मनमोहन कुमार आर्य
संसार में दो प्रकार की सत्तायें हैं, एक चेतन व दूसरी जड़। यह समस्त सृष्टि जिसमें हमारा सौर्य मण्डल सहित असंख्य ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र व आकाश गंगायें आदि रचनायें विद्यमान हैं, वह सभी जड़ सत्ता ‘प्रकृति’ के विकार से बनी है। सृष्टिगत सभी जड़ पदार्थ त्रिगुणात्मक सत्व, रज व तम गुणों वाली मूल प्रकृति का विकार वा सृजनात्मक रूप हैं। इस ब्रह्माण्ड वा सृष्टि को उद्देश्य वा योजना के अनुरूप अस्तित्व प्रदान करने वाली एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्द स्वरूप वाली चेतन सत्ता है जिसे ईश्वर, परमेश्वर, परम पुरुष, पुरुष विशेष, भगवान आदि नामों से पुकारा जाता है। चेतन और जड़ पदार्थों में मुख्य भेद यह है कि जड़ पदार्थों को कोई ज्ञान नहीं होता और न ही उनमें संवेदना होती है जबकि चेतन पदार्थों में ज्ञान व कर्म करने का स्वभाव होता है। ईश्वर से भिन्न एक अन्य चेतन पदार्थ और है जिसे जीवात्मा कह कर पुकारते हैं। इसका स्वरुप अणु के अनुरुप सूक्ष्म, एक देशी, ससीम, अल्पज्ञ, ज्ञान व कर्म का कत्र्ता, कर्म फल में बन्धा हुआ, जन्म जन्मान्तर को प्राप्त करने वाला व एक स्वतन्त्र कर्ता है। समस्त ब्रह्माण्ड में ईश्वर एकमात्र सर्वोपरि व सर्वोत्तम सत्ता है तथा जीवात्माओं की संख्या अनन्त है। जीवात्माओं की अनन्त संख्या मनुष्य की गणना की सीमित क्षमता के कारण है परन्तु ईश्वर के ज्ञान में जीवों की संख्या गणना योग्य होने से अनन्त नहीं हैं। जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव के स्तर के कारण ही ईश्वर इसके पूर्व जन्मों का सुख-दुःख रूपी फल प्रदान करने के लिए इसे भिन्न भिन्न योनियों में जन्म देता है। इसी श्रृंखला में हमारा जन्म वर्तमान मनुष्य योनि में हुआ। भविष्य में संसार में विद्यमान सभी प्राणियों की मृत्यु होगी जिसके बाद उनके कर्म वा प्रारब्ध के अनुसार ईश्वर द्वारा उनका मनुष्य व इतर योनियों में जन्म होगा। इसी को जन्म-मरण, जन्म-पुनर्जन्म व कर्म-फल-बन्धन-व्यवस्था भी कहते हैं।
मनुष्य इस जन्म में 10 मास अपनी माता के गर्भ में रहकर जन्म लेता है। इस जन्म से पूर्व मृत्यु व जन्म होने की बीच की अवधि में समय का जो अन्तराल है वह भी पुरानी स्मृतियों की विस्मृति का एक कारण होता है। समय के साथ स्मृतियों को भूलने की जीवात्मा की प्रवृत्ति है। पिछले जन्म में कौन मनुष्य व कौन पशु-पक्षी आदि इतर योनियों में था, इसका इस मनुष्य जन्म में पूर्णतया निश्चय नहीं हो पाता। पूर्व जन्म के शरीर व उसके सभी अवयवों वा उपकरणों जिसमें मन-मस्तिष्क, सभी ज्ञान व कर्म इन्द्रियां होती हैं, नष्ट हो जाने के कारण पूर्व जन्म की स्मृतियां इस जन्म में नहीं रहती हैं। इस जन्म में भी हम देखते हैं कि समय व्यतीत होने के साथ हम वर्तमान की बातें भी भूलते रहते हैं। संसार में यह नियम है कि अभाव से भाव नहीं होता और न ही भाव का अभाव हो सकता है। इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जो सत्ता है वह अभाव को प्राप्त नहीं होगी और जो निर्मित व रचित पदार्थ हम देखते हैं वह अवश्य किसी न किसी पदार्थ से बने हैं। यह पदार्थों की अविनाशिता का सिद्धान्त है। इस आधार पर आत्मा व ईश्वर के होने से उनका कभी नाश व अभाव नहीं हो सकता। इससे वह अनादि व नित्य सिद्ध होते हैं। अतः हमारी आत्मा हमारे जन्म से पूर्व अवश्य विद्यमान रही है। यदि न होती तो इस शरीर में कहां से आती? आत्मा का अस्तित्व इस बात से भी सिद्ध है कि शरीर का कोई एक व अधिक अंग कट जाये तो भी मनुष्य जीवित रहता है। परन्तु शरीर से आत्मा के निकल जाने पर पूरा शरीर न केवल निष्क्रिय हो जाता है अपितु इसमें विनाश होना आरम्भ हो जाता है। जीवित शरीर में कांटा चुभने पर भी मनुष्य रोता व चिल्लाता है परन्तु मृतक शरीर को अग्नि पर रखने व जला देने पर भी इसमें जीवित अवस्था जैसा एक भी गुण व प्रतिक्रिया नहीं होती। अतः निश्चित होता है कि मृत्यु होने पर जीव शरीर से निकल कर वायु वा आकाश में चला जाता है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मनुष्य को सुख व दुःख शरीर के निमित्त से ही होते हैं। शरीर न रहने पर उसे किसी सुख व दुःख होने की सम्भावना नहीं रहती अर्थात् मृत्यु हो जाने पर शरीर विहिन जीवात्मा को किसी प्रकार का सुख वा दुःख नहीं होता। इन सब बातों को दृष्टिगत रखते हुए यह निश्चित होता है कि हमारा जन्म से पूर्व भी अस्तित्व रहा है और हम अवश्य ही मनुष्य व किसी अन्य योनि में रहें हैं। वहां पूर्वजन्म में मृत्यु होने पर ही हमारा इस वर्तमान मनुष्य योनि में जन्म हुआ है। अपने पूर्वजन्म व उससे भी पूर्व के अनेक जन्मों में से किसी जन्म की किसी घटना व स्थितियों का हमें इस जन्म व जीवन में ज्ञान नहीं होता। अपने पूर्वजन्मों को जानने का हमारे पास कोई साधन व उपाय नहीं है। हां, योगी योग साधना कर समाधि अवस्था को प्राप्त कर, यदि जानना चाहें तो, ईश्वर की सहायता से अपने पूर्व जन्मों व उससे जुड़े किसी प्रश्न विशेष का उत्तर ईश्वरीय नियम व व्यवस्था के अनुसार जान सकते हैं, ऐसा अनुमान होता है। इमारे इस अनुमान में गीता में श्री कृष्ण को कहे गये वह वाक्य भी हैं जिसमें वह कहते हैं कि मैं अपने पूर्व जन्मों को जानता है परन्तु तू नहीं जान जानता। इसका कारण श्रीकृष्ण जी का योगी होना ही मुख्य है और अर्जुन का उनके स्तर का योगी न होना है। अतः मनुष्य अपने पूर्व व उससे भी पहले के जन्मों को जानने में असमर्थ है, यही स्वीकार करना पड़ता है। यहां लगता है कि भले ही हम अपने पूर्व जन्मों के बारे में न जान पायें परन्तु हमें इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार तो करना ही चाहिये। विचार करने पर ज्ञात होता है कि इस जन्म से पूर्व मेरे व हमारे अनेक यानियों में जन्म हो चुके हैं और मेरा वर्तमान जन्म मेरे पूर्व जन्मों के कर्मों का परिणाम है। इससे लाभ यह होगा कि हमें कर्म फल व्यवस्था का स्वरूप ज्ञात हो जायेगा जिससे हम वर्तमान जीवन व भविष्य के परजन्मों में होने वाली हानियों से बच सकता है। यही अपने वर्तमान, पूर्व व परजन्मों पर विचार करने और उससे शिक्षा ग्रहण करने लाभ है।
मनुष्य पूर्व जन्म व कर्म-फल व्यवस्था से अनभिज्ञ इस जन्म में भौतिक सुखों की प्राप्ति में ही लगा रहता है और अनेकों ऐसे कार्य करता है जिसका परिणाम वर्तमान जीवन तथा पर जन्मों में निम्न योनियों आदि में जन्म के कारण दुःख आदि के रूप में उसे प्राप्त होगा। ऐसा इस लिए होता है कि उसे यह ज्ञान नहीं है कि मृत्यु के बाद भी इस जन्म के कर्मों के आधार पर ही उसका भावी जन्म व सुख-दुःख निर्धारित होंगे। यह अनभिज्ञता व अज्ञान मनुष्यों के लिए भविष्य वा परजन्म में दुःख का कारण बनते हैं। इस दुःखद स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है? इसका उत्तर यही मिलता है कि स्वयं मनुष्य ही इसके लिए उत्तरदायी हैं। ईश्वर ने अपने अनादि ज्ञान वेद द्वारा सृष्टि के आरम्भ में पूर्वजन्म, वर्तमान जन्म, परजन्म और कर्मफल व्यवस्था आदि का परिचय दे दिया था। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने वाले हमारे योगी विद्वानों ने सृष्टि की आदि से ही वेदों का प्रचार कर उस ज्ञान को सर्वत्र उपलब्ध कराया। मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है कि वह जीवन व मृत्यु से जुड़े इन प्रश्नों के समाधान के लिए सदग्रन्थों व सच्चे गुरुओं की खोज करे व उनसे इन विषयों को यथार्थ रूप में जाने। संसार में प्रचलित मत-मतान्तरों ने भी लोगों को भ्रमित कर उनकी हानि की है। ऐसा लगता है कि वह अधिकांशतः अज्ञान व स्वार्थ में निमग्न हैं। इससे परजन्म बिगड़ने से संसार के मनुष्यों को हानि हो रही है। इसका समाधान यही है कि सभी लोग सभी मत-मतान्तरों को भ्रान्तिपूर्ण मान्यताओं का त्याग कर केवल सत्य मत, विचार, ज्ञान, ईश्वर व आत्मा के स्वरूप, कर्तव्य, अकर्तव्य, धर्म व अधर्म को यथार्थ रूप में जाने। जो ऐसा करेगा और सत्य को प्राप्त कर उसका आचरण करेगा, वही लाभान्वित होगा और जो उपेक्षा करेगा वह हानि उठायेगा।
धर्म और अधर्म ही मनुष्य को सुखों व दुःखों को प्राप्त कराते हैं। धर्म सत्कर्मों व तदानुसार आचरण का नाम है और अधर्म सत्य विपरीत असत्याचार व असत्य आचरण का नाम है। संसार में धर्म व अधर्म का यही स्वरूप है। संसार में जितने भी धार्मिक संगठन हैं उनमें धर्म शायद कोई नहीं अपितु वह सब मत-पन्थ-सम्प्रदाय-मजहब आदि हैं। धर्म तो मनुष्य के करणीय कर्तव्यों का नाम है। यह कर्तव्य प्रायः सारे संसार के लोगों के लिए एक समान हैं। इनका निश्चय वेद व वेद व्याख्या के ग्रन्थों से होता है। मनुष्य वदों को पढ़ अपने विचार, बुद्धि व ज्ञान से भी निर्णय कर सकते है। अतः वेदों का सभी ग्रन्थों के साथ निष्पक्षता से तुलनात्मक अध्ययन होना आवश्यक प्रतीत होता है। हमने इय लेख में जीवात्मा की जन्म से पूर्व व पश्चात की स्थितियों पर विचार किया है और इनका आधार कर्म फल व्यवस्था का भी उल्लेख किया है। मनुष्य को जन्म व सुख सुविधायें ईश्वर ने सृष्टि को रचकर प्रदान कर रखी हैं। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम ईश्वर के कृतज्ञ हों। इसके लिए ही हमारे पूर्वज विद्वान मनीषियों ने सन्ध्या, योग, ध्यान व ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का विधान किया है। अग्निहोत्र-देवयज्ञ द्वारा भी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित पर्यावरण जिसमें वायु व जल आदि भी सम्मिलित है, शुद्धि होती है। अतः वेद विहित कर्मों को जानकर उनका निरन्तर विचार व चिन्तन करते हुए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना व उपासना करते हुए सदकर्म व कर्तव्यों को करना चाहिये। इससे निश्चय ही हमारे वर्तमान जीवन व परजन्म उन्नति को प्राप्त होंगे। जीवात्मा का मुख्य आधार ईश्वर ही है। उसे भूलना व सन्ध्या आदि कर्मों को न करना कृतघ्नता है। इसका परिणाम हमें ही भोगना होगा। आओं ! अपने जीवन को उन्नत करने के लिए ईश्वर की उपासना, सदकर्म व कर्तव्य पालन सहित ईश्वर के सच्चे ज्ञानी व उपासक ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन कर अपने जीवन को सफल बनायें।