व्यंग्य

पप्पू को अब भी समझ में नहीं आ रहा है…

-वीरेन्द्र सिंह परिहार-
Rahul Gandhi

गत 12 जून को राहुल गांधी लोक सभा में तृणमूल कांग्रेस के दो सांसदों से यह पूछते देखे गये कि सोलहवीं लोकसभा में बीजेपी को इतनी भारी जीत क्यों मिली। उन्होंने यह भी जानना चाहा कि भाजपा के उभार की वजह क्या है? साम्प्रदायिक माहौल के बावजूद उत्तर प्रदेश से एक भी मुसलमान प्रत्यासी जीत कर सांसद क्यों नही बन सका?

आश्चर्य की बात यह है कि इन सारी बातों को देश का सिर्फ बौद्धिक समुदाय ही नहीं, बल्कि जब सामान्य आदमी भी समझ रहा है तो पप्पू अर्थात् राहुल गांधी को यह बात समझ में क्यों नहीं आ रही है? जब उन्हें इतनी भी राजनीतिक समझ नहीं है तो फिर विरोधियों ने उनका नामकरण पप्पू ठीक ही कर रखा है। या यह भी हो सकता है कि राजपाट के आदी राहुल गांधी इस बातों को समझना ही नहीं चाहते हों। लेाकसभा चुनाव-प्रचार के शुरूआती दिनों में राहुल गांधी ने कहा था कि लोग इस भ्रम में न रहे कि कोई मसीहा आएगा और उन्हें सारी समस्याओं से निजात दिला देगा। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी को इस बात का अन्दाजा हो गया था कि नरेन्द्र मोदी को देशवासी मसीहा मानकर उनके पीछे लामबन्द हो सकते है। तभी तो वह ऐसी बाते कर रहे थे, इतना ही नहीं राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि समस्याओं का निदान देश की जनता को ताकतवर बनाने से निकलेगा। अब ऐसी स्थिति में बड़ी बात यह है कि देश की जनता ने तुम्हे मसीहा क्यों नहीं माना जिसके आदेश और इशारे पर सतत् दस वर्षों तक राजपाट चलाया गया और एक प्रान्त के मुख्यमंत्री को लोगों ने कैसे मसीहा मान लिया? दूसरी बड़ी बात यह कि जब देश में कांग्रेस पार्टी का राज अधिकांश समय रहा तो उसने जनता को ताकतवर क्यों नहीं बनाया? चलिए अधिकांश समय की बातें छोड़ दी जाए पर 2004 से 2014 तक तो मां-बेटे की ही सरकार थी- तो इस अवधि में आम आदमी का सशक्तिकरण क्यो नहीं किया गया? सशक्तिकरण तो दूर की बात है जन लोकपाल के मुद्दे पर वर्ष 2011 के अन्ना आन्दोलन के वक्त जब पूरा देश सड़कों में आ गया तो राहुल की सरकार और पार्टी का रवैया कुछ यों अहंकार से भरा था कि हमें तो जनता ने चुनकर भेजा है, तुम कौन हो हमें बताने वाले कि हम क्या करें? कुछ ऐसा ही संवदेनहीन रवैया दिसम्बर 2012 में हुये निर्भया प्रकरण को लेकर था। क्या राहुल गांधी और उनकी मां तथा कांग्रेस पार्टी ने यह नहीं मान लिया था कि यह देश उनकी जागीर है और वह इसके साथ जैसा चाहेंगे वैसा करेंगे। लूटेंगे, घोटाले करेंगे, ऐय्यासी करेंगे और देश के जनसामान्य को लुटता-पिटता छोड़ देंगे। यहां तक कि राबर्ट वाड्रा जैसे खास लोगों के लिये देश को चारागाह बना देगे। केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद जैसे वफादार विकलांगों तक की हिस्सा हड़प जाएंगे। विदेशों में जमा काला धन वापस लाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय भले लाख सिर पटके, पर तीन साल में एसआईटी तक नहीं बनाएंगे। चीन की दादागीरी और पाकिस्तान की गुंडागर्दी को टुकर-टुकर देखते रहेंगे। साम्प्रदायिक… हिंसा विरोधी बिल लाने का प्रयास कर हिन्दुओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनाएंगे। सोनिया गांधी मुस्लिम वोट को सेकुलर बताकर उसे न बटने की अपील मौलाना बुखारी से करेगी।

दरअसल राहुल गांधी और उनकी पार्टी की समस्या यह है कि ‘बांटो और राज करो’ नीति उसका शावश्त सिद्धान्त रहा है। लेकिन इस बार यह मामला पिट गया। इसकी बड़ी वजह यह रही कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसी संस्थाओं के प्रयासों के चलते इस देश के राष्ट्रीय समाज अर्थात् हिन्दुओं में जागरुकता बढ़ी। वह क्रमशः-क्रमशः जातिवाद के संकीर्ण दायरे से मुक्त होकर राष्ट्रीय परिदृश्य पर सोचने लगा। आम मतदाता के लिये महंगाई, भ्रष्टाचार, बेकारी, नौकरशाही और लालफीताशाही का मकड़जाल कुछ ऐसा घेरा कि वह मुक्ति के लिये छटपटाने लगा। इसी बीच नरेन्द्र मोदी के सुशासन के चलते गुजरात विकास के नए प्रतिमान गढ़ने लगा। लेकिन राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी जैसे लोगो में बडा तात्विक फर्क था। राहुल गांधी जैसे लोगो के लिये देश जहां एक ओर उनकी निजी जागीर जैसा था तो नरेन्द्र मोदी जैसे लोग देश के सेवक बनकर आए। मालिकाना हक नहीं, बल्कि देश की चैकीदारी चाही। उनकी निजी जीवन भी इस मामले में एक प्रकाश-स्तम्भ की भांति था। जिसमें किसी किस्म के भाई-भतीजा वाद एवं निजी स्वार्थों को कोई जगह नहीं थी। लोगों ने देखा कि कैसे नरेन्द्र मोदी की मां अब भी एक सामान्य महिला की तरह 8 ग 8 के कमरे में रहती है। नरेन्द्र मोदी के भाई-भतीजे सामान्य नागरिको जैसा जीवन जी रहे हैं। स्वतः नरेन्द्र मोदी ने जनसेवा और देश सेवा के चलते एकाकी जीवन जिया। प्रधानमंत्री बनने पर शपथ ग्रहण तक में अपने परिजनों को नहीं बुलाया। लोग देख रहे हैं कि कैसे परिवारवाद से मुक्त एवं भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने का वह प्रयास कर रहे हैं। अब भले राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के चलते भाजपा को वन मैन आर्मी कहते रहे हो। पर सब देख रहे हैं कि कैसे वह सबको यहां तक कि विरोधियों को भी साथ लेकर चलने का प्रयास कर रहे हैं। नौकरशाहों से दबाव में गलत काम न करने को कहकर कानून कायदे के अनुसार काम करने को कह रहे हैं, जबकि इसके पहले एक खानदान की इच्छा ही सब कुछ होती थी।

इस तरह से राहुल गांधी को समझ जाना चाहिए कि भाजपा की इस भारी विजय के पीछे अविश्वास पर विश्वास की, अनास्था पर आस्था की जीत है। क्योंकि लोग जहां राहुल गांधी के दौर में गहरी निराशा ओर हताशा में डूब गये थे वहीं नरेन्द्र मोदी जैसे व्यक्तित्व ने देश में आशा और विश्वास का संचार किया। लोगों में नया जोश पैदा किया। देश को लगा कि मोदी जो कहते है वही करते है इसीलिये देश भाजपा के साथ खड़ा हो गया। इसीलिये भाजपा को भारी विजय मिली। प्रत्याशा के विपरीत उसे सम्पूर्ण बहुमत मिला। उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में साम्प्रदायिक माहौल के बावजूद मुस्लिम इसलिये नहीं जीत पाए कि हिन्दू जाति-पांति के आधार पर नही बल्कि राष्ट्रवाद के अधिष्ठान पर खड़ा हो गया। ऐसी स्थिति में मुस्लिम वोट बैंक निरर्थक सा हो गया। पर फिर भी राहुल गांधी को ये सब बाते शायद ही समझ में आए। क्योंकि उन्हें जाति, सम्प्रदाय से परे सोचना नहीं है। अधिक से अधिक चुनाव के पहले मतदाताओं के समक्ष कुछ टुकड़े फेंकने की प्रवृत्ति। पर उन्हें पता नहीं कि देश अब जग चुका है और राहुल गांधी जैसे पप्पू लोगों को उनकी औकात बताने में सक्षम हो चुका है। राहुल गांधी को यह समझ में आ जाना चाहिए जैसा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कहना है कि संगठित हिन्दू समाज ही समस्त राष्ट्रीय चुनौतियों का जबाव है। निःसंदेह लोकतंत्र की आड़ में वंशवाद की वजह से फले-फूले राहुल गांधी जैसे लोगों का समुचित जबाव यही संगठित हिन्दू समाज है।