फ्रान्सिस डिसूजा ने गलत क्या कहा ?

-वीरेन्द्र सिंह परिहार-

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गोवा के उप मुख्यमंत्री फ्रान्सिस डिसूजा के इस बयान पर कि ‘‘भारत पहले से हिन्दू राष्ट्र है, इसे हिन्दू राष्ट्र बनाने की जरूरत नहीं है।’’ इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत हिन्दू राष्ट्र था और रहेगा। यहां रहने वाले सभी भारतीय हिन्दू है और इस तरह से वह स्वतः हिन्दू, इसाई या यों कहे इसाई हिन्दू हैं।’’ इस बयान को लेकर तमाम राजनीतिक क्षेत्रों में जो हंगामा बरपा, उसके चलते डिसूजा ने माफी भले मांग ली हो, पर सच को झुठलाया नहीं जा सकता। अब ऐसे लोगों को कौन बताएं कि हिन्दू किसी पंथ या मजहब का पर्यायाची नहीं, अपितु यह भौगोलिक एवं संस्कृति बोधक शब्द हैं। भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी इस बात की पुष्टि कर चुका है। वैसे भी हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति सिंधु शब्द से हुई है। यानी की विदेशियों के अनुसार ई. सदी के आरंभ में जो लोग सिंधू नदी के इधर रहने वाले थे, वह हिन्दू कहलाएं। पुराणों में स्पष्ट रूप से कहा गया है-

‘आ सिंधु -सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका पितृभूः पुण्यभूश्चैव हिन्दूरिति स्मृतः।’

कहने का आशय यह कि सिंधु नदी से लेकर समुद्र पर्यन्त की भारत भूमि जिसकी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि है, वहीं हिन्दू है। निष्कर्ष यह है कि हिन्दू शब्द राष्ट्रीयता का पर्याय हैं। वैसे भी हिन्दुओं के खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाजों में पर्याप्त विभिन्नताएं है, इस्लाम, ईसाई, यहूदी की तरह वह एक किताब एवं एक पैगम्बर से नियंत्रित नहीं है। यहां तक कि हिन्दुओं में नास्तिक पंथ भी शामिल है। इसी को दृष्टिगत रखते हएु कभी भारत के विदेश मंत्री रह चुके मोहम्मद करीम छागला ने कहा था -‘‘मैं उपासना पद्धति से मुसलमान और वंश से हिन्दू हूं।’’ कभी जोश मलीहाबादी ने मुसलमानों को संबोधित करते हुए लिखा था –
‘‘सबसे पहले मर्द बन हिन्दुस्तान के वास्ते, हिन्दुस्तान उठे तो सारे जहां के वास्ते।’’
कहने का तात्पर्य यह कि राष्ट्र पहले और मजहब बाद में। स्वामी विवेकानन्द अथर्ववेद की इस बात पर बहुत जोर देते थे-एक सतः बहुधा वंदन्ति विप्राः। यानी की सत्य एक है, विद्वान उसकी विभिन्न रूपों में व्याख्या करते हैं। इसलिए हमारी परंपरा में कोई किसी भी पंथ को मानने वाला हो, सार रूप में सभी एक ही-है। यह भी सच है कि हमारे देश में अनेक पंथ के लोग हैं, पर उनकी संस्कृति एक होगी, तभी सच्चे अर्थों में वह राष्ट्र के नागरिक कहला सकेेंगे। वस्तुतः संस्कृति किसी राष्ट्र की प्रकृति होती है। विविधता में एकता और एकता का विभिन्न रूपों में प्रकट होना ही हमारी संस्कृति का केन्द्रीय भाव है। इसी अंतमुक्त एकता के आधार पर भारतीय संस्कृति यह उद्घोषित करती है -‘‘एको अहम द्वितीया नास्ति।’’ यानी हम एक है, दूसरा कोई है ही नहीं। जैसा कि तुलसीदास ने लिखा-‘‘सब प्रभुमय देखति जगत केहि सन करहिं विरोध।’’ इसीलिए पंथ, सम्प्रदाय, अथवा पूजा-पद्धति के आधार पर किसी से विरोध करने की हमारी संस्कृति जो हिन्दुत्व का पर्याय है, उसकी प्रवृत्ति ही नहीं है।
इस तरह से पंथ एवं पूजा-पद्धति तो अलग-अलग हो सकते हैं और भी तमाम विभिन्नताएं हो सकती हैं। लेकिन यदि किसी राष्ट्र की संस्कृति में विभिन्नताएं हैं, तो इसका तात्पर्य यह कि राष्ट्र के नागरिकों के आदर्श अलग-अलग है। जबकि हमारी महान परंपराए, गौरवशाली इतिहास, हमारे महापुरूष सभी राष्ट्र के नागरिकों की विरासत है। तभी तो 24 जनवरी 1948 को पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अलीगढ़, मुस्लिम विश्वविद्यालय के बुद्धजीवियों एवं छात्रों से पूछा- ‘‘मैंने कहा कि मुझे अपनी विरासत पर तथा अपने उन पूर्वजों पर गर्व है, जिन्होंने भारत को एक बौद्धिक एवं सांस्कृतिक उत्कर्ष प्रदान किया है। आप इस अतीत के बारे में कैसा महसूस करते हैं? कया आप महसूस करते हैं कि आप भी इसके साझीदार हैं एवं इसके वारिस हैं। परिणामस्वरूप मेरे साथ ही साथ आपके पास भी विरासत के रूप में जो कुछ है, क्या उस पर आपको गर्व होता है, अथवा आप अपने को बेगाना समझते हैं?’’
पर दुर्भाग्य की बात यह है कि कुछ ऐतिहासिक कारणों और बहुत कुछ वोट बैंक की राजनीति के चलते भारतीय मुसलमानों के संदर्भ में ऐसा नहीं है। तभी तो कामन सिविल कोड, जम्मू काश्मीर में धारा 370, बांग्लादेशियों की घुसपैठ और राष्ट्र की पहचान एवं हमारी संस्कृति के प्रतीक राम जन्मभूमि में भव्य राममंदिर आज भी विषम यक्ष-प्रश्न बने हुए हैं।
कुल मिलाकर इस देश के मुसलमानों और ईसाइयों को यदि यह एहसास हो जाएं कि किन्ही परिस्थितियों के चलते उन्होंने अपनी पूजा पद्धति अथवा पंथ बदल दिया है, लेकिन उनके पूर्वज वहीं हैं, जो हिन्दुओं के हैं, उनकी परम्पराएं और आदर्श भी वहीं है। जैसा कि एक बार इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो से किसी ने पूछा कि आप और आपके देश के लोग मुसलमान होकर भी हिन्दू प्रतीकों से जुड़े नाम क्यों रखते हैं, तो डॉ. सुकर्णो का जवाब था कि पूजा-पद्धति बदलने से पूर्वज नहीं बदलते। इसी तरह से ईरानी मुसलमानों भी रूस्तम और सोहराब को अपना राष्ट्रीय नायक मानते हैं, जबकि ये दोनो ही मुसलमान नहीं थे। कहने का तात्पर्य यह है कि इस देश के मुसलमान एवं ईसाई अधिकतर हिन्दुओं से ही धर्मांतरित है। इस तरह से वह सांस्कृतिक रूप से हिन्दू ही है और राम, कृष्ण, शंकर तथा दूसरे महापुरूष उनके भी नायक एवं आदर्श होने चाहिए। फ्रान्सिस डिसूजा जब अपने को ईसाई हिन्दू कहते है, तो इसका तात्पर्य यही है कि वह पूजा-पद्धति से ईसाई है, पर सांस्कृतिक तौर से वह हिन्दू है।
यह सुखद बात है कि बहुत सारी विषम परिस्थितियों के बीच कहीं-न-कहीं आशा की किरणें मौजूद है। पूर्व में कई मुस्लिम सम्मेलनों में कुरान के साथ राष्ट्रगान का भी पाठ किया गया और अलगाववाद के बजाय सहमति के सुरों पर जोर दिया गया। वर्ष 2006 में ही रोमन कैथोलियों द्वारा यह तय किया गया था कि भारत में रहने वाले ईसाइयों के लिए ईसाईयत का भारतीयकरण किया जाएंगा। धार्मिक कार्यक्रमों में हिन्दू प्रतीकों और मानकों का उपयेाग किया जाएंगा। जो लोग डिसूजा की बातों को लेकर हो-हल्ला कर रहे हैं, उन्हें विवेकानन्द की इस चेतावनी का ध्यान में रखना चाहिए- जब भी एक हिन्दू अपने धर्म का परित्याग करता है तो राष्ट्र का एक शत्रु बढ़ जाता है। अब सोचने का विषय यह कि जो विवेकानन्द यह कहते थे कि नए भारत के निर्माण के लिए हिन्दुत्व की आत्मा और इस्लाम का शरीर चाहिए, क्या वह इस्लाम अथवा किसी और भी मजहब के विरोधी हो सकते हैं? पर सच्चाई यही है – इस देश में रहने वाला कोई भी यदि राष्ट्रीयता और संस्कृति की दृष्टि से हिन्दू नहीं है, तो यह देश के लिए अहितकारी है।

अंत में ऐसे हिन्दू विरोधियों और वोट बैंक के सौदागरों को स्वामी विवेकान्द की यह बात बताना उचित होगा -‘‘गर्व से कहो हम हिन्दू है।’’ वह किसी के विरूद्ध नहीं, बल्कि जो अपने को हिन्दू कहते हैं, उन्होंने विश्व को ऐसा दर्शन दिया, जो व्यापक है, वैश्विक है, जो संकीर्ण नहीं है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आच्छादित कर सकता है। आज देश की ज्वलंत सच्चाई यही है कि हिन्दुत्व ही सभी चुनौतियों का समाधान है। क्योंकि हिन्दुत्व ही वह रसायन है, जो सभी देशवासियों को भावात्मक रूप से जोड़ सकता है, और हमारी सोच को एक सामूहिक दिशा में ले जा सकता है। जैसा कि हमारा प्राचीन आदर्श रहा है, ‘‘हम सभी मिलकर चले, सभी एक स्वर में बोले तथा एक समान मत वाले होकर विचार करें, जैसा कि प्राचीन समय में देवता किया करते थे।’ शायद इन बातों को लेकर भी इस देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी हल्ला करे कि यह तो अल्पसंख्यकों की पहचान मिटाने का प्रयास है। पर ऐसे लोगों को 2014 के लोकसभा चुनाव में मतदाता ही आइना दिखा चुके हैं। वस्तुतः मोहम्मद करीम छागला एवं फ्रान्सिस डिसूजा की बातों को इन्ही संदर्भों में लेना पड़ेगा।

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