साम्प्रदायिकता का उत्तर आधुनिक तर्कशास्त्र और मार्क्सवाद

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में जबलपुर के निशांत और उनके कुछ युवा दोस्तों ने अपनी जिज्ञासाएं रखी हैं। वे चाहते हैं उनके साथ सार्वजनिक संवाद किया जाए। प्रस्थान बिंदु के रूप में अभी जो समस्या चल रही है। उसके संदर्भ में उत्तर आधुनिक विचारक ल्योतार के विचारों की रोशनी में कुछ कहना चाहूँगा।

अभी हमारे देश में साम्प्रदायिक शक्तियां आक्रमक मुद्रा में हैं। वे बहुसंख्यक का नारा देकर समूचे समाज को अपहृत करने में लगी हैं। ल्योतार से एक बार पूछा गयाथा कि बहुसंख्यक का क्या अर्थ है? इस पर उसने कहा कि बहुसंख्यक का अर्थ ज्यादा संख्या नहीं ज्यादा भय है। उनके ही शब्दों में ‘मैजोरिटी डज नॉट मीन ग्रेट नम्बर बट ग्रेट फियर’।

न्याय के संदर्भ में यदि कोई फैसला बहुसंख्यक समाज की धार्मिक भावनाओं को केन्द्र में रखकर होता है तो इससे न्याय घायल होता है। इससे मानवीय एकता टूटती है। बहुसंख्यक की भावनाओं के आधार पर किया गया न्याय ऊपर से समग्र लग सकता है लेकिन यथार्थतः इससे मानवता की एकता टूटती है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सामाजिक और मानवीय एकता किसी एक तरह के बयानों से निर्मित नहीं होती। आप भारत में हिन्दुत्ववादी तर्कशास्त्र या संघ परिवार या मुस्लिम तर्कशास्त्र के आधार पर सभी समुदायों के बीच एकता बनाए नहीं रख सकते। इस अर्थ में ही बहुसंख्यक के नाम पर खडा किया जा रहा साम्प्रदायिक तानाबाना अधूरा है और यह सबको समेटने में असमर्थ है।

हिन्दुत्ववादी यह देखने में असमर्थ रहे हैं कि भारत जैसे वैविध्यपूर्ण समाज को किसी एक बयान या एक विचारधारा में नहीं बांध सकता। यह समाज किसी एक विचारधारा में बंधा नहीं है। बल्कि भारत को अनेक विचारधाराएं एकीकृत भाव से बांधे हुए हैं।

सामाजिक बंधनों के तानेबाने को किसी एक भाषा ने भी बांधा हुआ नहीं है। बल्कि विभिन्न भाषाओं के खेल में यह तानाबाना बंधा है। तमाम किस्म के सामाजिक बंधनों को बांधने वाली चीज के रूप में यदि सिर्फ हिन्दू और उसकी हिन्दुत्ववादी विचारधारा को रखेंगे तो इस समाज को तमाम सदइच्छाओं के बावजूद एकसूत्र में बांध नहीं सकते। सामाजिक एकीकरण अनेक किस्म की व्यवहारिक और प्रयोजनमूलक चीजों पर टिका है।

सामाजिक बंधन और राष्ट्रीय एकता का आधार कोई एक थ्योरी या विचारधारा नहीं हो सकती है बल्कि सामान्य लोगों के प्रयोजनमूलक अनुभव ही हैं जो उन्हें सामाजिक बंधनों में बांधते हैं। थ्योरी या विचारधारा आम लोग नहीं जानते।

हिन्दुत्ववादी अपने उन्माद में यह भूल गए हैं कि सामाजिक बंधनों को न्याय या राजनीति या संगठनक्षमता के आधार पर नियमित नहीं किया जा सकता। सामाजिक बंधनों का तानाबाना इनके बाहर ऑपरेट करता है। सामाजिक बंधनों में हम सबकी भूमिकाएं तय हैं और जिनकी अभी तक तय नहीं हो पायी हैं उनकी सामाजिक प्रक्रिया में भूमिकाएं तय हो जाएंगी। लेकिन इसका फैसला लोग अपने प्रयोजनमूलक अनुभवों के आधार पर करेंगे।

एक जमाने में मार्क्सवादियों ने समग्रता की धारणा पर बहुत जोर दिया था। लेकिन अनुभव से पता चला कि समग्रता में सोचने से नुकसान होता है। ल्योतार के शब्दों में हमें राजनीतिक निर्णय समग्रता या एकता के आधार पर नहीं लेने चाहिए बल्कि विविधता और बहुस्तरीयता के आधार पर लेने चाहिए। निर्णय की बहुस्तरीयता को राजनीतिक संरचना में कैसे लागू करें यह प्रश्न इसके बाद आता है। न्याय के आधार पर न्यायपूर्ण ढ़ंग से ही राजनीतिक निर्णय की बहुस्तरीयता और विविधता की रक्षा की जा सकती है।

न्याय और विविधता के बीच में सुसंगत संबंध बनाकर ही सामान्य जीवन में,किसी संगठन में,देश में कनवर्जंस हो सकता है। एकीकरण हो सकता है। हमें सार्वभौमत्व से बचना होगा। सार्वभौमत्व की धारणा के गर्भ से ही समग्रता की धारणा निकली है और हमें इससे बचना चाहिए। विविधता को न्याय और व्यवहार के आधार पर परिभाषित करें, न कि बहुसंख्यकवाद या समग्रता या विचारधारा के आधार पर।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने बाबरी मसजिद विवाद पर जो फैसला सुनाया है वह विविधता विरोधी है। क्योंकि उसमें जजों ने विविधता को न्यायबुद्धि के आधार देखने की कोशिश ही नहीं की बल्कि बहुसंख्यकवाद और आस्था को आधार बनाया है।

‘आजतक’ टीवी चैनल को दिए (1 अक्टूबर 2010) एक साक्षात्कार में सुप्रीम कोर्ट के भू.पू. प्रधानन्यायाधीश जस्टिस अहमदी ने कहा बाबरी मसजिद प्रकरण में लखनऊ बैंच का फैसला न्याय नहीं है। मुकदमा था विवादित जमीन के मालिक के संदर्भ में लेकिन जजमेंट में मालिक की खोज करने में अदालत असफल रही है। जस्टिस अहमदी ने कहा है कि इस फैसले के आधार पर जब डिग्री होगी तो मुसलमानों की एक-तिहाई जमीन किसे दी जाएगी ? क्योंकि सुन्नी वक्फ बोर्ड की पिटीशन को अदालत खारिज कर चुकी है। ऐसी स्थिति में फैसला लागू नहीं हो पाएगा। मालिक का फैसला किए वगैर तीन पक्षों में विवादित जमीन को बांटना फैसला नहीं है। बहुसंख्यकवाद के आधार पर सोचने से किस तरह असफलता हाथ लगती है इसका आदर्श उदाहरण है लखनऊ बैंच का ताजा फैसला।

15 COMMENTS

  1. प्रिय चतुर्द्वेदी जी यद्यपि में साम्प्रदायिकतावादी नहीं हूँ और स्वयं को हिन्दू मानता हूँ वाही हिन्दू जिन्होंने चीन और दक्षिण एशिया में लोगों पर नहीं बल्कि लोगों के दिलों पर राज किया था. यह तभी संभव था जब वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श का अर्थ जिहाद की भांति नहीं बल्कि सभी को अपना परिवार समझो की तरह लिया जाता. यदि प्यार और आग्रह से कोई कार्य किया जाये तो सफलता निश्चित होती है. किसी बहुलतावादी देश के सुचारू सञ्चालन में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और बहुसंख्यक दबाव दोनों ही बाधा है. जब शाहबानो केस में आस्था को आधार मन जा सकता है तो रामजन्म भूमि में क्यूँ नहीं. जस्टिस अहमदी तो न्याय देने में भोपाल कांड में भी चूक गए थे( एंडरसन पर लगे आरोपों को सुप्रीम कोर्ट ने हल्का करदिया था) . न्याय के लिए किसी भी दबाव का न होना ज़रूरी होता है. जहाँ नतक रही बात आस्था की तो आस्था तर्क से परे होती है. गणेश की मूर्तियाँ दूध पीती है तो आस्था की वजह से और लोग मानने पर मजबूर होते हैं आस्था के दबाव की वजह से. जिस प्रकार बहुसंख्यक दबाव एक भय है वैसे ही अल्पसंख्यक दबाव भी एक भय का काम करता है. “ल्योतार” का तर्क यहं फेल हो जाता है. अल्पसंख्यक भी भारत में एक ग्रेट फियर बना हुआ है.

  2. इंजी. दिवास दिनेश गौर जी, आपने तिवारी जी को उनकी भाषा में करारा उतर दे दिया है.
    आपकी बात से एक काम का ऐतिहासिक तथ्य याद आ गया. आपकी ये बात सही है की सारे असभ्य संसार को सभ्य बनाने का काम भारत ने ही किया. मेरे पास इसके अनेकों ऐतिहासिक प्रमाण हैं. आपके तिवारे जी को दिए जवाब के समर्थन में चीन के बारे में बतलाना प्रासंगिक होगा————————–
    अमेरिका में चीन के राजदूत रहे विद्वान ‘हु शीह’ ने लिखा है कि भारत ने एक भी सैनिक भेजे बिना २० शताब्दियों ( २००० साल ) तक चीन पर अपना साम्राज्य जमाये रखा.
    इसके इलावा चीन में आज भी हज़ारों हिन्दू मूर्तियाँ वहाँ के संग्रहालयों में सुरक्षित पडी हैं जो इस बात का प्रमाण हैं कि कभी चीन में भारत की संस्कृति का साम्राज्य रहा है. प्रत्येक चीनी सम्राट अपने जीवन में सबसे महत्व का काम यह करता था कि हिन्दू शास्त्रों, ग्रंथों का अनुवाद चीने भाषा में करवाए.
    भारत के प्रती अस्सीम श्रधा के कारण आज भी चीन में मरने वाले का सर भारत की और करने वाले करोड़ों लोग हैं. उनका विश्वास है कि भारत की ओर सर करके मरने से मोक्ष मिलता है. इतनी श्रधा भारत के प्रती सैंकड़ों- हज़ारों साल में पैदा हुई होगी.
    – हज़ारों चीनी यात्रियों व छात्रों की भारत यात्रा का कारण भारत की उन्नत सभ्यता नहीं तो और क्या था ? पर वामपंथ के अँधेरे से अंधे हुओं को ये सब कहाँ दीखता और कहाँ समझ आता है .
    – कभी चीन अत्यंत दयनीय दशा में था. तब उनकी दुर्दशा से द्रवित भारतीय सन्यासी वहाँ गए और उनके साथ हमारे सभ्यता के अनेक प्रतीक , साहित्य भी वहाँ पहुंचा. ऐसे संतों में एक थे ‘ धर्म पाल’ जिनकी सम्रिती में आज जापान में धर्म पाल विश्व विद्यालय बना है. धर्म पाल जी जैसे अनगिनत संत, सन्यासी, भिक्षु थे जिन्हों ने चीन को जंगली से सभ्य बनाने का पुनीत काम किया .

    • आदरणीय कपूर साहब उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद, आप जैसे अग्रजों की कृपा है…
      आपने अनेकों प्रमाण दे दिए हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि चीन में भारतीय संस्कृती की जड़ें रही हैं साथ ही चीन को उन्नत देश बनाने में भारतीयों का ही हाथ है. इसके अतिरिक्त इंडोनेशिया जो कि वर्तमान में एक मुस्लिम बहुल देश है वहां आज भी बड़े बड़े शहरों में चोराहों पर श्री कृष्ण व अर्जुन रथ पर विराजमान हैं, जिससे यह भी सिद्ध होता है कि ना केवल चीन में अपितु दक्षिण एशिया के कई देशों में भारतीय संस्कृती की जड़ें हैं. अर्थात प्राचीन काल में हम भारतीय इतने उन्नत होने के बाद भी इन वामपंथियों को हमेशा जंगली व हिंसक ही दिखाई देते हैं…

  3. आदरणीय तिवारी जी, आप कृपया पूर्वाग्रह रहित होकर अपनी और अन्यों की टिप्पणियाँ पढ़ लीजिये. शायद आप स्वयं शर्मिन्दा होजाएं. खैर, मेरी शुभ कामनाएं कि आप सरीखे संवेदन शील सज्जन साम्यवाद के कुँए से बाहर निकल कर दुनिया को देख सकें.

  4. Vaampanthiyo ke saare vichaar udanchoo hoo jaate hai jab Bahusankhyak Hindu naahi koi aur dharm ke log hotte hai…Kashmir mai Vaampanthiyo ke sabse layak Marzixt manasputra Sitaram Yechury ekk vightankaari, desh virodhi, Pakitanparast neta se milne pahuch jaate hai….tab bahusankhyakvaad aur Dharamnirpekshta kaha challi jaati hai.

    Bhartiya Marxvaadi to apni shreeni ke sabse nricrisht hai….yeh woh log hai jinhone Srinagar ke Lal Chowk se bharat ko 16 tukdo mai baat denne kaa avaahan kiyya tha, dharm aadhharit Pakistan ka smool ruup se smarthan karne waali ghatiya mansikta se naye ubharte hue yuva bharat ko kya milne waala hai. Nandigram aur Singur mai khooni holi khelne waali mansikta ne waha ke muslamaano ko bhi kya de diyya….bengal ka muslamaan aaj sabse pichda hai….

    Aadalto ke faislo ki avmanna karne mai vaampanthi sabse aage raahe hai aur rahenge….kyoki sach unse hajam naahi hotta…khoone ki holi kehle kar satta mai aane ka swapn dekhne waale….jab prajatantra mai asafal hotte hai to unse iss prakar ke pagalpann ki ummed ho hotti hai. Kripya apni akal lagaye aur nayayplaika ke nirnay ka samman karre.

  5. “साम्प्रदायिकता का उत्तर आधुनिक तर्कशास्त्र और मार्क्सवाद”–by– जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

    चतुर्वेदी जी,

    न्याय प्रक्रिया में, विकल्प में, परस्पर विरोधी प्राथर्ना करना और निर्देश करने का प्रावधान है.

    ऎसी बहस वकीलों-जजों पर छोड़ देना बेह्तर होगा.

  6. भारत में अभी भी प्रागेतिहसिक पाषाण युगीन प्राणी अपनी सम्पूर्ण पैशाचिक बर्बरता के साथ यथावत जिन्दा हैं .पहले मुझे लगा की चतुर्वेदी जी इस संवेदनशील विषय को अनावश्यक तूल दे रहे हैं किन्तु उनके आलेख को ठीक से पढ़े विना ही दे दनादन की तर्ज पर उजबक टिप्पणियाँ देखकर उबकाई आ रही है -चतुर्वेदी जी आप की सहनशीलता और हाजमा गजब का है .लेकिन आप से शिकायत ये है की आप बार -बार बदबूदार बीभत्स नाव्दान पर पत्थर फेंकते हैं तो कीड़े बिलबिलाकर बाहर आ जाते हैं .आपको अपने उच्च स्तरीय विचारों को नाहःक ही इन marajeewdon पर जाया नहीं करना चाहिए .

    • वाह तिवारी जी…कैसी murkhtapoorn बात कह दी aapne. आपने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि भारत में अभी भी प्रागेतिहसिक पाषाण युगीन प्राणी अपनी सम्पूर्ण पैशाचिक बर्बरता के साथ यथावत जिन्दा हैं. अब आप एक बात बताइये कि आपमें ज्ञान की कमी है या बुद्धी की? क्योंकि इन दो कारणों ke अलावा केवल एक ही सूरत में एक भारतीय यह बात कह सकता है जब कहने वाला देश द्रोही हो. अब आप निर्णय करें कि आप कौनसे कारण को अपने ऊपर laagu करना चाहेंगे…
      आपके हिसाब से तो भारत हमेशा से जंगलियों का ही देश रहा है, और हम भारतीय आज भी शायद जंगली ही hain आपकी नज़र में. तिवारी जी आपको ज्ञात होना चाहिए की सभ्यता बनाने वाला सबसे पहला देश भारत ही है न कि आपका प्यारा चून्धी आँखों वाला देश चीन. यहाँ पर saaf दिख रहा है कि आपने यह टिप्पणी किसके लिए kahi है, डॉ राजेश कपूर जी ने १००% सही लिखा है… आपमें शायद उसे समझने की बुद्धी न हो. आप मुझे कोई इक उदाहरण गिना दीजिये जब आपके हिसाब से साम्प्रदायिक हिन्दू संगठनो ने मुस्लिम या ईसाई भाइयों के अधिकारों का हनन किया हो, या उन पर हिंसात्मक प्रहार किया हो, या देश के किसी भाग से उनकी संख्या ही समाप्त कर दी हो, या उन्हें अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह रहने को विवश कर दिया हो… हम यदि साम्प्रदातिक होते तो कब का कश्मीर खाली करवा लिया होता आपके प्यारे पाक बंधुओं से, किन्तु यदि हम कश्मीरी पंडितों के अधिकार का जिक्र भी छेड़ दें तो हम साप्रदातिक हो जाते हैं और वो हमें hamaare राष्ट्र में sharnaarthi बनाकर भी आपके प्रिय हैं.
      तिवारी जी आपमें इतनी ही धर्मनिरपेक्षता भरी पड़ी है तो जाकर इसे पाकिस्तान में फैलाइये न आपको उत्तर मिल जाएगा कि कौन साम्प्रदायिक है और कौन धर्मनिरपेक्ष. अब ये मत कहना की पाकिस्तान आपका देश नहीं है इसलिए आप वहां नहीं जाएंगे, क्यों कि जब आप भारत में रहकर भी विदेशी क्रांतिकारियों के विचार हम पर थोपने का दुस्साहस आप कर सकते हैं तो वहां भी कर दीजिये न, वहां के अल्पसंख्यक हिन्दुओं का कुछ भला हो जाएगा…

  7. डा. चतुर्वेदी जी ने एक बार फिर से साबित कर दिया की वे यानी वामपंथी हिन्दू समाज के अंध विरोधी हैं. वामपंथी पूर्वाग्रहों से ग्रसित इनसान किसप्रकार अंधा जाता है, इसका एक उदहारण उपरोक्त लेख है———–
    – ऐतिहासिक तथ्यों का गहराई से अध्ययन करने के बाद न्यायालय द्वारा दिए निर्णय को बहुमत के दबाव में दिया निर्णय बतलाकर डा. चतुर्वेदी जी ने साबित कर दिया है कि उनकी नज़र में सच केवल वह है जो हिन्दू समाज के खिलाफ हो. दस हज़ार पृष्ठों का निर्णय इन महोदय की नज़र में केवल इस लिए गलत है कि वह राम मंदिर के अस्तित्व व राम जी के अधिकार को स्वीकार करता है. यदि यह निर्णय बाबरी मस्जिद के पक्ष में आता तो वही इनकी पसंद का होता. पर सौभाग्य से कोई समाजवादी या वमपंथी न्यायधीश नहीं था और न ही देश में मार्क्सवादियों का शासन भारत के सौभाग्य से स्थापित हुआ है. वरना रूस की तरह अपने से असहमत कुछ करोड़ को बुर्जुआ कह कर कभी का मार चुके होते.
    – ६-७ दशकों तक अल्प संख्यकों के हित के नाम पर हिन्दू समाज के खिलाफ काम करने वाले ‘ल्योतार’ का तर्क शास्त्र ढूँढ़ लाये कि बहुसंख्यकों के मत का ध्यान रखकर निर्णय नहीं होने चाहियें. स्पष्ट ही कह देते कि कोई भी निर्णय हिदू समाज के हित में नहीं होने चाहियें. मैं बात को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कह रहा हूँ. इन वाम मार्गियों के शासन में बंगाल में हिदू समाज पर कितना अत्याचार, कितना अन्याय हुआ, इसके हजारों उदहारण हैं. पूरे भारत में वही सब न कर पाने का इन्हें बड़ा कष्ट है.
    -दिन-रात हिदू समाज को गरियाने वाले इन वाम पंथ के कूप मडूको से पूछना है कि भारत का सर्वधर्म समभाव किसकी देन है ? सारे संसार पर दृष्टी दौडाने के बाद कोई भी साधारण बुद्धी का व्यक्ती मान लेगा कि यह भारत के हिन्दू समाज की विशेषता है. भारत का सर्वधर्म समभाव केवल हिन्दू समाज के कारण है. यदि ऐसा न होता तो हमारे चतुर्वेदी जी और इन जैसे कभी के फतवों की बलि चढ़ चुके होते. हमारी यह विशेषता रूस,चीन, अरब, इटली या अमेरिका से आयातीत नहीं है. यह बात इन सज्जनों को नज़र आती है ?
    डा.चतुर्वेदी जी भारत की जो विशेषताएं आप गिना रहे हैं, वे सब तो हिन्दू समाज की विशेषताएं हैं. पर यह बात तो आप को हज़म होनी बड़ी मुश्किल है. पर सच तो यही है.
    – चतुर्वेदी जी कहते हैं कि अभी सांप्रदायिक शक्तियां आक्रामक मुद्रा में हैं. उनका इशारा जिहादी आतंकवाद की और नहीं, हिन्दुओं की ओर ही है. केरल और बंगाल के प्रमाण हमारे सामने हैं. वहाँ इस्लामी व ईसाई आतंकवाद को इन लोगों ने कभी भी आतंकवादी नहीं माना, उलटा उन्हें सहयोग दिया और उनका सहयोग लिया तथा निरीह हिन्दुओं व उनके धर्म स्थलों की दुर्दशा की.
    * तो आदरणीय चतुर्वेदी जी निवेदन यह है कि मैं और मेरे जैसे तो स्वभाव से ही सदा समन्वय, स्नेह, प्रेम के स्वभाव में रहने वाले रहे हैं. हमारी आक्रामकता तो आप जैसे सज्जनों की कृपाओं के देन है. पर अभी तक यह आक्रामकता केवल शब्दों तक ही सीमित है. कृपा करें कि हिदू समाज को और अधिक अपमानित, प्रताड़ित करके उन्हें अपने शत्रुओं जैसा हिंसक बनने पर बाध्य न करें, इसी में हम सब की भलाई है.
    – महोदय शताब्दियों का इतिहास गवाह है कि हिन्दू समाज कभी भी आक्रामक नहीं रहा. पर हर बात की एक सीमा होती है. मेरा आप सरीखों से पुनः विनम्र निवेदन है कि उसके धैर्य की परिक्षा न लें और उसकी भावनाओं, आस्थाओं, मान्यताओं का अपमान व धोखे से किये जाने वाला विनाश बंद करें.
    * ईश्वर आप सरीखों को सत्य को समझने की सद्बुधी प्रदान करे और आपकी प्रतिभा मानव कल्याण के सत्कार्य में लगे ; इन्हीं कामनाओं सहित सादर, सप्रेम, आपका शुभाकांक्षी.

  8. चतुर्वेदी साहब क्षमा करे आपने अत्यधिक क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग किया है और एक ही प्रकार के विचार और आशय को बार बार उल्लेख किया है. शायद एक लाइन काफी थी इस लेख की जगह. आप पुनः सेकुलर समझ को आगे बढ़ने लगे. आपको नास्तिक जैसा पेश आना चाहिए. क्योंकि वामपंथ में धर्म के लिए कोई जगह नहीं है.
    जस्टिस अहमदी जैसे लोग कब से न्याय की मूर्ति बन गए. आपने जस्टिस वी एन खरे जैसे लोगों के विचार नहीं देखा लगता है? अहमदी पाखंडी इंसान है. इसने भोपाल गैस कांड में लाशों पर न्याय की राजनीती की है. ऐसे असभ्य व्यक्ति को कोट करना आपको शोभा नहीं देता. क्या इसने १९९६ में गैस कांड में संलिप्त लोगों पर गैर इरादतन हत्या जैसा मामूली धरा नहीं लगाया था? और रिटायरमेंट के बाद क्या उसने गैस राहत संसथान में प्रमुख का पद नहीं धारण किया था? भोपाल में सबसे ज्यादा गैस प्रभावित लोग मुसलमान थे और अहमदी मुसलमान होकर भी उनके साथ गद्दारी किया था आज मस्जिद की सुध आने लगी.

  9. आपने कहा, “न्याय के संदर्भ में यदि कोई फैसला बहुसंख्यक समाज की धार्मिक भावनाओं को केन्द्र में रखकर होता है तो इससे न्याय घायल होता है, जजों ने विविधता को न्यायबुद्धि के आधार देखने की कोशिश ही नहीं की बल्कि बहुसंख्यकवाद और आस्था को आधार बनाया है।” पुरातत्व विभाग को खुदाई में जो अवशेष मिले, मंदिर के अवशेषों से कथित मस्जिद बनी, इन साक्ष्यों के आधार पर लिए निर्णय को कैसे “बहुसंख्यक समाज की धार्मिक भावनाओं को केन्द्र में रखकर” लिया गया निर्णय बता दिया ? कथित अल्पसंख्यकों में न्यायपालिका के प्रति अविश्वास पैदा करने की घृणित राष्ट्रविरोधी चाल कैसे बेखटके चलते हो? बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक शब्द हिन्दू समाज की व्यापक सोच से नहीं कोम नष्टकों के कुचक्र का परिणाम है तथा इसके बाद ही दोनों में दूरियां बदने लगी,यह लेख भी न्याय में अविश्वास पैदाकर असंतोष बढाएगा । क्या ऐसे लेख और उनका समर्थन, प्रवक्ता की गरिमा के अनुरूप हैं?

  10. आपने कहा, ल्योतार के शब्दों में ‘मैजोरिटी डज नॉट मीन ग्रेट नम्बर बट ग्रेट फियर’। जिसका नाम आपने लिया उसने भारत नहीं देखा, अपने देश के हाल पर उसने जो कहा आपने भारत देश पर लागू कर दिया ? भारत में ऐसा होता तो घुसपैठियों की संख्या करोड़ों में नहीं होती, भय होता तो तुझ जैसे देश द्रोही नहीं होते। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश की धर्म संस्कृति को गाली देने का साहस, उस पर जन अभिव्यक्ति के साधनों का दुरूपयोग करने की छूट हमारी सज्जनता के कारण ही है, भय होता तो क्या इतना भोंकने का किसी अन्य देश में संभव है? कहीं अमेरिका में रहकर भोंकते तो आनेवाली कई पीड़ियाँ गंजी पैदा होती, यहाँ तो जिनको गाली दी जा रही है वो अपने ही देश के भाग कश्मीर से भगा दिए गए, तुम गूंगे बने रहे, क्या भय इसे नहीं कहते हैं? इतना अवश्य बता देना कि आतंकी को पीड़ित, पीड़ित को शोषित बताना बिकाऊ है, भय है अथवा पैत्रिक खून का दोष? ऐसों पर एक कविता लिखी है , शर्मनिरपेक्षता 5 पेरा कि है सुन कर देश से भाग तो नहीं जाओगे?

  11. इसमें किसी को भी संदेह नहीं की आपके तत्सम्बन्धी न्यायिक विश्लेषण में सच्चाई है .किन्तु यह पीड़ित पक्ष को ९० दिन की निर्धारित अवधि में तथाकथित निरपेक्ष न्याय पाने के लिए उच्चतम न्यायलय में वाद प्रस्तुती का भरपूर अवसर प्रदान करता है .हो सकता है की जमीनी हकीकत और एतिहासिक द्वंदाताम्क की समझ रखने वाले सहिष्णु लोग -जो की दोनों -तीनो पक्षों को represent करते हैं ,शायद किसी खूबसूरत अंजाम तक जा पहुंचे .जैसा की अभी के दौर में एक राष्ट्रीय स्वर सुनने में आया है .

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