कविता

कविता/ वतन छोड़ परदेस को भागते

देश पूछेगा हमसे कभी न कभी,

जब थी मजबूरियाँ, उसने पाला हमें

हम थे कमज़ोर जब, तो सम्भाला हमें

परवरिश की हमारी बड़े ध्यान से

हम थे बिखरे तो सांचे में ढाला हमें

बन गए हम जो काबिल तो मुंह खोल कर

कोसने लग गए क्यों इसी देश को?

देश के धन का, सुविधा का उपभोग कर,

पोसने लग गए दूजे परिवेश को?

 

इसकी समृद्ध भूमि में उपजे हैं जो,

“देश में अब नहीं कुछ” ये कहते हैं वो

अपने घर की दशा देखें फुर्सत कहाँ

और पड़ोसी कि बातों में बहते हैं वो

“चंद मुद्रा विदेशी मिलें” सोचकर

ग़ैर की ठोकरों में ही रहते हैं जो

है डटे रहना पैसे कि खातिर वहां

इन्तेहाओं तक अपमान सहते हैं वो

 

मैं नहीं कहता परदेस जाओ नहीं,

पर गलत ये की मुड़ के फिर आओ नहीं

दूसरे कि जमीं पर गुज़ारा करो

लेकिन अपनी जमीं को भुलाओ नहीं

तुम हो आज़ाद किसकी भी सेवा करो

दुश्मनी पर ‘वतन’ से निभाओ नहीं

और शक्ति कहीं कि उठाओ भले

लेकिन माता को अपनी दबाओ नहीं

 

राम ने था कहा, “चाहे सोने की हो,

ऐसी लंका में मुझको न आराम है|

जन्मभूमि में ही मेरी पहचान है

मेरी जननी वही, मेरा सुख-धाम है|”

जिसने जड़ दी हमें, हमको पहचान दी

हम उसी जड़ को खुद से जुदा कर रहे हैं

वतन छोड़ परदेस को भागते,

क्या यही फ़र्ज़ माँ को अदा कर रहे हैं?

 

-अरुण सिंह