ऑरवेलियन सिटी

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सतीश सिंह

हाल ही में हिन्दी साहित्य के दिग्गज साहित्यकारों की जन्मशती धूमधाम से पूरे देश में मनाई गई। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, गोपाल सिंह नेपाली, शमशेर बहादुर सिंह, उपेन्द्रनाथ अश्‍क को उनकी जन्मशती पर शिद्दत के साथ याद किया गया। इसी क्रम में महाकवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी उनकी 150 वीं जयंती पर हमने याद किया। तकरीबन सभी पत्र-पत्रिकाओं में इनके व्यक्त्वि व रचना-संसार पर प्रकाश डाला गया। दरअसल हमारे देश में अपने विरासत को सहेजने की परंपरा कभी नहीं रही है। आज अधिकांश विरासत या तो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं या खत्म हो चुके हैं। बावजूद इसके न तो सरकार इस मामले को लेकर चिंतित है और न ही हम। नई पीढ़ी हमसे जो सीख रही है, उसका खामियाजा भी हमें ही भुगतना पड़ेगा।

जब हमारे मन-मस्तिष्क में अपने पूर्वजों के प्रति आदर-भाव नहीं है तो किसी अंग्रेज लेखक के प्रति हमारी संवेदना कैसे हो सकती है? इस संदर्भ में एरिक आर्थर ब्लेयर उर्फ जार्ज ऑरवेल का उल्लेख करना समीचीन होगा। आज भी एरिक आर्थर ब्लेयर उर्फ जार्ज ऑरवेल साहित्य की दुनिया का एक जाना-माना नाम है। साहित्यकार होने के साथ-साथ श्री ऑरवेल एक सफल पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल (25 जून 1903 से 21 जनवरी 1950) के बावजूद श्री ऑरवेल का योगदान पत्रकारिता व साहित्य के प्रति अप्रतिम है। पत्रकार के रुप में मुख्य रुप से श्री ऑरवेल ने ट्रिब्यून, मैनचेस्टर इवनिंग न्यूज और आब्जर्वर में काम किया। उनका रचना-संसार बेहद ही व्यापक है, किन्तु उन्हें याद उनकी अमर रचना ‘एनिमल फार्म’ के लिए किया जाता है।

जिस तरह से हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु हरिशचन्द्र की रचना ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ को हर काल में प्रासंगिक माना जाता है। उसी तरह श्री ऑरवेल की रचना ‘एनिमल फार्म’ की प्रासंगिता भी सार्वकालिक है। उनके द्वारा लिखित उपन्यासों में ‘बर्मीज डेज’ (1934) ‘अ किलर्जीमेन्स डाउटर’ (1935), ‘कीप द एसपिडस्टरा फ्लॉइंग’ (1936), ‘कमिंग अप फॉर एयर’ (1939) इत्यादि का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है। उनके कुछ रिर्पोर्टाज भी चर्चित रहे हैं, मसलन, ‘डाउन एंड आउट इन पेरिस एंड लंदन’ (1933), इस रिर्पोट में पेरिस व लंदन में फैली हुई गरीबी का सजीव वर्णन है तो वहीं ‘द रोड टू विगन पियर’ (1937), में श्री ऑरवेल ने उत्तरी लंदन में रहने वाले गरीबों के रहन-सहन पर रोशनी डाली है।

बहुत कम लोग जानते हैं कि श्री ऑरवेल का भारत से गहरा संबंध रहा है। उनका जन्म 25 जून 1903 को भारत के वर्तमान बिहार राज्य के मोतिहारी जिले में हुआ था। वे रिचर्ड डब्लू ब्लेयर और इदा मॉबेल ब्लेयर की दूसरी संतान थे। उनके पिता भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी के तौर पर अफीम विभाग में कार्यरत थे। उस वक्त बिहार बंगाल प्रेसिडेंसी का हिस्सा हुआ करता था। इस लिहाज से देखा जाए तो श्री ऑरवेल के जन्म के 100 साल सन 2003 में ही पूरे हो गए थे। पर भारत में और खासकर के बिहार में न तो उनकी जन्मशती मनाई गई और न ही उन्हें कभी याद किया गया। जबकि कला-संस्कृति और साहित्य हमेशा से देश-काल की सीमा से परे रहा है। फिर भी इस तरह की नाइंसाफी श्री ऑरवेल के साथ क्यों की गई समझ से परे है।

वैसे तो मेरी रुचि अंगेजी साहित्य के प्रति कभी भी उत्कट नहीं रही। फिर भी गाहे-बगाहे अंगेजी साहित्य जरुर पढ़ लेता हूँ। सन् 1994 में भारतीय जनसंचार संस्थान में हिन्दी पत्रकारिता का छात्र रहने के दरम्यान मुझे ‘एनिमल फार्म’ पढ़ने का मौका मिला। उपन्यास की विषय-वस्तु इतनी सरस व रुचिकर थी कि एक बैठक में ही पूरे उपन्यास को पढ़ डाला। मूलतः इस उपन्यास में रुसी क्रांति के बाद सोवियत यूनियन में आए बिखराव और स्टॉलिन के उन्नयन की गाथा को बहुत ही सहज ढंग से उकेरा गया है। इस उपन्यास में व्हाइट पिग के मुहँ से कहलवाया गया यह कथन, ‘ऑल एनिमल्स आर इक्वल, बट सम एनिमल्स आर मोर इक्वल’ पूरे उपन्यास का सारांश है। व्यक्तिगत तौर पर यह कथन मुझे आज भी प्रासंगिक लगता है।

इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मैंने श्री ऑरवेल की दूसरी चर्चित रचना ‘नाइनटिन ऐटी फोर’ जो कि 1949 में लिखी गई थी को भी पढ़ा। इस उपन्यास में यह बताने की कोशिश की गई है कि यदि सरकार चाहे तो भाषा पर नियंत्रण करके आम आदमी के विचार पर नियंत्रण कर सकती है। इन दोनों उपन्यासों को पढ़ने के पश्‍चात मेरी जिज्ञासा खुद-ब-खुद जार्ज ऑरवेल प्रति बढ़ती चली गई। यह जानकर आश्‍चर्य हुआ कि श्री ऑरवेल का जन्म मेरे गृह राज्य बिहार के मोतिहारी जिले में हुआ था। मन में यह इच्छा जागी कि मोतिहारी चला जाए। पर किसी न किसी कारण से कभी भी मैं अपनी इस इच्छा को मूर्त्त रुप नहीं दे सका। लेकिन अचानक! लगभग 16 सालों के बाद जब मुझे मोतिहारी जाने का मौका मिला तो मैं अपनी दबी इच्छा को साकार करने से अपने को नहीं रोक सका।

मोतिहारी बिहार की राजधानी पटना से तकरीबन 170 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में अवस्थित है। यह एक कस्बानुमा शहर है। दिल्ली की तरह लोग यहाँ घोड़े पर सवार नहीं रहते हैं, किन्तु उर्जा के मामले में यहाँ के निवासी किसी से भी कम नहीं हैं। नीतीश सरकार के आने के बाद विकास ने यहाँ सिर्फ अंगड़ाई भर ली है। क्योंकि शहर का नियोजन अभी भी बेतरतीब है। धूल व कीचड़ शहर के रोम-रोम में बसा हुआ है। प्रशंसनीय यह है कि तरह-तरह की परेशानियों से जूझते हुए भी इस शहर के लोग अभी तक जीना नहीं भूले हैं। यहाँ का जीवन आज भी जीवंत है। कृत्रिमता का मुलम्मा नहीं चढ़ा है। लोग एक-दूसरे के सुख-दुःख में आज भी काम आते हैं। शाम के वक्त गाँधी चौक से लेकर मीना बाजार तक पूरा बाजार उर्जा और जीवंतता से भरा रहता है। विनोद दुआ भले ही पूरे देश में घूम-घूम करके विविध प्रांतों के जायके देश के सामने प्रस्तुत करते रहते हैं। पर वे अभी तक मोतिहारी के यमुना होटल के पकवानों के अद्भुत जायकों से महरुम हैं। इस होटल का सबसे मशहूर डिवाइन जायका चूड़ा (धान को कूट कर बनाया जाता है) और डिप फ्राई मीट है, जोकि सुबह और शाम को नाश्‍ते के रुप में ग्राहकों को परोसा जाता है।

शहर की हालत जैसी भी हो, किन्तु इसकी ऐतिहासिक विरासत बेमिसाल है। महात्मा गाँधी ने अपने चम्पारण सत्याग्रह की शुरुआत इसी शहर से की थी। गौरतलब है कि जार्ज ऑरवेल भी गाँधी जी के मुरीद थे। वे गाँधी जी के सिद्धांतों व विचारों के समर्थक थे। भगवान बुद्ध का विश्‍व में सबसे बड़ा स्तूप केसरिया मोतिहारी से महज 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मोतिहारी पहुँचने के बाद मेरी प्रथम प्राथमिकता जार्ज ऑरवेल की जन्मस्थली को ढूंढना था। आने के बाद मैंने स्थानीय निवासियों से इस बाबत दरयाफ्त करना आरंभ किया। परन्तु मैं अपने प्रयास में असफल रहा। स्थानीय लोगों को जॉर्ज ऑरवेल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उसके बाद मैंने अपने कुछ पत्रकार मित्रों से इस संबंध में चर्चा की, उन्होंने सलाह दी कि स्थानीय पत्रकार मेरी इस कोशिश को कामयाब बना सकते हैं।

इस क्रम में हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता आरएन सिन्हा की मदद से मुझे यह मालूम हुआ कि जार्ज ऑरवेल की जन्मस्थली गाँधी चौक से जानपुर जाने के क्रम में दिल्ली पब्लिक स्कूल के पास है। जार्ज ऑरवेल की जन्मस्थली आज जर्जर अवस्था में है। अगर वहाँ पर जार्ज ऑरवेल के नाम वाली मार्बल की स्मृति चिन्ह स्थपित नहीं होती तो शायद कोई भी यह नहीं बता पाता कि जार्ज ऑरवेल की जन्मस्थली मोतिहारी में है। जन्मस्थली के नजदीक आज भी झाड़-झंखाड़ का साम्राज्‍य कायम है। मल-मूत्र व गंदगी के कारण तेज दुर्गन्ध पूरे वातावरण में हमेशा काबिज रहता है। जिस घर में ऑरवेल ने प्रथम बार अपनी आँखें खोली थी, वह आज कुत्ते व बकरियों का आश्रय स्थल बना हुआ है। इन जानवरों के साथ-साथ सर्वहारा वर्ग के लिए भी यह आश्रय स्थल का काम करता है। कुछ लोगों के लिए यह कार्यस्थल भी है। मैं जब वहाँ पहुँचा तो कुछ लोग ऑरवेल के घर में आराम फरमा रहे थे तो कुछ लोग बाँस की सींक से टोकरी बना रहे थे। ऑरवेल के घर के विपरीत दिशा की तरफ का दीवार एक तरफ से अभी भी बचा हुआ है।

अफसोस की बात यह है कि घर के आस-पास का इलाका खुले व आवारा जानवरों के लिए चारागाह बना हुआ है। खैर, इस संदर्भ में अच्छी बात यह कि ‘एनिमल फॉर्म’ के मुख्य पात्र व्हाइट पिग को भी यहाँ अक्सर आने-जाने मौका मिलता रहता है। आरएन सिन्हा से यह भी जानकारी मिली कि कुछ साल पहले कुछ नामचीन भारतीय और विदेशी पत्रकार यहाँ आये थे। उसके बाद भी जार्ज ऑरवेल की जन्मस्थली की बेहतरी के लिए कुछ खास नहीं किया जा सका। हाँ, इतना जरुर फायदा हुआ कि मोतिहारी जार्ज ऑरवेल की जन्मस्थली है, इसके बारे में लोग जानने लगे। आरएन सिन्हा ने यह भी बताया कि प्रख्यात पत्रकार और कानूनविद डॉ. एलएम सिंघवी की अघ्यक्षता में कुछ सालों पहले एक ‘हेरिटेज फॉउन्डेशन’ का गठन किया गया था। श्री सिन्हा स्वंय भी ‘हेरिटेज फॉउन्डेशन’ द्वारा संचालित ‘जार्ज ऑरवेल कमेमरेशन कमेटी’ के सदस्य हैं।

जार्ज ऑरवेल की जन्मस्थली को सहेजने की दिशा में प्रयास बदस्तूर जारी है। पर अभी तक कोई ठोस कारवाई इस दिशा में नहीं की गई है। जबकि जार्ज ऑरवेल की जन्मस्थली को पर्यटकों खास करके विदेशी सैलानियों के आर्कषण का केन्द्रबिंदु बनाया जा सकता है। इससे मोतिहारी का विकास तो होगा ही, साथ ही साथ राज्य सरकार की आमदनी में भी इजाफा होगा। यह तभी संभव हो सकता है जब सरकार स्वंय आगे बढ़कर इस दिशा में पहल करेगी। यह तो मानना ही पड़ेगा कि आज भी हमारे देश के हर तबके के बीच ‘एनिमल फॉर्म’ के कथानक की समीचीनता बनी हुई है। देश का हर समाज ‘इक्वल और मोर इक्वल’ में बंटा हुआ है। इस ‘इक्वल और मोर इक्वल’ की संकल्पना को पंख सबसे पहले हमारे घर में लगता है। एक ही माँ-बाप की संतान ‘इक्वल और मोर इक्वल’ हो जाते हैं। हर रोज हम इस फर्क को अपनी दैनिक आवश्‍यकताओं को पूरा करने के दौरान देखते और महसूस करते हैं।

बिडम्बना तो यह है कि डॉक्टर भी मरीज देखने के दरम्यान ‘ मोर इक्वल’ को तरजीह देता है। प्रधानमंत्री जैसे ‘मोर इक्वल’ के कॉफिले की वजह से कभी-कभी मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देता है। टाटा और अंबानी जैसे ‘मोर इक्वल’ सरकार पर हमेशा हॉवी रहते हैं एवं आम आदमी के जीवन की दशा व दिशा का निर्धारण करते हैं। राडिया जैसी ‘मोर इक्वल’ अरबों-खरबों के घोटाले को अंजाम देने में ‘कारण’ की भूमिका अदा करती है और सरकार उसका बाल भी बांका नहीं कर पाती है। कुछ दिनों से अन्ना हजारे एंड कंपनी व बाबा रामदेव ‘मोर इक्वल’ बने हुए हैं और तथाकथित रुप से ‘इक्वल को मोर इक्वल’ बनाने की जुगाड़ में हैं। अब यहाँ देखने वाली बात यह है कि ‘मोर इक्वल’; ‘इक्वल’ को ‘मोर इक्वल’ बनाता है या उसे खाई में ढकेलता है।

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