चुनावी रथ में सवार दलों की सत्ताकांक्षा

0
191

-ः ललित गर्ग :-

आजादी के अमृतकाल के पहले लोकसभा चुनाव की आहट अब साफ-साफ सुनाई देे रही है। भारत के सभी राजनीतिक दल अब पूरी तरह चुनावी मुद्रा में आ गये हैं और प्रत्येक प्रमुख राजनैतिक दल इसी के अनुरूप बिछ रही चुनावी बिसात में अपनी गोटियां सजाने में लगे दिखाई पड़ने लगे हैं। 2024 लोकसभा एवं इसी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए सभी राजनीतिक दलों ने कमर कस ली है, वह पहली बार देखने को मिल रहा है की चुनाव के इतने लम्बे समय पूर्व ही चुनाव जैसी तैयारियां होती हुई दिख रही है। टुकड़े-टुकड़े बिखरे कुछ दल फेवीकॉल लगाकर एक हो रहे हैं। विरोधी विचारधारा के दलों के साथ ग्रुप फोटो खिंचा रहे हैं। सत्ता तक पहुँचने के लिए कुछ दल परिवर्तन को आकर्षण व आवश्यकता बता रहे हैं। कुछ प्रमुख दलों के नेता स्वयं को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देख रहे हैं। मतदाता जहां ज्यादा जागरूक हुआ है, वहां राजनीतिज्ञ भी ज्यादा समझदार एवं चालाक हुए हैं। उन्होंने जिस प्रकार चुनावी शतरंज पर काले-सफेद मोहरें बिछाने शुरु कर दिये हैं, उससे मतदाता भी उलझा हुआ प्रतीत करेगा। अपने हित की पात्रता नहीं मिल रही है। कौन ले जाएगा देश की डेढ़ अरब जनता को आजादी के अमृतकाल में। सभी नंगे खड़े हैं, मतदाता किसको कपड़े पहनाएगा, यह एक दिन के राजा पर निर्भर करता है। सभी इस एक दिन के राजा को लुभाने में जुटे हैं। कोई मुफ्तखोरी की राजनीति का सहारा लेकर चुनाव जीतने की कोशिश करने में जुटा है तो कोई गठबंधन को आधार बनाकर चुनाव जीतने के सपने देख रहा है।
विपक्षी दल येन-केन-प्रकारेण भाजपा को सत्ता से बाहर करने में जुटे हैं, इसके लिये विपक्षी दलों में एकजुटता के प्रयास हो रहे हैं। भाजपा एवं उसके सहयोगी दल भी अपनी स्थिति को मजबूती देते हुए पुनः सत्ता में आने के तमाम प्रयास कर रहे हैं। इसके लिये एनडीए ने भी नए साथियों की तलाश तेज कर दी है। केंद्रीय गृहमंत्री और पूर्व बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की हाल में हुई तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की यात्रा से इसके पक्के संकेत मिले। भाजपा लंबे समय से दक्षिण भारत में अपनी जमीन मजबूत करने की कोशिश कर रही है। 2024 लोकसभा चुनाव के लिए भी उसने इस सिलसिले में तैयारियां शुरू कर दी हैं। उत्तर भारत में वह पिछले लोकसभा चुनाव में जितना चमत्कारी प्रदर्शन किया गया कि इस बार उसे दोहराना उसके लिये जटिल प्रतीत हो रहा है। इसलिए अगर उसे फिर से बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आना है तो दक्षिण में सीटें बढ़ानी होंगी। इससे उत्तर भारत में सीटों की संख्या में संभावित कमी की भरपाई हो जाएगी। भाजपा इस योजना पर पूर्ण आत्मविश्वास एवं प्रखरता के साथ बढ़ भी रही थी, लेकिन कर्नाटक विधानसभा चुनावों से उसे झटका लगा। इसके बाद से कहा जा रहा है कि भाजपा पहले जितनी ताकतवर नहीं रही। लेकिन भाजपा की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह अपनी हार के कारणों को बड़ी गहराई से लेते हुए उन कारणों को समझने एवं हार को जीत में बदलने के गणित को बिठाने में माहिर है।
आम चुनाव की सरगर्मियां उग्रता पर है, इस बार का चुनाव काफी दिलचस्प एवं चुनौतीपूर्ण होने वाला है। कांग्रेस ने कर्नाटक की जीत को आम चुनाव की जीत से जोड़ने की जल्दबाजी दिखाना शुरु कर दिया है। जिस तरह हिमाचल एवं कर्नाटक में उसने मुफ्तखोरी की राजनीति का सहारा लिया, उसे वह इसी वर्ष होने वाले विभिन्न राज्यों के विधानसभा एवं वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में दोहराने को तत्पर है। इसका ताजा प्रमाण है जबलपुर में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की यह घोषणा कि यदि राज्य में उनकी सरकार बनी तो सौ यूनिट बिजली मुफ्त दी जाएगी, रसोई गैस सिलेंडर पांच सौ रुपये में दिया जाएगा और महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये दिए जाएंगे। इसके अलावा उन्होंने किसानों का कर्ज माफ करने और पुरानी पेंशन योजना लागू करने का भी वादा किया। उन्होंने इसे पांच गारंटी की संज्ञा दी। कुछ इसी तरह की गारंटियां कर्नाटक एवं हिमाचल में दी गयी थी, उन्हें पूरा करने के लिए दोनों ही प्रांतों की चुनी सरकारों को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है, क्योंकि राज्य की वित्तीय स्थिति उन्हें पूरा करने की अनुमति नहीं देती। जैसी गारंटियां, लोकलुभावन वादे एवं मुक्त की रेवड़ियां कांग्रेस देने की बात कर रही है, वैसी ही अन्य दल भी कर रहे हैं, जिनमें आम आदमी पार्टी का सर्वे-सर्वा है। क्योंकि अभी हाल में दिल्ली नगर निगम चुनाव में उसने दस गारंटियां दी थीं। ये गारंटियां और कुछ नहीं लोकलुभावन वादे ही होते हैं, जिन्हें जनकल्याण का नाम दिया जा रहा है। मध्य प्रदेश में मुख्यमन्त्री श्री शिवराज सिंह चौहान एवं राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत ने चुनाव से छह महीने पहले ही लोक कल्याणकारी योजनाओं की झड़ी लगा रखी है जिससे राज्य का चुनावी माहौल और गर्मा रहा है।
किसी भी राष्ट्र के जीवन में चुनाव सबसे महत्त्वपूर्ण घटना होती है। यह एक यज्ञ होता है। लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत पैर होता है। राष्ट्र के प्रत्येक वयस्क के संविधान प्रदत्त पवित्र मताधिकार प्रयोग का एक दिन। सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं बैठता अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाकर नायक चुनती है। लेकिन जनता तिलक किसको लगाये, इसके लिये सब तरह के साम-दाम-दंड अपनाये जा रहे हैं। हर राजनीतिक दल अपने लोकलुभावन वायदों एवं घोषणाओं को ही गीता का सार व नीम की पत्ती बता रहे हैं, जो सब समस्याएं मिटा देगी तथा सब रोगों की दवा है। लेकिन ऐसा होता तो आजादी के अमृतकाल तक पहुंच जाने के बाद भी देश गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य समस्याओं से नहीं जुझता दिखाई देता। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आंख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि ”अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।“
लोकसभा चुनाव केवल दलों के भाग्य का ही निर्णय नहीं करेगा, बल्कि उद्योग, व्यापार, रक्षा आदि राष्ट्रीय नीतियों, राष्ट्रीय एकता, स्व-संस्कृति, स्व-पहचान तथा राष्ट्र की पूरी जीवन शैली व भाईचारे की संस्कृति को प्रभावित करेगा। वैसे तो हर चुनाव में वर्ग जाति का आधार रहता है, पर इस बार वर्ग, जाति, धर्म व क्षेत्रीयता व्यापक रूप से उभर कर आती हुई दिखाई दे रही है। और दलों के आधार पर गठबंधन भी एक प्रदेश में और दूसरे प्रदेश में बदले हुए हैं। एक प्रांत में सहयोगी वही दूसरे प्रांत में विरोधी है। कुर्सी ने सिद्धांत और स्वार्थ के बीच की भेद-रेखा को मिटा दिया गया है। चुनावों का नतीजा अभी लोगों के दिमागों में है। मतपेटियां क्या राज खोलेंगी, यह समय के गर्भ में है। पर एक संदेश इस चुनाव से मिलेगा कि अधिकार प्राप्त एक ही व्यक्ति अगर ठान ले तो अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी आदि समस्याओं पर नकेल डाली जा सकती है। लेकिन देश बनाने एवं विकास की ओर अग्रसर करने की बजाय सभी दल मुक्त रेवडियां बांट कर एक अकर्मण्य पीढ़ी को गढ़ने की कुचेष्टा कर रहे हैं, कई बार तो ऐसी घोषणाएं भी कर दी जाती हैं, जिन्हें पूरा करना संभव नहीं होता। उन्हें या तो आधे-अधूरे ढंग से पूरा किया जाता है या देर से अथवा उनके लिए धन का प्रबंध जनता के पैसों से ही किया जाता है। उदाहरणस्वरूप कर्नाटक सरकार ने दो सौ यूनिट बिजली मुफ्त देने के वादे को पूरा करने के लिए बिजली महंगी कर दी। इसी तरह पंजाब सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर वैट बढ़ा दिया। चुनाव जीतने के लिए वित्तीय स्थिति की अनदेखी कर लोकलुभावन वादे करना अर्थव्यवस्था के साथ खुला खिलवाड़ है। इस पर रोक नहीं लगी तो इसके दुष्परिणाम जनता को ही भुगतने पड़ेंगे। जो चुनाव सशक्त एवं आदर्श शासक नायक के चयन का माध्यम होता है, उससे अगर नकारा, ठग एवं अलोकतांत्रिक नेताओं का चयन होता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं देश की विडम्बना है। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here