गरीबी और मजाक

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 राजीव गुप्ता

आज़ादी के इतने वर्षो बाद भी गरीबी और मजाक एक दूसरे का पर्याय बने हुए है अगर ऐसा मान लिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी ! कम से कम वर्तमान सरकार के रूख से तो ऐसे ही लगता है ! पहले गलती करना फिर तथ्यों के साथ खिलवाड़ कर तथा उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करना और जब समाज के हर तबके में थू – थू होने लगे तो लीपापोती कर समस्या के प्रति गभीर होने का दावा कर जनता को गुमराह करने का दु:साहस करना, यह वर्तमान सरकार की फितरत बन गयी है ! मामले चाहे भ्रष्टाचार का हो अथवा योजना आयोग का जिसने अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर गरीबी रेखा का निर्धारण करने की नाकाम कोशिश की जो कि वर्तमान सरकार के गले हड्डी की फांस बन गयी ! योजना आयोग की यह दलील कि शहरी इलाके में 32 रुपये और ग्रामीण इलाके में 26 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है , गले नहीं उतरती परन्तु यह काला सच जरूर साबित हो गया कि जो लोग ए.सी की हवादार बंद कमरे योजनाये बनाते है उनका वास्तविकता से कोई सरोकार ठीक उसी प्रकार नहीं है जैसे कि जब फ़्रांस में एक समय भुखमरी आई और लोग भूखे मरने लगे तो वहां की महारानी “मेरी एंटोयनेट” ने कहा कि अगर ब्रेड नहीं है तो ये लोग केक क्यों नहीं खाते ?

शहरी इलाके में 32 रुपये और ग्रामीण इलाके में 26 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है असल में मुद्दा ये नहीं है ! आजादी के समय भारत की जनसँख्या लगभग 33 करोड़ थी परन्तु आज लगभग 41 करोड़ लोग रोजाना 26 रुपये से कम पर जीते है अगर इन्हें भुखमरी रेखा की श्रेणी में रखा जाय तो कोई हर्ज नहीं होगा ! ये संख्या चीन , वियतनाम जैसे देशो की तरह कम क्यों नहीं हो रही है ? पानी आपे से बाहर जा चुका है अब कहा पर कंट्रोल लाइन खीचना है असल मुद्दा तो यह है ! यह मामला संज्ञान में तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली कमेटी के अनुसार 2011 के मूल्य सूचकांक को देखते हुए यह कहा कि 20 और 15 रुपये में 2100 कलोरी प्राप्त करना असंभव है ! जहा एक तरफ तेंदुलकर कमेटी ने देश की कुल आबादी के 37 प्रतिशत लोगो को गरीबी रेखा से नीचे माना है तो वही दूसरी तरफ एन सी सक्सेना कमेटी ( ग्रामीण विकास मंत्रालय ) ने देश की 50 प्रतिशत जनसँख्या को गरीबी रेखा से नीचे माना है ! दरअसल ये आकड़ो की बाजीगरी के पीछे सरकार की किसी साजिश की बू आ रही है क्योंकि वर्ल्ड बैंक का सरकार पर सब्सिडी कम करने का लगातार डंडा चल रहा है !

इस गंभीर समस्या पर राष्ट्र-व्यापी चिंतन नितांत आवश्यक है न कि किसी हमदर्दी या नैतिक चिंतन का क्योकि यह मुद्दा सीधे – सीधे जनता , शासन – प्रशासन से जुड़ा है ! राष्ट्रीय सलाहकार समिति के एक सदस्य के अनुसार , देश में व्याप्त सुरसा रूपी भ्रष्टाचार अपना पैर जमा चुका है ! सरकारी आंकड़े नैतिकता के मुंह पर तमाचा मारते है ! नोयडा का एक फ़ूड माफिया ‘ रेडी टू ईट ‘ फ़ूड पैकेट 25 से 40 पैसे में तैयार करता है और उसे उत्तर प्रदेश की सरकार 4-5 रुपये में खरीदती है ! यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश की घोर अवमानना है ! मानदंड यह है कि बच्चों को पकाया हुआ खाना मिलना चाहिए और उसमे कम से कम 300 कैलोरी होनी चाहिए ! जबकि इस फ़ूड पैकेट में मात्र 100 कैलोरी ही होती है !

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री , श्री जयराम रमेश के तर्क के अनुसार उनके मंत्रालय द्वारा एक लाख करोड़ रुपये की भरी भरकम राशि खर्च की जाती है जिसमे से मात्र नौ फीसदी अर्थात मात्र नौ हजार करोड़ रूपया बी.पी.एल के हिस्से में जाता है ! शहरो में तो ये हिस्सेदारी और भी कम होकर मात्र पांच प्रतिशत ही बैठती है ! वो आगे कहते है कि राज्यों के बीच भी बी.पी.एल को लेकर वितरण ठीक नहीं है ! मसलन केरल में जहा एक तरफ महज तीन फीसदी बी.पी.एल है और उन्हें दस फीसदी खाद्य सब्सिडी मिलती है तो वही दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में जहा लगभग देश के अट्ठारह फीसदी से भी ज्यादा लोग बी.पी.एल की कैटेगरी में आते है वहां भी उन्हें केरल के बराबर ही मात्र दस फीसदी खाद्य सब्सिडी मिलती है !

आने वाले समय में जहां एक तरफ विकसित देश होने का दंभ भरते है और दूसरी तरफ गरीबी की भयावह तस्वीर से भी रू-ब-रू होते है ! दोनों चीजें एक साथ कैसे हो सकती है मेरी समझ से परे है ? हाँ ऐसा जरूर माना जा सकता है कि गरीब दिन प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है और अमीर दिन प्रतिदिन और अमीर ! लेकिन आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हम इस कलंक से मुक्त क्यों नहीं हो पाए ? हमें स्कूल में पढाया जाता था कि भारत एक कृषि प्रधान देश है परन्तु आज किसान गरीबी के कारण आत्महत्या करते है और किसी के कानो पर जूं तक नहीं रेगती ! क्या हम धन-लोलुपता में इतने स्वार्थी और आत्म-केन्द्रित हो गए है ? वर्तमान समय में अगर गरीबी उन्मूलन को निजी क्षेत्रों के हाथ में दिया जाय तो वो गरीब से भी ज्यादा मुनाफा कमाएगा और सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार के बिना कुछ करेगा नहीं ! मूल प्रश्न वही का वही रहा कि भला आम गरीब आदमी जाये तो जाये कहाँ ? मुझे लगता है अगर सरदार पटेल भारत के पहले प्रधान मंत्री बनते तो शायद आज भारत का दृश्य वर्तमान से कही अच्छा होता क्योंकि वो जमीन से जुड़े थे और देश के नब्ज पर पकड़ रखते थे ! हलाकि बाद में लाल बहादुर शास्त्री जी ने “जय जवान जय किसान” का नारा देकर कुछ गलतियाँ सुधारने के कोशिश जरूर की ! आज़ादी के बाद ग्रामीण भारत के विकास से भारत को आत्मनिर्भर बनाया गया होता तो शायद आज एक राज्य से दूसरे राज्य में जीविका के लिए लोगों को नहीं जाना पड़ता ! अब समय आ गया है कि राजनेताओ के अतीत के गलतियों से सबक लेकर उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाय ! वर्तमान में स्व. नाना जी देशमुख का चित्रकूट प्रोजेक्ट तथा पूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का ” पूरा ” नामक विचार सहयोगी हो सकता है ! नहीं तो आने वाले कुछ दिनों में गरीब की बात करना अर्थात मजाक करना बन जायेगा !

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  1. श्री राजीव गुप्त ने वर्तमान सरकार द्वारा गरीबों के गरीबी का मजाक बनाने विश्लेषण तोकिया है,पर वे एक बात भूल गए हैंकि यह मजाक किसी न किसी रूप में शुरू से होता रहा है.और जब तक भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगेगा,इसी तरह की चाल बाजियां चलती रहेगी और गरीबी दूर करने के नाम पर ग़रीबों का मजाक उड़ाया जाता रहेगा.यह भी सही है की जब तक विकास को गाँव से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक गरीबी का उन्मूलन सम्भव ही नहीं है.हमारी विडम्बना यह रही है न तो पंडित नेहरू और डाक्टर आंबेडकर और नहीं उनके उतराधिकारियों ने इस बात को समझा और न समझने की कोशिश की सरदार पटेल आते तो शायद बात कुछ अलग होती या लाल बहादुर शास्त्री ही ही ज्यादा दिन दिन ज़िंदा रहते तो शायद बात बनती पर ऐसा तो हुआ नहीं .अब उसका दुखड़ा रोने से से भी कोई लाभ नहीं..अब तो जरूरत है भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की और की और विकास कारूख गाँवों के तरफ मोड़ने की,पर यह तो भविष्य ही बतायेगा की की ये विदेशों की नक़ल करने वाले अर्थशास्त्री इसको कर पाते हैं या नहीं.

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