कविता

पीड़ा का पिंजरा

 

पीड़ा के पिंजड़े की क़ैदी हूँ,

पिंजड़े को तोडकर निकलना

चाहती हूँ…

पर सारी कोशिशें नाकाम हो रही हैं।

जब भी ऐसा करने की कोशिश करती हूँ,

पीड़ा बाँध लेती है, जकड़ लेती है।

किस जुर्म की सज़ा मे क़ैद हूँ,

नहीं पता……

कितने दिन के लिये क़ैद हूँ,

ये भी नहीं पता…

कुछ महीने या साल,

आजीवन कारावास या मृत्युदण्ड,

नहीं पता!