टिमटिमाता है एक दीया
मेरे कमरे में ।
जानता हूँ अच्छी तरह
नहीं मिटा सकती अंधेरे को
उसकी रोशनी ।
उधर चाँद झांकता है
और कतरा-दर-कतरा
घुसता है
उसकी रोशनी
मेरे अंधेरे कमरे में ।
फिरभी नहीं मिटता अंधेरा
और मैं टटोलता हूँ
दो दिन की पड़ी बासी रोटी
ताकि खाया जाए जिंदगी भर
जिंदगी की तरह ।
और भुला दिया जाए
टिमटिमाता दीया
चाँद की रोशनी
या इस अंधेरे को ही
ठीक अपने अस्तित्व की तरह ।
मोतीलाल