बात अपनी हो या अपने किसी परिजन, ईष्ट मित्र या सहयोगियों की। लागू सभी पर होती है।
आमतौर पर हर इंसान की यही इच्छा होती है कि मरने के बाद उसकी उत्तर क्रिया, पिण्डदान, गंगा में अस्थि विसर्जन, तमाम प्रकार के श्राद्ध और तिथियों पर जो कुछ करना है उसमें कहीं कोई कमी नहीं रह जाए।
उसे अपने वंशजों और घर-परिवार वालों पर बहुत ज्यादा उम्मीद होती है कि वे इस बारे में गंभीर बने रहेंगे और अपने पितृ ऋणों के लिए समर्पित बने रहेंगे। उम्मीद पालनी भी चाहिए, और वह भी हम अपने वंशजों से आशा नहीं रखें तो आखिर किससे।
यह दिगर बात है कि अपने मरने के बाद कौन कितना ख्याल रख पाता है। हम सभी लोगों को इसी बात की चिन्ता रहती है कि बाद में हमारे नाम पर वह सब कुछ होता रहे, जो करना होता है। मरने के बाद क्या? इस बात को लेकर हम अपने प्रति भी हमेशा चिंतित रहते हैं और अपने लोगों के लिए भी।
मृत्यु के उपरान्त सारा लेखा-जोखा हमारे कर्मों पर निर्भर होता है। हम जितने अच्छे काम करते रहेंगे उतने अधिक अच्छे योग प्राप्त होते रहेंगे।
जितने हमारे बुरे कर्म होंगे उतने अधिक दुःखी और संतप्त रहा करेंगे और आने वाले जन्म भी बिगड़ेंगे। नरक की यंत्रणा को न भी मानें तो तब भी यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हमारे हर कर्म की प्रतिक्रिया होनी है और वह हमें ही भुगतनी पड़ेगी, कोई दूसरा इसे अपने ऊपर नहीं ले सकता, और न ही टाल सकता है।
इस मामले में हम हमेशा दो तरफा सोच रखते हैं। एक यह कि हमारी मुक्ति हो, स्वर्ग मिले अथवा आने वाले जन्म अच्छे हों। दूसरा हम अपने परिचितों, आत्मीयजनों और मित्रों के बारे में भी सोचते हैं कि उनका भी भला हो।
बात अपनी हो तब तो हमें ही अपने व्यवहार और कर्म में सुधार लाने की जरूरत है। यह काम दूसरा कोई नहीं कर सकता। लेकिन बात हमारे संपर्कितों की हो, तब हमें यह सोचना पड़ता है कि आखिर लोग ऎसे क्यों होते जा रहे हैं कि इन्हें संसार से ही पड़ी है, अपने आप के ही स्वार्थों में उलझे हुए हैं और आने वाले जन्म, सत्कर्मों या शांति से कोई सरोकार नहीं है।
बात अपनी हो या औरों की, दोनों की मामलों में मृत्यु के उपरान्त होने वाले कर्मों की ओर ध्यान नहीं देकर इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि जीते जी हम ऎसा कुछ कर जाएं कि आने वाला समय और बाद वाले लोगों से किसी भी प्रकार की कोई उम्मीद नहीं करनी पड़े।
इसके लिए यह जरूरी है कि हम सभी लोग कल की प्रतीक्षा न करें और आज ही से उन सभी कर्मों का त्याग करें जो औरों को दुःख देते हैं, पीड़ा पहुंचाते हैं और तनावों का सृजन करते हैं।
भगवान वेद व्यास ने स्पष्ट कह दिया है – परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़िनम्। अर्थात संसार में पाप और पुण्य के बारे में जानने-समझने के लिए कोई दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है।
परोपकार ही पुण्य है, और पीड़ा पहुंचाना ही पाप। इस एक वाक्य में ही पूरी दुनिया का गणित समाया हुआ है। जो इसे समझ लेता है वह निहाल हो जाता है और जो इस ब्रह्म वाक्य की उपेक्षा करता है वह जन्म-जन्मान्तरों तक भुगतता रहता है।
हमारी सारी समस्याओं का मूल यही है कि हम उन चीजों और व्यक्तियों को पकड़ रखना चाहते हैं जो नित्य और शाश्वत नहीं हैं। और उन सभी बातों को छोड़ दिया करते हैं जिन्हें अंगीकार किया जाना चाहिए।
मरने के बाद हम अपने किसी भी आत्मीय या परिजन के निमित्त चाहे कितने ही ब्रह्मभोज करें, गया, हरिद्वार और दूसरे सारे तीर्थों में अस्थि विसर्जन कर लें, बड़े-बड़े श्राद्ध कर लें, कितना ही दान-पुण्य कर लें, इसका कोई फायदा नहीं है। जो कुछ करना है वह अपने जीते जी कर लिया जाना चाहिए। बाद में किसने देखा।