महत्वपूर्ण लेख राजनीति

‘आप’, आप और बस ‘आप’ !!!

 नरेश भारतीय

download“ व्यवस्थित संसदीय लोकतन्त्र की बजाए ‘आप’ यदि हर मामले पर ‘जनमतसंग्रह’ के लिए ही अड़ती चली जाएगी तो देश में मुद्दों के समाधान कम और नए मुद्दों को अधिक जन्म मिलेगा. व्यवस्था परिवर्तन के दावे के साथ मैदान में उतरी है ‘आप’ तो फिर वर्तमान व्यवस्था को पूरी तरह समझने और समझाने के लिए, उस कांग्रेस के साथ मिल कर और शासन व्यवस्था में प्रवेश करके अपनी प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन करे, जो उसे समर्थन देने के लिए सर्वाधिक उत्सुक है. अन्यथा दिल्ली प्रदेश में राष्ट्रपति शासन के सिवा और कोई युक्तियुक्त विकल्प नहीं है.”

उपरोक्त टिप्पणी मैंने फेसबुक में १५ दिसंबर को उस समय दी थी जब दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर आम आदमी पार्टी “आप” के नेतृत्व की नई पैंतरेबाजी तेज़ होना शुरू हुई थी. उपराज्यपाल के द्वारा अरविन्द केजरीवाल को सरकार बनाने का बुलावा दिए जाने के बाद उन्होंने कांग्रेस और भाजपा दोनों को अपनी शर्तों की सूची भेजने की घोषणा की. सबसे अधिक सीटें प्राप्त करने वाली भाजपा, जिसे उपराज्यपाल ने सर्वप्रथम सरकार बनाने का न्यौता दिया था, उसके नेता डॉक्टर हर्षवर्धन ने बिना हिचक यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में वे सरकार बनाने में असमर्थ हैं. उसके बाद बारी आई ‘आप’ की. ‘आप’ के नेता, जो अपने चुनाव अभियान से लेकर दिल्ली की जनता के द्वारा किए गए मतदान के बाद परिणाम आने तक, भाजपा और कांग्रेस के घोर आलोचक होने के नाते उनमें से किसी के भी साथ सत्ता समझौते की हर सम्भावना से इनकार करते आए थे, कांग्रेस के द्वारा उनकी सभी शर्तें स्वीकार कर लिए जाने के बाद डगमगाते नज़र आए. यह कहते हुए कि ‘हमें धर्म संकट में डाल दिया गया है’ ‘आप’ के नेतृत्व ने यह घोषणा की कि वे इस पर पुन: जनता का मत लेंगे कि वे कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनाएं या नहीं. अनेक लोगों के लिए यह निराशाजनक संकेत है कि ‘आप’ सत्ता राजनीति के निकट अपना पहला कदम रखने के बाद अपने बूते पर कोई निश्चित निर्णय कौशल दिखाने की अपनी क्षमता का साहस नहीं दिखा पा रही.

जिस लहज़े में ‘आप’ के नेता केजरीवाल ने यह कहा कि ‘अब हर फैसला जनता ही करेगी’ उससे लगा कि वे लोकतंत्र के स्थापित माध्यम चुनावों की प्रक्रिया में से गुजरने के बावजूद, हर छोटे बड़े मामले में, बार बार जनमतसंग्रह की राह पर चलना चाहते हैं. भले ही देश के ‘आम आदमी’ को सुनने में उनका यह तरीका अच्छा लगे, लेकिन वही ‘आम आदमी’, जिसके नाम से कुछ महत्वाकांक्षी व्यक्ति किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री और देश का प्रधानमंत्री तक बनने के स्वप्न संजो रहे हैं, कल को वही ‘आम आदमी’ उनसे यह भी पूछ सकता है कि क्या कुछ भी करने से पहले मेरे पास ही भागे आओगे कि अब या कब आगे क्या करना है या खुद भी निर्णय करोगे? सब जानते हैं कि चुनाव सत्ता प्राप्ति के उद्देश्य से लड़ा जाता है. जीतने पर अंतत: हर कोई वही करेगा जो उसे अपने लिए या अपनी पार्टी के लिए हितकर लगेगा. जनता की समस्याओं का समाधान भी वे वैसा ही करेंगे जो उनके राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करेगा. जनता का पक्ष यह है कि उसके सरोकार के मुद्दों के समाधान यदि आम जनता के लिए लाभकारी सिद्ध हुए तो ही जनता उनके साथ खड़ी रहेगी अन्यथा वही होगा जो दिल्ली में इस बार कांग्रेस का हुआ है. इसी परिप्रेक्ष्य में क्या चुनावों के माध्यम से जनप्रतिनिधित्व की वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था पर्याप्त नहीं? जनमत ही है कि दिल्ली में भाजपा सत्ता के निकटस्थ होते हुए भी सरकार नहीं बना पा रही. यह भी जनमत है कि नवोदित पार्टी ‘आप’ स्पष्ट जनादेश न मिलने पर भी, अपनी शर्तों पर ही सही, पराजित कांग्रेस पार्टी के साथ मिल कर या उसके बाहरी समर्थन से सरकार बनाने के अपने लोभ का संवरण नहीं कर पा रही. यदि ऐसा नहीं है तो भाजपा की तरह ‘आप’ के नेता ने भी उपराज्यपाल को अपना दो टूक उत्तर क्यों नहीं दिया कि अल्पमत में होने के कारण वह सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है? सच्चाई यह है कि अन्य पार्टियों की तरह ‘आप’ ने भी चुनावों में जीत हासिल करने के लिए चुनाव अभियान चलाया था और जनता से कुछ वादे किए थे. जनता ने यदि किसी को पूर्ण बहुमत नहीं दिया है तो इसका अर्थ यह भी है कि जनता अभी पूर्णत: आश्वस्त नहीं है. और समय की आवश्यकता है उसे.

जैसा स्थिति विकास हुआ है उसमें ‘आप’ का नेतृत्व भली भांति यह जानता है कि यदि उसे सरकार बनानी है तो कांग्रेस से उसकी पेशकश स्वीकार करने के अतिरिक्त उसके पास और कोई विकल्प नहीं है. भाजपा के साथ वह सरकार बनाने से मना कर चुकी है जो यदि संभव हो जाता तो संभवत: दिल्लीवासी उसका स्वागत करते क्योंकि इन चुनावों में उनकी पहली पसंद भाजपा रही है. लेकिन इसमें ‘आप’ का पूर्वाग्रह आड़े आया. श्री केजरीवाल ने कांग्रेस की पेशकश पर यह कहते हुए सवाल उठाया कि ‘बिना शर्त समर्थन’ से कांग्रेस का अभिप्राय: क्या है. आनन फानन में ‘आप’ ने अपनी शर्तों की सूची तैयार करके कांग्रेस के साथ भाजपा को भी भेज दी जबकि भाजपा ने स्थितियों को भांपते हुए उसे समर्थन देने या उससे समर्थन लेने में कोई रूचि नहीं दिखाई थी. फलत: भाजपा ने इसका कोई जवाब न देकर ठीक ही किया. कांग्रेस ने इन शर्तों को अधिकांशत: ‘प्रशासनिक महत्व’ की बताते हुए उन्हें बेहिचक पूर्णत: स्वीकार कर लिया. इस प्रकरण में न सिर्फ ‘आप’ की राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय मिला बल्कि वह अपने ही फैलाए जाल में स्वयं फंसती नज़र आई. असमंजस पनपा कि वह क्या करे, क्या न करे. ‘आप’ और कांग्रेस मिल कर भी सरकार बनाते हैं तो २८+८ = ३६ का आंकड़ा बनता है. ७० की विधानसभा में कब तक चलेगी ऎसी अल्पमत सरकार? क्या स्थिर प्रशासन मिलेगा दिल्ली के वासियों को? क्या पूरे कर पाएगी ऐसी सरकार ‘आप’ के द्वारा जनता को दिए गए वादों को? और क्या अब पराजित कांग्रेस ‘आप’ के इशारों पर एक कठपुतली की भूमिका अधिक समय तक निभाती रह सकेगी जैसा कि केजरीवाल सुनिश्चित करने की निरर्थक चेष्ठा में जुटे हैं?

अपने ही द्वारा बुने जा रहे ताने बाने में फंसते श्री केजरीवाल और उनके कुशल सहयोगियों को अपना मुंह बचाने के लिए जनता के पास जाने के सिवा और कोई सूझ नहीं आई. फिर तुरंत यह विस्मयकारक घोषणा कर दी कि “हम अल्पमत में होते हुए कांग्रेस के साथ सरकार बनाएं या न बनाएं इस पर जनता का फैसला लेने के लिए उसके पास जायेंगे”. गर्व के साथ यह जतलाया कि २५ लाख पत्र दिल्ली की जनता में बांटे जाने के लिए तैयार किए जा चुके हैं. साथ ही कम्प्यूटर के माध्यम से भी लोगों के मत लिए जाने लगे. निर्धारित समय रविवार २२ दिसम्बर तक जनता क्या फैसला देती है पता चल जाएगा. क्या ‘आप’ का नेतृत्व पहले कोई फैसला ले चुका है और जनता के पास जाने और पुन: लोकसंपर्क करने का उपक्रम किया जा रहा है? इसका भी खुलासा शीघ्र हो जाएगा. यह निश्चित ही स्थापित व्यवस्था से हट कर उठाया गया कदम है और ‘आप’ की आगामी रणनीति का संकेत भी है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि दिल्ली की जनता को अभी भी अपनी समस्याओं से निजात पाने के लिए लम्बी प्रतीक्षा करनी होगी. शायद तब तक जब तक जनता किसी एक पार्टी के हाथ में लगाम संभाल देने की तत्परता नहीं दिखाती. जनता को असमंजस नहीं, उसकी समस्याओं के समाधान खोज कर वस्तुत: समाधान कर सकने वाली स्थिर सरकार चाहिए. कब गठित होगी और कैसे गठित होगी ऐसी सरकार? फैसला इस पर किए जाने की आवश्यकता है. त्रिशंकु विधानसभा यह कर पाने में असमर्थ है. भाजपा अपनी असमर्थता जता चुकी है क्योंकि बहुमत के पास होकर भी बहुमत से वह वंचित है. ‘आप’ ने सोचने के लिए उपराज्यपाल से दस दिन का समय माँगा जो उसे मिला भी लेकिन वह अभी भी निर्णय नहीं कर पा रही कि कांग्रेस के साथ हमजोली बने या न बने. अर्थात अपने भविष्यक भले बुरे की सोच में है. कांग्रेस जिसे जनता ने सिरे से ही नकार दिया है फिर से उबर पाने के लिए अपने झुके हुए आहत कंधे का सहारा ‘आप’ को देने के लिए स्वार्थवश उत्सुक है. ‘आप’ के लिए दीर्घावधि सौदा महंगा पड़ सकता है क्योंकि उसकी अल्पमत सरकार टेकड़ियों के सहारे अधिक समय के लिए नहीं टिकी रह सकती.

अब रहा ‘आप’ के नेता के द्वारा बार बार किया जाने वाला यह दावा कि वे व्यवस्था परिवर्तन के लिए निकले हैं. पर यह स्पष्ट नहीं है कि कैसा होगा यह कथित व्यवस्था परिवर्तन. माना कि देश से भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए बहुमुखी व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता है लेकिन क्या ‘आप’ समेत किसी भी पार्टी ने अब तक इसके लिए कोई ठोस योजना प्रस्तुत की है? ऐसी कोई योजना जो प्रथमदृष्टया यह स्पष्ट करे कि परिवर्तन का उद्दिष्ट क्या है? क्या होंगे उससे अपेक्षित परिणाम जो जनहित की कसौटी पर पूरा उतर सकें? और क्या उन्हें इस ढंग से लागू किया जाएगा जो देश और समाज को उसके इस संत्रास से मुक्ति दिला सके. आज १८ दिसंबर, २०१३ को जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ उसी समय यह भी सुन रहा हूँ कि संसद ने सरकार के द्वारा प्रस्तुत लोकपाल विधेयक को पारित कर दिया है. अनशन पर बैठे अन्ना ने यह समाचार मिलते ही अपना अनशन समाप्त कर दिया. उनके समर्थकों ने इसे अन्ना की जीत बताते हुए जश्न मनाया. लोकसभा में कांग्रेस की कमान संभालने वाले राहुल गांधी ने इस विधेयक को पारित करने के लिए सदन में दिए अपने भाषण में सभी पार्टियों के सहयोग के लिए अपील की थी. वे इसे उनकी अपनी जीत बताएंगे. भाजपा ने इसे पूर्ण समर्थन दिया इसलिए श्रेय के भागीदार वे भी माने जायेंगे.

अन्ना चिरप्रतीक्षित लोकपाल के पारित हो जाने से संतुष्ट हुए यह तो समझ में आता है, लेकिन कभी अन्ना का दाहिना हाथ रहे और राजनीतिक माध्यम से इसके लिए लड़ने के संकल्प के साथ ‘आम आदमी पार्टी’ का गठन करने वाले अरविन्द केजरीवाल इस लोकपाल विधेयक के पारित हो जाने से असंतुष्ट हैं. दोनों के बीच की खाई का पाट बढ़ा है. व्यक्तित्वों का संघर्ष है यह या कुछ और लेकिन जनसामान्य की नजरें अब यह देखने की प्रतीक्षा में उठेंगी कि पारित लोकपाल विधेयक पर महामहिम राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने के बाद इसके कानून बन जाने पर तत्संबंधी प्रशासनिक व्यवस्था कायम करने के लिए उसे कितना और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी. भ्रष्टाचार से मुक्ति का मार्ग कब खुलेगा? यह तो आने वाला समय ही बताएगा. इस बीच जहाँ तक दिल्लीवासियों के अन्य हितसाधन के लिए एक सक्षम सरकार के गठन का सम्बन्ध है ‘आप’, आप और सिर्फ “आप” ही के फैसले का इंतज़ार है. मेरा यह मानना है कि फ़िलहाल दिल्ली में राष्ट्रपति शासन और नए चुनावों के आयोजन के अतिरिक्त और कोई युक्तियुक्त विकल्प नहीं है. महंगा या सस्ता जैसा भी होगा लेकिन अंतिम निर्णय तो दिल्लीवासियों के ही करने का है.