प्रमोद भार्गव
अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति ने एक साथ दो गलतियां कीं हैं। एक संसद के दोनों सदनों की भावना को नकारा। दूसरे, समिति के ही बहुमत को नजरअंदाज कर लोकपाल का प्रारुप संसद को सौंप दिया। इस उपेक्षा के नतीजतन देश में शायद यह ऐसा पहला अवसर निर्मित हुआ कि एक कानून बनाने के लिए सड़क पर ‘लघु संसद’ अवतरित हो गई। अवाम के सामने खुली बहस हुई। जिसमें तमाम राजनीतिक दलों के आला नुमाइंदों ने शिरकत कर सरकारी लोकपाल को कठघरे में खड़ा किया। दरअसल स्थायी समिति से यह उम्मीद की गई थी कि वह व्यापक विचार-विमर्श के बाद लोकपाल का ऐसा मसौदा सामने लाएगी, जिसमें संसद के दोनों सदनों से सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव तो शामिल हो ही, अन्ना आंदोलन से प्रकट हुई जन-आकांक्षा की भी एक हद तक तुष्टि हो। इस भावना के अनुरुप केंद्र सरकार की समूची नौकरशाही, सिटीजन चार्टर और राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति जैसे जरुरी प्रस्तावों का समायोजन लोकपाल में होना जरुरी था। क्योंकि इसे समूचे ‘सदन की भावना’ की संझा दी गई थी। लेकिन समिति ने किन कारणों से जनमत की रक्षा नहीं की, यह समझना लोकतंत्र की गरिमा के लिए निहायत जरुरी है।
सदन की भावना को अस्वीकार करने से यह तो साफ हो गया है कि कोई अदृश्य शक्ति ऐसी जरुर है, जिसके आगे प्रधानमंत्री और स्थायी समिति लाचार हैं। अन्यथा क्या कारण थे कि जब 30 सदस्यों वाली स्थायी समिति में 17 सांसद, लोकपाल का जो मसौदा संसद में पेश किया गया है, उससे असहमत थे, तो यह मसौदा पेश ही क्यों किया गया ? असहमति जताने वाले तीन सांसद सत्तारुढ़ कांग्रेस के हैं। जबकि कोई भी लोकतांत्रिक मूल्यों की पैरवी करने वाली समिति बहुमत की सलाह मानने को बाध्यकारी होती है। वैसे भी स्थायी समिति किसी एक राजनीतिक दल अथवा सत्तारुढ़ दल की पैरोकार नहीं होती, उसमें सभी राजनीतिक दलों के सांसदों का प्रतिनिधित्व संख्या बल के एक निश्चित अनुपात में होता है। इस नाते यह समिति संसद का ही ‘लघु स्वरुप‘ है। लिहाजा बहुमत की आपूर्ति के बिना लोकपाल का जो प्रारुप संसद के पटल पर रखा गया है, वह संविधान की भी भावना को नकारता है। इसलिए यह मसौदा किसी भी स्थिति में स्वीकारने लायक नहीं है।
यहां सवाल उठता है कि जब लोकपाल के मसले पर संसद की तीन बिंदुओं पर सहमति बनने के बाद सदन की भावना सार्वजनिक कर दी गई थी, तो उसमें आखिरकार बदलाव किस बूते या दबाव के चलते लाया गया ? यह सर्व सम्मति भी तब बनी थी जब सप्रंग -2 के संकट मोचक और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने अन्ना आंदोलन के कारगर समाधान की दृष्टि से संसद में अन्ना की तीन मांगों को सदन में रखते हुए उल्लेखनीय बयान दिया था। जिस पर संसद को गरिमा प्रदान करने वाली महत्वपूर्ण बहस हुई थी और लगभग सभी राजनीतिक दलों ने तीनों बिंदुओं पर सहमति जताई थी। बहुमत से हासिल इसी सहमति को ‘सदन की भावना’ कहकर नवाजा गया था। इसी आधार पर प्रधानमुत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अन्ना को हिन्दी में लिखी चिट्ठी में इन बिंदुओं को लोकपाल में शामिल करने की मंजूरी दी थी। इस चिट्ठी का रामलीला मैदान के मंच से वाचन हुआ था। इसके बाद अन्ना ने दलित-बालिका के हाथ से रस पीकर तेरह दिनी अनशन तोड़ा था।
सदन में इतना कुछ घटने और लिखित चिट्ठी जारी होने के बावजूद यदि सरकार मुकरती है, तो यह स्थिति संसद को ठेंगा दिखाना तो है ही, प्रधानमंत्री जैसे संवैधानिक पद के प्रति भी अविश्वास पैदा करती है। यह भरोसा जनता में बना रहे, यह जवाबदेही प्रधानमंत्री और संसद की बनती है।
अब यदि अन्ना और उनके सहयोगी यह कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री लाचार हैं। उनकी कोई नहीं सुनता। इसमें गलत क्या है ? आखिरकार संसद की सहमति और लिखित आश्वासन के बावजूद लोकपाल के मसौदे में कोई बदलाव आया है तो इसके पीछे कोई न कोई शक्तिशाली हाथ तो काम कर ही रहे हैं। अन्ना इस बदलाव की वजह राहुल गांधी को मानकर चल रहे हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि राहुल की कोई ऐसी परिपक्व समझ है, जिसके बूते वे प्रारुप में नए सुझाव डाल सकें ? लिहाजा निश्चित रुप से बदलाव की इस परिणति के पीछे सोनिया गांधी की मंशा और उनके मातहत राष्टीय सलाहकार समिति के सुझाव हैं। वैसे भी इसमें कोई दो-राय नहीं कि मनमोहन सिंह एक कठपुतली प्रधानमंत्री हैं और सोनिया उन्हें अपनी खुदगर्जी के लिए मनमर्जी के अनुसार नचा रही हैं। यदि मनमोहन सिंह जरा – सी भी राष्टीय स्वाभिमान की भावना रखते हैं और संसद की गरिमा पर उन्हें थोड़ा भी गुमान है, तो यह उनकी न केवल जवाबदेही बनती है, बल्कि राष्ट के प्रति कर्त्तव्य भी बनता है कि वे देश की सवा-अरब जनता को दिए तीन वचनों से मुकरें नहीं, अन्यथा उन्हें जनता कभी क्षमा नहीं करेगी ? क्योंकि लोकपाल विधेयक अब टलने वाला नहीं है। जंतर-मंतर पर वजूद में लघु संसद ने यह साबित कर दिया है।
प्रमोद भी सारा देश देख रहा है देश में मनमानी चल रही है आपका अत्यंत सर गर्भित लेख है देश में बुद्धि जीवी कोण?देश का भला सोचने वाले कोण देश को बेचने वाले कोण/देश पे सत्ता करने वाले कोण?जनता कोण होती है?५०% वोट देते नही?जातिवाद आरक्षण के चक्कर में १०, १२ , २० खडे क र ?१०,१५ % वोट कबाड़ संसद में आ जनता पे पिल पड़ते हैं? जनतंत्र है नही?नेता तंत्र है भ्रष्ट तंत्रहै , उसमे आप उम्मीद करते हैंनेता लोक पल ला अपने पांव में कुल्लाड़ी मारेंगे?जिस भ्रष्टाचार पे वो खडे हैं राज क र रहे कालाधन इकठ्ठा क र रहे अपने को जेल या आजीवन या फांसी कबाड़े नगे ?नही कभी नही?१८८० करोड़ सोनिया कियात्राओं पे खर्चा ३ साल में?है कोई माँ का लाल संसद में पूछने वाला?एक खंडन की सल्तनत है?कोई पूछेगा नही बोलेगा नही?फैसले प्री पैड होते हैं?आप चिल्लाते रहो?मिडिया में कोई हिम्मती नही?ह्माप संसद सब चमचे है बोलो जय हो?जय हो
प्रमोदजी, अच्छा विश्लेसन किया है ! इन राजनेताओ के लिए दो लाइने कहना चाहता हूँ की “सियासी भेड़ियों कुछ तो शर्म करो , कुछ मोको पर तो तवायफ भी घुघरू तोड़ देती है !!
प्रमोद जी बहुत शानदार लिखा. बधाई.