पहाड़ी भाषा का मिटता अस्तित्व

ख्वाजा परवेज दिलबर

1भाषा न केवल विचारों को अभिव्यक्त करने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन है बल्कि यह किसी भी समुदाय की सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को भी दर्शाने का एक सशक्त माध्यम होता है। देश के अन्य भागों की तरह जम्मू-कश्मी र में भी एक दर्जन से अधिक भाषा बोली और समझी जाती है। इनमें पहाड़ी भाषा भी शामिल है। एक अनुमान के अनुसार ये भाषा राज्य के 22 लाख लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है। इस तबके में राज्य के सभी धर्म और संप्रदाय शामिल हैं। लेकिन इसके बावजूद ये भाषा आज अपने ही अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। न तो राज्य के शिक्षण संस्थानों में इसकी पढ़ाई का कोई इंतजाम है और न ही सरकारी स्तर पर पहाड़ी भाषा के उत्थान के लिए कोई विशेष कार्य योजना बनाई जाती है। अतीत में यह भाषा काफी समृद्ध रही है। कई प्रसिद्ध बुद्धिजीवी, शायर और कवियों ने दुनिया को प्रेम का संदेश देने के लिए इसी भाषा को माध्यम बनाया है। परंतु 1947 के बटवारे ने न सिर्फ पहाड़ी लोगों बल्कि भाषा को काफी नुकसान पहुंचाया। आजादी के बाद से ही पहाड़ी समुदाय की तरह उनकी भाषा भी बदहाली के दौर से गुजर रही है।

पहाड़ी भाषा के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि सदियों से इसने अन्य भाषाओं को भी सहज रूप से अपनाया है। यही कारण है कि इसमें संस्कृत, हिंदी, उर्दू, फारसी, तुर्की, अरबी, राजस्थानी, हरियाणवी, गुजराती, डोगरी और कश्मीरी भाषा की झलक आसानी से मिल जाती है। एक सर्वे के अनुसार पहाड़ी भाषा भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीनतम भाषाओं में एक है। जो कंधार से झेलम तक फैला हुआ था। कई तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं कि पूर्व में पहाड़ी भाषा बहुत से राजा-महाराजाओं की दरबारी भाषा हुआ करती थी। इनमें सम्राट अषोक और राजा पोरस के अलावा कई राजपूत राजाओं के दरबार में भी इसी भाषा का प्रयोग किया जाता रहा है। प्रसिद्ध इतिहासकार बेन के अनुसार पीर पंजाल के निचले क्षेत्रों से लेकर हिमाचल प्रदेश के उपरी इलाकों समेत गढ़वाल और नेपाल तक फैले क्षेत्रों को पहाड़ी माना जाता है तथा इनकी भाषा को पहाड़ी भाषा की संज्ञा दी जाती है। उन्होंने क्षेत्रानुसार पहाड़ी भाषा को तीन खंडों में विभक्त किया हैः

1. पूर्वी पहाड़ी- पहाड़ी भाषा की ये शैली नेपाल में बोली जाती है जिसे स्थानीय भाषा में ‘खशुरा’ भाषा का नाम दिया जाता है।

2. मध्य पहाड़ी- पहाड़ी जुबान की इस शैली को गढ़वाली भाषा के नाम से जाना जाता है जिसे उत्तराखंड में बोली जाती है।

3. पश्चिमी पहाड़ी- ये पहाड़ी जबान की तीसरा खंड है। एक अनुमान के अनुसार पाक अधिकृत कश्मी र में 96 प्रतिशत लोग इसी भाषा का प्रयोग करते हैं जबकि भारतीय क्षेत्र में भी इस भाषा को बोलने वालों की एक बड़ी संख्या मौजूद है। पश्चिमी पहाड़ी भाषा शैली बहुत हद तक पंजाबी भाषा से मिलती है।

डॉ. शौकत सब्जवारी के अनुसार, ”पश्माभची” श्रेणी की भाषा पश्चिमी पंजाब की भाषा है जो पाकिस्तान के रावलपिंडी, सरगुदा, मुल्तान और बहावलपूर के क्षेत्रों में बोली जाती है। ये भाषा अपने व्याकरण, उच्चारण और शब्दों के स्वरूप से पंजाबी से अलग है और इसे पहाड़ी भाषा के रूप में ही स्वीकार किया जाता है। 1950 में सरकारी तौर पर इसे पहाड़ी भाषा का नाम देकर जम्मू-कश्मीबर भाषा अधिनियम 6 के अंतर्गत रखा गया है।

जम्मू-कश्मी र सांस्कृतिक अकादमी के सचिव जफर इकबाल ने अपने एक आलेख ‘जम्मू व कश्मीसर के पहाड़ी लोग, भाषा और संस्कृति’ में लिखा है कि ऐतिहासिक प्रमाणों से साबित होता है कि सम्राट अशोक के शासन से भी कई सौ वर्ष पूर्व पहाड़ी भाषा शारदा पीठ और उसके आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है। यह क्षेत्र बुद्ध धर्म के प्रचार प्रसार का केंद्र बिंदु रहा है। सम्राट अशोक के शासनकाल में बुद्ध धर्म कश्मीपर में अपने चरम पर था। उस समय दरबारी भाषा मुख्य रूप से संस्कृत हुआ करती थी, परंतु आम जनता में प्राकृत भाषा बोली जाती थी। ऐसे में बुद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यमकता थी जिसे आमो-खास सभी समझ सकें। इन्हीं दोनों के मिश्रण ने ही पहाड़ी भाषा को फलने-फूलने का मौका प्रदान किया। जहां तक प्रश्नी इसकी लिपि का है तो पहले इसे शारदा और देवनागरी की तरह ही बाएं से दाएं लिखी जाती थी, परंतु वक्त बदलने के साथ साथ इसमें भी बदलाव आता गया और यह सिर्फ बोलने तक ही सीमित रह गई। पिछले कुछ सदी में इस भाषा को बचाने का काम फिर से शुरू किया गया और इसे संरक्षित करने के लिए फारसी लिपि की तरह दाएं से बाएं प्रयोग किया गया जो आज तक जारी है।

वर्तमान में पहाड़ी भाषा केवल बोलचाल तक सिमट कर रह गई है। समय समय पर बनने वाली राज्य की सभी सरकारों और राजनीतिक दलों ने इसकी उपेक्षा की। राज्य के स्कूलों और कॉलेजों में भी इस भाषा की पढ़ाई पर कोई विशेष इंतजाम नहीं किया गया है। यहां तक कि रेडियो से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों में भी इसे कोई तवज्जो नहीं दी जाती है। रेडियो श्रीनगर से पहाड़ी भाषा में सिर्फ आधा घंटा और दूरदर्शन से हफ्ते में सिर्फ पच्चीस मिनट का प्रोग्राम प्रसारित किया जाता है। ऐसे में इस भाषा का भविष्यट कितना उज्जवल है इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इस तथ्य से भी किसी तरह से इंकार नहीं किया जा सकता है कि पहाड़ी भाषा के साथ उपेक्षा कहीं न कहीं राज्य की 22 लाख जनता के भविष्यर और संवेदना से एक बड़ा खिलवाड़ है। शिक्षाविदों का मानना है कि बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा-दीक्षा होने से उनके मानसिक विकास में सहायक होता है जबकि पहाड़ी बच्चे लिखने और बोलने में इसी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसके बावजूद उन्हें स्कूल में इसकी पढ़ाई से महरूम रहना पड़ता है। जो पहाड़ी भाषा के अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।(चरखा फीचर्स)

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