैर आदिवासी नक्सली हैं। इनकी संख्या बमुष्किल 10 प्रतिशत है। हाँ, नक्सलियों के नेता जरुर गैर आदिवासी हैं। इनके अधिकांश नेता बिहार, पष्चिम बंगाल और आंध्रप्रदेश से आते हैं।

यह कहना कि नक्सली विकास नहीं चाहते हैं, समीचीन नहीं होगा। अगर किसी का विकास से पेट भरे, रहने के लिए छत मिले, समय पर दवा मिले, शिक्षा मिले, उनकी मान्यताओं को संरक्षण मिले तो ऐसे विकास से किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? दरअसल नक्सलियों को आपत्ति है छद्म विकास से। उनका संघर्ष जारी है अपनी जमीन, विश्‍वास, मान्यता व रीति-रिवाज को बचाने के लिए।

हाल ही में वेदांता समहू को (लांजीगढ़ में अपनी एल्युमीनियम रिफाइनरी के लिए नियामगिरी पहाड़ी से बाक्साइट प्राप्त करने की योजना के मामले में) सक्सेना समिति ने करारा झटका दिया है। अपनी रिर्पोट में समिति ने स्पष्ट रुप से कहा है कि वेदांता समहू ने राज्य के अधिकारियों से मिलकर वन संरक्षण कानून, पर्यावरण संरक्षण कानून, पेसा एक्ट इत्यादि का उल्लघंन किया है। समिति का यह भी मानना है कि समूह ने एल्युमीनियम रिफाइनरी की छमता में छह गुना का विस्तार करके नियमों की अनदेखी की है।

हालांकि उड़ीसा प्रदूषण बोर्ड ने कई बार कंपनी को काम रोकने की नोटिस दी थी। बावजूद इसके उसके कान में जूं तक नहीं रेंगा। समिति ने अपनी पड़ताल में यह भी पाया है कि वेदांता समहू ने कम से कम 26.123 हेक्टेयर गाँव की वन भूमि को अपनी रिफाइनरी के लिए इस्तेमाल कर आदिवासियों और दलितों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया। सबसे बड़ी बात रिर्पोट में यह कही गई है कि बाक्साइट के खनन से सात वर्ग किलोमीटर से अधिक की जमीन नष्ट हो जाएगी, जिसे कौंध आदिवासी पवित्र मानकर उसकी पूजा करते हैं।

वेदांता समहू की लांजीगढ़ परियोजना की तरह ही उड़ीसा के पारादीप के समीप प्रस्तावित मेगा स्टील प्लांट के लिए पहचान की गई जमीन पर अगर पास्को परियोजना के तहत स्टील प्लांट का निर्माण होता है तो पर्यावरण, वन और आदिवासियों को भारी क्षति होने की आशंका है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि निजी निवेश का उद्देश्‍य सिर्फ लाभ अर्जित करना होता है। समाजवाद से उनका कोई सरोकार नहीं है। ऐसे में निजी कंपनियों को जंगलों में निवेश की इजाजत देना आदिवासियों की क्रब खोदने के समान है। वेदांता तथा पास्को परियोजना के अंतर्गत क्या हो रहा है, इससे हम अच्छी तरह से जानते हैं? आदिवासियों के लिए आज भी जंगल उनका घर है। पहाड़ों की वे पूजा करते हैं। जंगल के हर चीज से उनका गहरा रिश्‍ता है। नदी-नाले, पेड़-पौधों तथा पहाड़ों में उनकी जिंदगी बसी हुई है। मसलन, महुआ कितना महत्वपूर्ण आदिवासियों के जीवन के लिए है, इसे गैर आदिवासी कभी नहीं समझ सकेंगे। महुआ से बनाया हुआ शराब आदिवासियों की परम्परा का एक अभिन्न हिस्सा है। बच्चा जब जन्म लेता है तब उसे महुआ से बनाये हुए शराब की कुछ बुंद पिलाई जाती है और जब वह मरता है तब भी उसके मुहँ में महुआ से बनाये हुए शराब की कुछ बुंद डाली जाती है। इसके ठीक विपरीत नक्सल प्रभावित जिलों में सरकार ने महुआ से बने शराब पर या तो पाबंदी लगा दी है या उसे नियंत्रित कर दिया है।

कभी छोटानागपुर (झारखंड) में बिरसा मुंडा नामक एक जुझारु आदिवासी युवक ने अपने संप्रदाय के हक की लड़ाई के लिए ब्रितानी हुकूमत और ठेकेदारों के खिलाफ ‘उल्गुलान’ नामक आंदोलन चलाया था। आजादी के पहले आदिवासियों ने ब्रिटिश शासन के अत्याचार और शोषण के खिलाफ अनेकानेक आंदोलन या विद्रोह किया था। उनमें से प्रमुख थे-वेस्टर्न घाट में 1818 से 1848 तक चला भील आंदोलन, 1914-1915 तक छोटानागपुर में चतरा भगत के द्वारा चलाया गया उरांव विद्रोह, छोटानागपुर में ही 1831-1832 तक बुधिया भगत की अगुआई में चला कोल आंदोलन और 1921-22 तक आंध्रप्रदेश के नल्लामलाई में चला हनमन्तु की अगुआई में चैंचू आंदोलन। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान आदिवासियों का अत्याचार और शोषण के खिलाफ आंदोलन करने का एक लंबा इतिहास रहा है।

क्या अब आदिवासियों में आजादी के पहले वाला जुझारुपन नहीं रहा। नक्सलियों के बीच कोई भी बड़ा आदिवासी नेता आज नहीं होने के कारण ऐसा सोचना कुछ हद तक सही भी है। अलग राज्य के रुप में झारखंड की मांग में झारखंड मुक्ति मोर्चा सबसे आगे थी, पर आज यह पार्टी अपने मांगे हुए राज्य में कमजोर पड़ चुकी है। झारखंड में आदिवासी मुख्यमंत्री जरुर बना है, किंतु रिमोट हमेशा गैर आदिवासी नेता के हाथ में रहा। छत्तीसगढ़ में भी गैर आदिवासी नेता राज्य को चला रहे हैं। इन दोनों राज्यों में आदिवासियों का कितना भला हुआ है, यह जगजाहिर है?

अफसोस की बात है कि जंगलों में नेता नहीं पैदा नहीं हो पा रहे हैं और इस कमी का फायदा गैर आदिवासी नक्सली नेता उठा रहे हैं। आज आदिवासियों की गरीबी, उनकी विविध प्रकार की समस्याओं और उनकी भावनाओं को नगदी में तब्दील ऐसे नेता ही कर रहे हैं। यही नेता चाहते हैं कि विकास नहीं हो ताकि उनकी समानांतर सरकार नक्सल प्रभावित राज्यों में चलती रहे। एक आम आदिवासी का इस नक्सल आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है।

ज्ञातव्य है कि कभी-कभी दूसरी समस्या भी नक्सल समस्या को बदतर करने का काम करती है। जैसे उड़ीसा के खैरलांजी में हुए विवाद के मूल में जाति था। कंधमाल में भी हुआ विवाद संप्रदाय विशेष के बीच का था। बावजूद इसके इन दोनों विवादों को नक्सलवाद से जोड़कर देखा गया।

आज महँगाई अपने चरम पर है। खाने-पीने की चीजें धीरे-धीरे आम आदमी के हाथों से फिसलती जा रही है। मुद्रास्फीति से रुपए का अवमूल्यन हो रहा है। लोग अपनी जरुरत की वस्तुएँ नहीं खरीद पा रहे हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी है। मनरेगा में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है, जिसके कारण लोगों को रोजगार नहीं मिल पा रहा है। अगर किसी को मजदूरी का काम मिलता भी है तो काम करने के बाद उन्हें उनकी मजदूरी नहीं दी जाती है। इस तरह की प्रतिकूल परिस्थिति निष्चित रुप से नक्सलवाद के लिए बेहद ही मुफीद है।

प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह और जानकारों का मानना है कि विकास और सेना की सहायता से नक्सलवाद का खात्मा किया जा सकता है। मेरा भी ऐसा मानना है, लेकिन मेरी इस मामले में सोच थोड़ी सी अलग है। सेना का उपयोग नक्सलियों को काबू करने के लिए नहीं किया जाए, वरन् उसका उपयोग नक्सलियों के पुर्नवास के लिए होना चाहिए। अभी हाल ही में भारतीय सेना ने लेह वासियों के पुर्नवास में अपनी अद्भूत भूमिका निभाई है।

आदिवासियों के बीच जागरुकता लाने की जरुरत आज सबसे अहम् है, ताकि वे खुद से अपना भला-बुरा सोच सकें और नक्सल नेताओं के शोषण से बच सकें। ममता बनर्जी का नक्सलियों से संबंध अब स्पष्ट है। क्या ममता बनर्जी आदिवासियों का भला करना चाहती हैं? इसका फैसला आदिवासियों को खुद करना चाहिए।

सच कहा जाए तो नक्सल प्रभावित राज्यों में सुशासन का घोर अभाव है। अस्तु आर्थिक और सामाजिक विकास का नक्सल प्रभावित राज्यों में होना अति आवश्‍यक है।

लब्बो-लुबाव के रुप में कह सकते हैं कि इस मुद्दे पर सरकार के साथ-साथ आम भारतीयों को भी संवेदशील होना होगा। विकास सभी को अच्छा लगता है, पर विकास सिंगुर और टप्पल की तरह नहीं होना चाहिए। संवेदनहीनता एवं इस तरह के नकारात्मक विकास की ही परिणति है नक्सलवाद। आश्‍चर्य है नक्सलवाद के नासूर बन जाने के बाद भी हम अपराधबोध की भावना से ग्रसित नहीं है। यह किसी त्रासदी से कम नहीं है। खैर, चिकना घड़ा बनने के बाद ऐसा ही होता है।