नीड़ के तिनकों में फंसे नीदों के टुकड़े

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कही अनकही

कुछ कहानियों में बसा, फँसा परिंदा

पंखों पर लिए अपार भार

यहाँ वहाँ से उड़ने को उद्दृत

कुछ शब्दों से उलझता

कुछ अर्थों से सुलझता

पर निरंतर

कार्यरत

और सतत संघर्षरत

ढूंढता था एक विस्तृत आकाश को

समेटता यहाँ वहाँ टुकडों में पड़े

आकाश के फैलाव को.

स्मृतियों में उसके बढ़ रहा है

भाव अंकुरण का.

अंकुरण उस प्रतीक्षा बीज का

जिसे वह बो आया था

नीड़ में तब जब

नींद फंसी हुई थी यहां वहाँ न

नीड़ के तिनको के बीच.

वह अब भी उनींदा सा है

पर जागृत है भाव अंकुरण के

बढते है वे उन तिनकों के सहारे

जिन पर नहीं पड़ती है चांदनी.

 

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