भव्य भव की गुहा में खेला किए,

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(मधुगीति १८०८०८ अ)

भव्य भव की गुहा में खेला किए,

दिव्य संदेश सतत पाया किए;

व्याप्ति विस्तार हृदय देखा किए,

तृप्ति की तरंगों में विभु भाए !

शरीर मन के परे जब धाए,

आत्म आयाम सामने आए;

समर्पण परम आत्म जब कीन्हे,

मुरारी मुग्ध भाव लखि लीन्हे !

झाँकना परा मन से जब आया,

जगत कर्त्तव्य में लगा पाया;

रहा आज्ञा में व्यस्त हर साया,

चक्र-आज्ञा में विश्व विचराया !

जाने अनजाने चला हर आया,

भोग संस्कार कहीं वह खोया;

सीखना सिखाना रहा आया,

द्वैत उर में उतर कहाँ पाया !

द्वेष उद्वेग क्रोध चंचलता,

विलय थी हो गई सकल जड़ता;

मर्म में निहारे ‘मधु’ पाए,

झरने ही झरने जग झरे पाए !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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