विजय निकोर की कविता : समय

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समय आजकल 

बिजली की कौंधती चमक-सा 

झट पास से सरक जाता है – 

मेरी ज़िन्दगी को छूए बिना, 

और कभी-कभी, उदास 

गई बारिश के पानी-सा 

बूंद-बूंद टपकता है 

सारी रात, 

और मैं निस्तब्ध 

असहाय मूक साक्षी हूँ मानो 

तुम्हारे ख़्यालों के शिकन्जे में 

छटपटाते 

समय की धड़कन का। 

कम हो रहा है क्षण-अनुक्षण 

आयु की ढिबरी में तेल, 

लगता है 

चाँद की कटोरी से कल रात 

किरणों की रोशनी लुढ़क गई 

या, अभ्युदय से पहले ही जैसे 

सूर्य की अरूणाई, मेरे 

असंबद्ध, असुखकर 

ख़्यालों से भयभीत हुई 

और यह दिन भी जैसे 

आज चढ़ा नहीं। 

फिर भी जाने कहीं’ 

क्यूँ मचल रही है अनवरत 

अनपहचानी भीतरी खाईओं में, 

धुंधलाई भीगी आँखों की 

अनवगत अगम्य गहराईयों में, 

भव्य लालसा 

कुछ पल और जीने की, 

मुठ्ठी से फिसलती रेत-से समय की 

असंयत गति को 

एक बार, केवल एक बार 

नियन्त्रित करने की, और 

जन्म- जन्मान्तर से जो 

परीक्षा ले रहा है मेरे संयम की, 

आज उसी विधाता की 

अंतिम परीक्षा लेने की ।

2 COMMENTS

  1. कम हो रहा है क्षण-अनुक्षण

    आयु की ढिबरी में तेल,

    लगता है
    बुत गहरेभाव, मन को छूने वाली कविता

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