कविता

कविता – हम कैसे बता दें

मोतीलाल

हम यह भी नहीं बता सकते

कितने कंकड़-पत्थर

हर अफरा-तफरी में

महाद्वीप में तब्दील हो जाते हैं ।

 

कब से मंच के पीछे खड़े

एक अदृश्य हाथ

समय के धागे को पकड़कर

हर उस रेत को पाटता रहा है

नदी के दोनों छोरों में

लगता है हमने इस विषय को

विस्मृत होते संस्कार के हदों में

अकेला भटकने को छोड़ दिया है ।

 

क्या वे जले हुए

जंग खाये हाथ

टार-मटोल करते सपनों को

किसी मंच पर धकेल पाएगा ।

 

वे पृष्ठ जो सिर्फ

हमें इतिहास में ले जाते हैं

हम यह भी नहीं बता सकते

कि आखिर कितने आयामों में

कोई विस्फोट मौत में बदलता है ।

 

हम कंकड़-पत्थर तो हैं नहीं

कि हमें किसी चौराहे पर गाड़ दो

किसी शहीदी प्रतिमा के शक्ल में

और हर दिन कई कुत्ते

टांग उठाता रहे ।

 

आपने चुनौतियों से भरी

जरुर लाल आकाश को देखा होगा

देखा होगा कि

कैसे आंगन का धूप

हमारे सपनों में तैर जाता है

फिर हम कैसे बता दें

कि धरती सिकुड़ गई है

और हमारी देह के परे

रेत की आंधी उमड़ी है ।