कविता

कविता – भविष्य

मोतीलाल

मैंने अपने ढंग से रची है एक कविता

पूरी कविता घुमती है

उन अंधी सुरंगों की गलियों मेँ

जहाँ नहीं पड़े कभी भी मानव के कदम ना कोई चिड़िया ही चहचहायी कभी

 

नुकीले चट्टानों से जख्म खायी कविता

बैल के कंधे बन गये

घोड़े की नाल सी मजबूत कविता

भुस्स कालो की बस्ती में

समा गया हो जैसे

और बिठा लिया हो अंधेर नगरी

अपने भीतर भी

 

सूरज सी लाल लकीरें

कब की खत्म हो चुकी है

बची है राख

स्याह काली राख लकीरों के शक्ल में जहाँ चमगादड़ मंडराते हैं

और रोते हैं सियार

 

उन गुफाओं से लड़ने की अंतिम सदी चिखती हुई भाग जाती है

 

मैं यह भी नहीं जानता कि पढ़ा जाए ही सारी अंतिम संवेदनाएँ

और बना लिया जाए वह धार

जहाँ नहीं पहुंचेगे कभी

अंधी सुरंगों के पास

उन काली कविताओं के तलाश में

 

उन अंधी सुरंगों से

मेरी कविताएँ लड़ेगी

और बनाएगी सीढियाँ

जहाँ पहुंचेगी

एक न एक दिन सभ्यताएँ ।