विविधा

कर्तव्य प्रधान भारत का राष्ट्रधर्म

– हृदयनारायण दीक्षित

संस्कृत लोकमंगल अभीप्सु भाषा है। कण-कण में एकत्व की बोली है। यह देवत्व और दिव्यत्व की अनुभूति वाणी है। भारत का प्राचीन दर्शन, विज्ञान, इतिहास, काव्य और गीत संस्कृत में ही उगा। लेकिन अंग्रेजी अमेरिकी सभ्यता के मानसिक गुलाम संस्कृत को मृत भाषा कहते हैं। पीछे सप्ताह संस्कृत प्रेमियों ने यू.पी. की राजधानी लखनऊ में एक प्रीतिकर राष्ट्रीय संगोष्ठी की। विषय था ”संस्कृत वाड्.मय” में मानवाधिकार। गोष्ठी में संस्कृत और संस्कृति की परंपरा के अनुसार विपरीत मत भी आये। विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विचारों की लेखा भी वितरित हुई। विद्वतजनों ने वेदों से लेकर परवर्ती साहित्य तक के संस्कृति साहित्य में ‘मानवाधिकार’ खोजने का दिलचस्प प्रयास किया है पर संस्कृत के प्रकांड विद्वान राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के अध्यक्ष डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी ने वामपंथी शैली में संस्कृत साहित्य को मानवाधिकारों से पृथक बताया उन्होंने कई ग्रंथों के उध्दरणों को लगभग अमानवीय भी कहा। एक दूसरे विद्वान उच्च पदस्थ अधिकारी अवनीश अवस्थी ने मानवाधिकार की पूरी कल्पना को विदेशी बताया। उन्होंने विषय को ठीक पकड़ा। उनकी आवाज परिशुध्द सांस्कृतिक भी थी।

प्रश्न है कि दुनिया में मानवाधिकार का विषय आखिरकार कहा से आया? क्या बाइबिल या कुरान में मानवाधिकारों की कोई कल्पना है? मानवाधिकार का विषय दरअसल दूसरे विश्वयुध्द की विभीषिका से उठा। विश्वयुध्द में मानवीय अस्मिता, गरिमा और महिमा को चोट पहुंची थी। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मानवीय गरिमा के प्रश्न को महत्ता दी। 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा हुई। मानवाधिकार भारतीय संकल्पना नहीं है। भारत के इतिहास में मानवीय गरिमा को कुचलने का पश्चिम जैसा असभ्य और दूसरा दुर्दांत उदाहरण नहीं मिलता। समूचा संस्कृत साहित्य, वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, पुराण और अर्थशास्त्र, योगसूत्र, नाट्यशास्त्र सबके सब मनुष्य को ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना बताते हैं। भौतिकवादी चाहें तो ईश्वर की जगह प्रकृति रख सकते हैं। तुलसीदास की चौपाई है – नर समान नहि कौनिऊ देहीं। भारतीय अनुभूति में नर ही चेतना के सर्वोच्च शिखर पर नारायण बनता है। परवर्ती काल का शूद्र वर्ण भी ऋग्वैदिक काल में पृथक सत्ता नहीं है। वैदिक काल में मानवाधिकारों की कोई आवश्यकता नहीं थी। समाज में समता थी, समरसता थी, प्रीति थी, नेह थे, स्नेह थे। विपरीत मत का आदर था। ऋग्वेद में ढेर सारे विचार हैं।

पश्चिम और पूरब की सांस्कृतिक अनुभूतियों में भारी अंतर है। पश्चिम में ‘परिवार’ नाम की संस्था समिति या एन.जी.ओ. जैसी है। स्वाभाविक ही परिवार के सदस्यों के कतिपय अधिकार भी हैं। भारत में ‘परिवार’ नाम की संस्था दंपति (पति-पत्नी) का विकास है। पुत्र अपने माँ-पिता का ही प्रवाह है, वे परिवार के साधारण सदस्य नहीं है। वे मां-पिता का अविभाज्य अंग है, बेशक वे इकाई है लेकिन इस इकाई का व्यक्तित्व मां-पिता का प्रवाह है। बहू बाहर से आती है। दूसरे परिवार की है। लेकिन ऋग्वेद के ऋषियों के अनुसार देवता ही उसे पितृकुल से मुक्त करते हैं और पति पक्ष से युक्त करते हैं। इस तरह वह भी इस परिवार की अंगीभूत है, उसे आशीष मिला है – साम्राज्ञी श्वसरोभव। वह सासु-ससुर, ननद-देवर पर सम्राट है। माता-पिता यहां देवता हैं। तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया – मातृ देवो भव, पितृ देवो भव। पिता वैसा ही संरक्षक है जैसे देवता। ऋग्वेद के ऋषि देवों से स्तुति करते हैं, हे देवो! आप हमें वैसे ही गोद में लेंवे जैसे पिता-पुत्र को। यहां पिता प्रथमा है और देव द्वितीया। ऋषि देवों से भी पिता जैसा आचरण चाहते हैं, जाहिर है कि पिता का आचरण श्रेष्ठ है। गीता का अर्जुन विराट रूप देखता है और त्वमेव माता च पिता कहता है। क्या ऐसे माता-पिता और पुत्रों के बीच ‘मानवाधिकार’ की कहीं कोई गुंजाइश बचती है? प्राचीन शासन प्रणाली में राजा और प्रजा के रिश्ते भी ऐसे ही हैं। प्रजा का अर्थ विशेष पुत्र होता है। प्रजा असाधारण पुत्र है। राजा प्रजा का पालन विशेष पुत्र की तरह करने को बाध्य है। यही राजधर्म था। जो राजा प्रजा का समुचित पालन नहीं करते थे वे सत्ता के अयोग्य थे। कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ ऐसे राजाओं की अच्छी खबर लेता है। तुलसीदास तो ऐसे राजा को नर्क की सजा सुनाते हैं – ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी/सो नर अवसि नरक अधिकारी।’ यूरोप के राजा और राज्य व्यवस्था प्रजा पर आक्रामक थे। पश्चिम के मनुष्य को अपनी राजव्यवस्था के विरुध्द ही मानवाधिकार की जरूरत थी। आधुनिक भारत में मानवाधिकारों की बड़ी चर्चा है। आतंकवादियों के समर्थक आतंकियों को भी मानवाधिकार दिलाने की पैरवी करते हैं। भारतीय पुलिस बेशक मानवाधिकारों की शत्रु है, वह अंग-भंग करती है। पुलिस हिरासत में मौतों की संख्या रोंगटे खड़े करने वाली हैं। लेकिन संस्कृत साहित्य में सारा जोर कर्तव्य पर है। कर्तव्यपालन अपने आप में आनंददायी कर्म है। कर्तव्यपालन के राष्ट्रधर्म के कारण भारत में मानवाधिकार की कोई आवश्यकता ही नहीं थी।

कर्तव्यपालन का राष्ट्रधर्म भारतीय दर्शन की अनुभूति है। सृष्टि में अनंत जीव हैं, अनंत वनस्पतियां है, समुद्र हैं, असंख्य सूर्य, चंद्र, तारामण्डल और बहुत कुछ। लेकिन सृष्टि अनंत इकाइयों का जोड़ नहीं है। समूची सृष्टि एक है। भारतीय दर्शन में इसे ‘अद्वैत’ कहते हैं। अद्वैत का अर्थ है – दो नहीं। विज्ञान में इसे ‘कासमोस’ कहते हैं। अमेरिकी वैज्ञानिक कार्ल-सागन ने इसे ‘कास्मिक एग’ (संपूर्ण अंडा) कहा है। उपनिषदों ने इसे ब्रह्म कहा है, भौतिकवादी भाषा में यही ब्रह्मांड है। ब्रह्मांड या सृष्टि एक जैविक सत्ता है, एक आर्गेनिक यूनिटी है। सृष्टि के पूर्व यह अदृश्य है, ऋग्वेद से लेकर गीता और शंकराचार्य, विवेकानंद तक इस अदृश्य का नाम अव्यक्त-असत् है। अव्यक्त का व्यक्त होना सृष्टि है। व्यक्त का अव्यक्त हो जाना प्रलय है। लेकिन समूचा व्यक्त सदा से एक इकाई है। ऋग्वेद के ऋषि ने इसे एक प्रीतिकर नाम दिया है अदिति। अदिति के बारे में कहा गया है जो अब तक हो चुका है और जो आगे होगा सब अदिति है। पुरुष सूक्त में ‘पुरुष’ के बारे में भी यही अनुभूति है – पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं भव्यं च। यह पुरुष ही सबकुछ है जो हो गया वह और जो भविष्य में होगा वह भी।

भारतीय दर्शन और अनुभूति में विश्व एक परिवार है। कीट, पतंग, वनस्पति और चांद तारे भी इस परिवार के अंगभूत हैं। हम सब सूर्य के हिस्से हैं, हम पर सूर्य की अनुकंपा है। हम पृथ्वी के अंग हैं, वनस्पतियां हम सबको प्राण वायु देती हैं। वनस्पतियां हमारा परिवार हैं। वायु प्राण है, जल पोषक है, अग्नि ऊर्जा उद्दीपक है। प्रकृति की इन सभी शक्तियों की हम सब पर अनुकंपा है। गीता में श्रीकृष्ण यज्ञ चक्र समझाते हैं कि मनुष्य इन दिव्य शक्तियों का पोषण करे। यह शक्तियां हम सबका पोषण करती हैं। पशु, पक्षी, कीट, पतंग, जलचर, नभचर, पृथ्वी से आकाश तक सब एक ही जैविक सत्ता के अंग हैं। सृष्टि में परस्परावलंबन है। विज्ञान इसे इकोलोजी कहता है, उपनिषद् दर्शन इसे ब्रह्म कहता है। सृष्टि की एक-एक इकाई परस्पर एकीकृत है। सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और सब एक-दूसरे से पोषण पाते हैं। यहां की कोई भी वस्तु भोग के लिए नहीं, उपयोग के लिए ही है। यह सब एक विराट सत्ता है, स्वयं के लिए जरूरी का उपयोग बाकी सब विराट का। ईशावास्योपनिषद् के ऋषि की यही शानदार घोषणा है कि सब तरफ ईशावास्य है यह जानकर काम करते हुए 100 बरस तक जीने की इच्छा करें। कर्तव्य का राष्ट्रधर्म मानवाधिकारों को आच्छादित करता है। इसमें सभी जीवों के अधिकार सुरक्षित हैं। अधिकार संकीर्णता है। कर्तव्य में व्यापकता है। कर्तव्य पालन के कारण प्रकृति की प्रत्येक इकाई को अपना भाग मिल जाता है। संपूर्ण संस्कृत वाड्.मय का यही सार तत्व है। भारत इसी राष्ट्रधर्म में जिया है। अधिकारों के परस्पर संघर्ष में नहीं।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।