कविता / दर्द बन कर

अपनों का जब छूट जाता है साथ

दर्द बन कर हंसाती है

हर लम्हा याद बनकर तड़पाती है

काश! कुछ लोग ये बात समझ पाते

काश! अपनों की र्दद का अहसास होता

बनकर दीप जलते रहे हम

साहिल पे जाकर बुझ गए

बन गए एक पहेली

समझ सके न वो तन्हाई

पल भर में हो गई जुदाई

मिल कर भी साथ छोड़ गए

हमे तो बस रोते हुए वो हंस दिये

– लक्ष्मीनारायण लहरे

युवा साहित्यकार पत्रकार

कोसीर

11 COMMENTS

  1. आदरणीय राजीव दुबे जी सप्रेम साहित्याभिवादन ..
    आपका विचार प्रसंसनीय है कविता के माद्यम से आपने जो बात रखी है वह शिक्षा प्रद है
    आपको हार्दिक …. बधाई …..
    सादर …
    लक्ष्मी नारायण लहरे

  2. -विजय कुमार नड्डा जी सप्रेम आदर जोग
    क्यों विकास व समृद्धि की गंगा शहरों में घूमते घूमते

    गांवों का रास्ता भूल जाती है …आपकी कविता में एक दर्द है जो ब्याकुल है लड़ना चाहता है एक नये जीवन की ओर इसारा कर रहा है आपको हार्दिक शुभकामनाएँ ””””

  3. ० बेदर्द ज़माने में दिल की आवाज किसे कहें यहाँ तो अत्याचार .बेमानी का बोल बाला है आवाज लगाओ तो बस पागल कहते हैं विचार रखो तो सुनने वाले नहीं ”””””””””””””””””””””

  4. आदरणीय —-शिवा नन्द द्विवेदी “सहर” जी सप्रेम आदर जोग ””
    साहित्य समाज का दर्पण है ;;समाज में जो कुछ होता रहता है वही हम साहित्य में ढूंढते हैं
    और मीडिया? स्वयं एक स्तम्भ है जो ब्यवस्था पर नहीं स्वतंत्र स्तम्भ है पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा पत्रकार स्वयं समाज की अच्छाई बुराई को भांपकर तय करता है पत्रकार या पत्रकारिता का उद्देश्य
    अच्छे समाज का सृजन करना है ”””””””

  5. आदरणीय साहित्यकार ,बंधुओं को गण पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ”””””””””””””””””””””””

  6. कविता ””’
    ”””””वो भोली गांवली”””’
    जलती हुई दीप बुझने को ब्याकुल है
    लालिमा कुछ मद्धम सी पड़ गई है
    आँखों में अँधेरा सा छाने लगा है
    उनकी मीठी हंसी गुनगुनाने की आवाज
    बंद कमरे में कुछ प्रश्न लिए
    लांघना चाहती है कुछ बोलना चाहती है
    संम्भावना ! एक नव स्वपन की मन में संजोये
    अंधेरे को चीरते हुए , मन की ब्याकुलता को कहने की कोशिश में
    मद्धम -मद्धम जल ही रही है
    ””””””””वो भोली गांवली ””””’सु -सुन्दर सखी
    आँखों में जीवन की तरल कौंध , सपनों की भारहीनता लिए
    बरसों से एक आशा भरे जीवन बंद कमरे में गुजार रही है
    दूर से निहारती , अतीत से ख़ुशी तलाशती
    अपनो के साथ भी षड्यंत्र भरी जीवन जी रही है
    छोटी सी उम्र में बिखर गई सपने
    फिर -भी एक अनगढ़ आशा लिए
    नये तराने गुनगुना रही है
    सांसों की धुकनी , आँखों की आंसू
    अब भी बसंत की लम्हों को
    संजोकर ”’साहिल ”” एक नया सबेरा ढूंढ़ रही है
    मन में उपजे असंख्य सवालों की एक नई पहेली ढूंढ़ रही है
    बंद कमरे में अपनी ब्याकुलता लिय
    एक साथी -सहेली की तालाश लिए
    मद भरी आँखों से आंसू बार -बार पोंछ रही है
    वो भोली सी नन्ही परी
    हर -पल , हर लम्हा
    जीवन की परिभाषा ढूंढ़ रही है ”””’
    00000लक्ष्मी नारायण लहरे ,युवा साहित्यकार पत्रकार
    छत्तीसगढ़ लेखक संघ संयोजक -कोसीर ,सारंगढ़ जिला -रायगढ़ /छत्तीसगढ़

  7. आदरणीय
    संपादक जी सप्रेम अभिवादन
    प्रवक्‍ता डॉट कॉम मुझे अच्छा लगता है दिन में कम से कम ०३से ०४ घंटे पढ़ता हूँ
    बीज को चाहिए बित्ता भर जमीन ,नमी थोड़ी सी और हवा
    फिर खुद बना लेता है वह धरती पर अपना वास””””””””””””””””””””””””””””””””””””””
    लक्ष्मी नारायण लहरे /ग्रामीण पत्रकार कोसीर छत्तीसगढ़

  8. मंकरसंक्राति के शुभ अवसर पर प्रवक्‍ता के लेखको पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं…………..आप का
    जीवन हर पल खुशियों से भरा रहे ……………………………………………………………….

  9. मेरी एक कविता ०००
    तुम याद आती हो बहुत .सपनों में सताती हो बहुत .हर लम्हा पल दो पल तुम याद आती हो बहुत
    काश ये बात कह पाता ………………..

Leave a Reply to LAXMI NARAYAN LAHARE KOSIR Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here