समानांतर मीडिया स्थापित करे राजनीतिक दल

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news_channels_बहुत दिनों के बाद पत्रकारों के बारे में एक अच्छी बात पढऩे को मिली थी। एक अखबार में किसी पत्रकार के बारे में छपा था कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की नौकरी और भारी-भरकम वेतन से ”श्यामल” कांति नाम एक पत्रकार ने पश्चिम बंगाल के एक गांव जाकर बच्चों को पढ़ाने का काम करना बेहतर समझा। श्याममल जी ने तो मीडिया से छुटकारा पाकर गांवों में सुकुन की तलाश कर ली। समाज को भी आज मीडिया के चंगुल से छुटकारे की जरूरत है। वास्तव में जिस तरह आज मीडिया ने अपनी तानाशाही कामय कर ली है उससे छुटकारे की गुंजाइश खोजने की जिम्मेदारी समाज के प्रबुद्ध वर्गों के कंधे पर है। खासकर राजनीतिक दलों के लिए यह आवश्यक है कि वह ‘मीडिया और राजनीति” के संबंधों पर विचार करते समय वर्तमान मीडिया के अतिवाद से छुटकारा पाने हेतु प्रयास और चिंतन मनन करे।

यह ताज्जुब की बात है कि मीडिया समाज का एकमात्र क्षेत्र है जिसके नियमन के लिए कोई कानून या संस्था नहीं है। मीडिया एक ऐसा क्षेत्र है जिसे स्व-नियंत्रण की सुविधा प्राप्त है। पेशेवराना तौर पर उसके किसी भी गैर जिम्मेदाराना व्यवहार के लिए दंडित करने का कोई प्रावधान नहीं है। माध्यमों की स्वछंदता को चुनाव पश्चात एवं पूर्व संर्वेक्षण के उदाहरण से समझा जा सकता है। जैसा कि सर्वज्ञात है, चुनाव आयोग यह मानकर चलता है कि देश के किसी भी एक कोने का राजनीतिक रुझान दूसरे कोने तक को प्रभावित कर सकता है। इसलिए चाहे चुनाव की पूरी प्रक्रिया कितनी भी लंबी, उबाऊ या थकाव क्यों न हो,चुनाव का परिणाम वे एक साथ ही घोषित करते हैं। लेकिन मीडिया वाले??? अपने स्टूडियो के कमरे या कुछ शहरों के होटल में बैठकर कुछ नौसिखिए या अप्रशिक्षित हाथों द्वारा संग्रहित किये गये आंकड़े के आधार पर पूरे देश का भविष्य तय कर देते हैं। कुछेक तीर तुक्का जैसे अपवादों को छोड़ दिया जाय तो बार-बार यह साबित हुआ है कि उनके सर्वेक्षण किसी सड़क छाप ज्योतिषी के भविष्य फल से भी ज्यादा बकवास साबित हुए हैं। बावजूद इसके बिना किसी संकोच के सेफालॉजिस्ट नामक वो महारथी, अपनी गंभीर मुख मुद्रा में भी कभार हल्की सी मुस्कान बिखेरते अगले ही रोज से आपको स्टूडियो में हाजिर मिलेंगे।

सवाल यह है कि इतनी गलत, भ्रामक, गैर जिम्मेदारानापूर्ण और ज्यादातर प्रायोजित इस तरह के पूर्वानुमान के लिए जिम्मेदरी तय किया जाना चाहिए या नहीं? आखिर स्व-नियंत्रण की सुविधा इन्हें ही क्यों? नख-दंत निहीन प्रेस कौंसिल को इन सब चीजों पर नियंत्रण के लिए या जरूरत हो तो दंडित करने का अधिकार देने में क्या बुराई है? तमाम पौराणिक आख्यान इस बात की गवाही देते हैं कि ‘स्व नियंत्रण” जैसी किसी चीज को होना विरले ही संभव है। गोस्वामी जी ने लिखा कि ‘समरथ को नहि दोष गुसाईं” या ‘प्रभुता पाई काह मद नाहूं’। जैसा कि सभी जानते हैं कि चुनाव लडऩा और जीतना राजनीतिक दलों के लिए जीवन मरण का प्रश्न होता है और आप एक उछाला गया एक कीचड़ जो बाद में भले ही गलत साबित हो जाय, आपके सारे किये धरे पर पानी फेरने के लिए पर्याप्त होगा। मीडिया में वह ताकत है कि बड़े मेहनत से आपके द्वारा बनायी गयी छवि को एक दिन में मटियामेट कर सकता है। लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम रहम नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में। तो सवाल यह है कि इतनी बड़ी ताकत के लिए किसी भी तरह का कोई नियामक क्यों नहीं हो?

राजनीति से अलग की बात करें, तो आरूषि कांड मीडिया की बदतमीजियों का सबसे बड़ा उदाहरण है। आप सोचे… तलवार परिवार का ऐसा कोई सदस्य, मित्र वर्ग ऐसा नहीं बचा जिसे चरित्रहीन साबित करने में मीडिया ने कोई कसर बाकी रखी हो। बच्ची के नौकर से संबंध, पिता के कलीग से, मां के किसी और से, कभी खुद हत्या का शिकार हो गये नौकर को हत्यारा साबित करने की कोशिश, तो कभी ‘हत्यारा पिता” को टोकरी भर-भर कर लानत-मलानत। और यह सब कुछ पुलिस के हवाले से कम लेकिन खुद की तफ्तीश के दावे के साथ ज्यादा। यानि रिपोर्ट, रिपोर्टर के अलावा सब कुछ हो गया। जासूस, पुलिस, फोरेंसिक एक्सपर्ट, वकील, जज…। जिस किसी एक नतीजे पर पहुंचने के लिए इतनी सारी कडिय़ों की जरूरत होगी, वहाँ कुछ डिजिटल कैमरे, चार रिपोर्टर एक एडिटर और कुछ सुंदर एंकर से सहारे सारे ‘सच’ आपके सामने किसी भी कीमत पर। उन सब पेशेवरों की शाम कहाँ बीतेगी, इससे भले ही आपको कोई मतलब नहीं हो, लेकिन आरूषि के तो खानदान की ठेकेदारी इनका नैतिक दायित्व। और फिर बार-बार उस परिवार की लाश पर सेके गये हाथ द्वारा टीआरपी का महल खड़ा कर शैम्पेन का जश्न …। जब पिता बरी हो गये, बावजूद उनके महीनों से दी गई गालियाँ पर ना कोई पश्चाताप करने की जरूरत और ना ही फुरसत। बाकी का पुलिस जाने अभियुक्त या न्यायालय जाने। हम तो चले अगली स्टोरी, किसी अगले शिकार की तलाश में। देश को यह जानकर आश्चर्य होगा कि जब सारे स्टूडियो, तलवार परिवार की रातें गिनने में व्यस्त था, उसी समय छत्तीसगढ़ के बस्तर के 26 लाख लोग नक्सलियों द्वारा उखाडे गए विद्युत टावर से फैलाए गये अंधेरे का शिकार हो पानी और इलाज के लिए तरस रहे थे। लेकिन एक परिवार का चरित्र हनन करते रहना भारी पड़ा इन लाखों परिवारों पर। कई बार कुछ जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टु, मधुमिता शुक्ला या नीतिश कटारा जैसों की न्याय दिलाने की बात कह यह मीडिया अपनी पीठ भले थपथपा ले, परंतु इन दुकानदारों को यह बेहतर पता है कि क्योंकि इसमें ग्लैमर, सेक्स, रोमांस, मारधाड़ आदि सारे मसाले थे अतः इन सारी कहानियों के बिकने की संभावना काफी थी। तो चलो कर लेते हैं स्टोरी, आम के आम और गुठलियों के दाम। वरना अगर आप गोरे नहीं हो, किसी बस्तर में निवास करते हों, थोड़ा गरीब हो, फिर देखिये कैसे मीडिया वाले गायब होते हैं, जैसे गधे के सिर से सींग। आप अगर दिल्ली में हैं और प्रेमी के बिछोह में आपने आत्महत्या किया है तो आप तो शहीद हो गयी समझो । मीडिया वाले इसे राष्ट्रीय समस्या बना कर ही छोड़ेंगे। लेकिन अगर आप किसान हैं और आपने आत्महत्या कर ली तो आंकड़े आने दीजिए फिर देखेंगे। या राहुल बाबा को कलावती का नाम लेने दीजिए, फिर देखते हैं। पिछली संसद में विश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौर को याद कीजिये । सारा विपक्ष इस बात पर एकमत था कि भाजपा की मदद से किये गये स्टिंग आपरेशन को दिखाया जाय। लेकिन बड़े ही शातिर तरीके से चैनल ने गेंद स्पीकर के पाले में डाल दी थी । जबकि यह तथ्य है कि संसद से संबंधित किसी भी आपरेशन में आजतक किसी को भी ऐसी अनुमति लेने की जरूरत नहीं रही है। चैनल बिना लाग-लपेट के बेधड़क वेश्याओं तक का जुगाड़ कर ऐसा आपरेशन करते और दिखाते रहे हैं। लेकिन उस घटनाक्रम में यह शंका करने का पर्याप्त कारण था कि चैनल कोई सौदा करने के लिए पर्याप्त समय चाहता था। चूंकि संसद से बाहर हुए किसी घटनाक्रम के लिए स्पीकर कोई व्यवस्था नहीं दे सकते थे, अत: यह तय था कि टेप नहीं दिखाने की नौबत आयी तो कह सकते थे कि स्पीकर ने अनुमति नहीं दी और अगर स्टोरी पूरी हो जाती तो कहने को गुंजाईश बची थी कि स्पीकर ने मना नहीं किया दिखाने का। वाह… क्या खरा सौदा है।विगत लोकसभा चुनाव की ही बात करें तो किस तरह से मीडिया कंपनियों ने राजनीतिक दलों से फिरौती वसूली है इस पर टनों कागद कारे किया गया है । तो सवाल यह है कि इतने शातिराना तरीके से बेलगाम होते जा रहे मीडिया पर नियंत्रण कैसे हो? इस बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?

सरकारें तो खुद इनके सामने भीगी बिल्ली बनी रहती हैं। तो इनके अतिवाद से जनता को मुक्ति कैसे मिले? किसी भी पार्टी की सरकार हो, उसे तो अधिकतम 5 वर्ष में जनता के दरबार में जाना होता है (कई बार तो 6 महीने में ही)। उसकी यह मजबूरी है कि जनता इन माध्यमों के द्वारा ही राजनीतिक दलों का हाल जानेगी । अत: नेतागण तो पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर लेने से रहे। जबकि इसके उलट मीडिया केवल और केवल बाजार के प्रति जिम्मेदार है। उसे अपने टीआरपी से मतलब है। अत:बाजार में बाजारू बनकर ही आराम से रहा जा सकता है।

तो लोकतंत्र के सभी स्तम्भ इस समस्या पर विचार करें। तेजी से बदलते जा रहे सामाजिक एवं प्रौद्योगिक परिस्थितियों में राजनीतिक दलों को चाहिए कि वह स्वयं का मीडिया संस्थान स्थापति करे। बाजारू मीडिया के एकाधिकार को तोडऩे का यह सबसे बेहतर उपाय होगा। इस मामले में सबसे अच्छा उदाहरण केरल में माकपा का है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में यही ऐसी पार्टी है जिसके द्वारा 2 टेलीविजन चैनल और एक दैनिक समाचार पत्र का संचालन किया जा रहा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार केरल में इस पार्टी के पास 4000 करोड़ की व्यावसायिक परिसम्पत्ति है। इसके अलावा शिवसेना के मुखपत्र से भी पाठकों का सामना होता ही है। एक अकेले अपने उस मुखपत्र की बदौलत शिवसेना की मीडिया पर निर्भरता अपेक्षाकृत न्यून हो गई है। फिर वामपंथियों के मुखपत्र को भी, कई बार गंभीरता से पढ़ा जाता है। इसके अलावा भाजपा भी अपने केंद्रीय प्रकाशन एवं 10-12 राज्यों के प्रकाशनों द्वारा अपनी बात कार्यकर्ताओं तक पहुंचाने का प्रयास करती है।

लेकिन केरल या दक्षिण के राज्यों के अपवाद को छोड़ दें तो ऐसा कोई दल नहीं है जो अपने संस्थान को वैकल्पिक मीडिया के रूप में प्रस्तुत कर सके। चुनाव आयोग भी ये कर सकता है कि वह एक समय सीमा के बाद राजनीतिक दलों के लिए अपना प्रसारण संस्थान होना बाध्यकारी कर दे। वैसे यह इतना आसान भी नहीं है और इसमें सर्वानुमति बनाने की भी जरूरत होगी। लेकिन एक बार ऐसा हो जाने पर, चीजें आसान होती चली जाएंगी। एक तो मीडिया का एकाधिकार खत्म होगा, दूसरा राजनीति की मुख्यधारा से पढ़े लिखे लोग जुड़ेगे। राजनीति को भी सकारात्मक पेशेवराना अंदाज प्राप्त होगा। बाद में पोस्टर, पम्प्लेट, दीवार लेखन आदि को प्रतिबंधित कर अनाप-शनाप खर्चें को रोका जा सकता है। पर्यावरण की सुरक्षा भी हो सकती है। लोगों का लाखों की संख्या में प्रयोजित रूप से इकट्ठा होना बंद हो जायेगा। इससे भी पेट्रो पदार्थों की बचत होगी साथ ही लोगों को रोज-रोज के धरना प्रदर्शन और सड़क जाम से भी मुक्ति मिलेगी। और सबसे बड़ी बात यह कि किसी पार्टी को अपनी बात रखने के लिए मीडिया के चिरौरी की जरूरत नहीं होगी। एक स्वस्थ प्रतियोगिता कि शुरुआत होगी अत: राजनीतिक लोग भी ब्लैकमेल होने और करने से बचेंगे। चूंकि आपके विपक्षी दल के पास भी वही औजार होगा अत: शक्ति संतुलन विकेंद्रीकृत होगा। इस तरह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का अपना सशक्त मीडिया संस्थान लोकतंत्र को उत्तरोत्तर मजबूत और आधुनिक बनाने में मददगार ही होगा। कहावत है हर बड़ी बात एक छोटे विचार से ही शुरू होती है। एक बार विचार करके तो देखिये।

-जयराम दास.

7 COMMENTS

  1. DOOSARON KE BEDROOM MEIN JHAKANE WALE KHABARCHEE LOGON KE BED ROOM MEIN KYA HO RAHA HAI, YAH AB PUBLIC JAN CHUKI HAI. INKI RAGEEN HO RAHI RATON KA MMS YADA KADA BAZAR MEIN SANSANI PAIDA KARTA HAI.BEJOD LEKH KELIYE MERI SHUBHKAMNA SWIKAAR KAREIN.

  2. Dhanyawaad Jai Ram Ji,

    Main Aapse sahamat hoon ki Press ko loktantra ka choutha stambh ( Fourth Estate ) Sirf kaha jaata hai. Samvidhan mein Lok tantra ke sirf teen hee stambh hain. Sansad, Nyayapaalika evam karyapaalika. magar press ne apne aap ko loktantra ka choutha aur sabse bada mananaa shuroo kar diya hai aur ve nahin chahte ki koi unke karyo per teeka tippani kare. Ve Ram ke astitva per tippani kar saktein hain magar unke anusaar Ram bhi unper tippani nahin kar sakte.
    Media ko choutha stambh kyon aur kaise kaha jaata hai iske liye hamein iss website per jaakar dekhna hoga
    https://en.wikipedia.org/wiki/Fourth_Estate

    Ismein vishwa vikhyaat writer Oscar Wilde ne media ke baare mein kya likha hai, padhna rochak hoga.

    Author Oscar Wilde wrote:

    In old days men had the rack. Now they have the press. That is an improvement certainly. But still it is very bad, and wrong, and demoralizing. Somebody — was it Burke? — called journalism the fourth estate. That was true at the time no doubt. But at the present moment it is the only estate. It has eaten up the other three. The Lords Temporal say nothing, the Lords Spiritual have nothing to say, and the House of Commons has nothing to say and says it. We are dominated by Journalism.

    Yedi hum uprokt tippani dhyaan mein rakhein to hum apne media ke chauthe stambh kahalaane ko sahi sabit kar saktein hain magar media hai ki maanataa hi nahin.

    Satish Mudgal

  3. रोहित जी, सतीश मुद्गल जी की जिज्ञासा से मैं भी खुद को जोड़ना चाहूँगा. वस्तुतः मीडिया का छात्र होने के बावजूद मुझे भी four press theory की कोई जानकारी नहीं है. आप जानकारी देंगे तो अच्छा लगेगा. लेकिन अगर आपका आशय मीडिया द्वारा स्वयं को स्वयम्भू रूप से चौथे स्तम्भ की भूमिका हड़प लेने से है तो मेरा निवेदन यह है कि प्रेस ने सम्प्रति खुद को चौपाया ही साबित किया है. आपका कोई संपर्क सूत्र नहीं होने के कारण मुझे यहीं जबाब देना पडा,अन्यथा मैं व्यक्तिगत मेल करता आपको.धन्यवाद.
    जय.

  4. jai,aap media karm se jude hai.ghoshit parichap k mutabik aap media ki theory bhi jante honge. aap ki chinta se asahamat hone ka sawal nahi uthata kyoki ve jayaj hai magar aapk samadhan bachkana lagte h.aapko four press theory to pata hogi.

  5. aapka lekh padhaa. vaakai ek naya vichar to hai. aaj jis tarah se media samaaj ko dictate kar raha hai aur ek prakaar se ye kah raha hai ki tumhare liye sochne ka kaam bhi hum hi kar lenge tum to sirf hamari khabar ko dekhte raho. is khatarnaak pr avritti se bachne ki jugat to lagaani hi hogi. media ka ye vaakai ek ajeeb rop hai, jiski kisi ne bhi kalpana tak nahi hogi.
    achchhe lekh ke liye saadhuvaad
    vibhash jha raipur, chhattigarh

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