कविता

कविता-हमको बिरासत में झुकी गरदन मिली-प्रभुदयाल श्रीवास्तव

हमको बिरासत में झुकी गरदन मिली

 

वह शेर हम बकरी बने जीते रहे

मिल बैठकर तालाब को पीते रहे|

 

वह बाल्टियों पर बाल्टियां लेते रहे

हम चुल्लुओं को ही फकत सींते रहे|

 

पाबंदियों के गगन में हमको उड़ा

मन मुताबिक डोर वे खींचे रहे|

 

शोर था कि कान कौआ ले गया

सुन देखकर भी आँख हम मींचे रहे|

 

पेड़ पर चढ़ फल सभी वे खा गये

डालियों के हम सदा नींचे रहे|

 

श्वान बनकर दौड़ कई दौड़े मगर

दौड़ में अब्बल सदा चीते रहे|

 

सारी जमीनें आज उनके नाम हैं

हम नापने के काम के फीते रहे|

 

वह आसमां तक को उड़ाकर ले गये

हर तरफ से हम गये बीते रहे|

 

अगुआई ऐंजिन की तरह उनको मिली

गार्ड बनकर हम सदा पीछे रहे|

 

सारे जहां का जल समंदर पी गया

तालाब पोखर और कुंए रीते रहे|

 

हमको बिरासत में झुकी गर्दन मिली

इसलिये तलवार वे खींचे रहे|