कर्तव्य प्रधान भारत का राष्ट्रधर्म

– हृदयनारायण दीक्षित

संस्कृत लोकमंगल अभीप्सु भाषा है। कण-कण में एकत्व की बोली है। यह देवत्व और दिव्यत्व की अनुभूति वाणी है। भारत का प्राचीन दर्शन, विज्ञान, इतिहास, काव्य और गीत संस्कृत में ही उगा। लेकिन अंग्रेजी अमेरिकी सभ्यता के मानसिक गुलाम संस्कृत को मृत भाषा कहते हैं। पीछे सप्ताह संस्कृत प्रेमियों ने यू.पी. की राजधानी लखनऊ में एक प्रीतिकर राष्ट्रीय संगोष्ठी की। विषय था ”संस्कृत वाड्.मय” में मानवाधिकार। गोष्ठी में संस्कृत और संस्कृति की परंपरा के अनुसार विपरीत मत भी आये। विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विचारों की लेखा भी वितरित हुई। विद्वतजनों ने वेदों से लेकर परवर्ती साहित्य तक के संस्कृति साहित्य में ‘मानवाधिकार’ खोजने का दिलचस्प प्रयास किया है पर संस्कृत के प्रकांड विद्वान राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के अध्यक्ष डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी ने वामपंथी शैली में संस्कृत साहित्य को मानवाधिकारों से पृथक बताया उन्होंने कई ग्रंथों के उध्दरणों को लगभग अमानवीय भी कहा। एक दूसरे विद्वान उच्च पदस्थ अधिकारी अवनीश अवस्थी ने मानवाधिकार की पूरी कल्पना को विदेशी बताया। उन्होंने विषय को ठीक पकड़ा। उनकी आवाज परिशुध्द सांस्कृतिक भी थी।

प्रश्न है कि दुनिया में मानवाधिकार का विषय आखिरकार कहा से आया? क्या बाइबिल या कुरान में मानवाधिकारों की कोई कल्पना है? मानवाधिकार का विषय दरअसल दूसरे विश्वयुध्द की विभीषिका से उठा। विश्वयुध्द में मानवीय अस्मिता, गरिमा और महिमा को चोट पहुंची थी। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मानवीय गरिमा के प्रश्न को महत्ता दी। 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा हुई। मानवाधिकार भारतीय संकल्पना नहीं है। भारत के इतिहास में मानवीय गरिमा को कुचलने का पश्चिम जैसा असभ्य और दूसरा दुर्दांत उदाहरण नहीं मिलता। समूचा संस्कृत साहित्य, वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, पुराण और अर्थशास्त्र, योगसूत्र, नाट्यशास्त्र सबके सब मनुष्य को ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना बताते हैं। भौतिकवादी चाहें तो ईश्वर की जगह प्रकृति रख सकते हैं। तुलसीदास की चौपाई है – नर समान नहि कौनिऊ देहीं। भारतीय अनुभूति में नर ही चेतना के सर्वोच्च शिखर पर नारायण बनता है। परवर्ती काल का शूद्र वर्ण भी ऋग्वैदिक काल में पृथक सत्ता नहीं है। वैदिक काल में मानवाधिकारों की कोई आवश्यकता नहीं थी। समाज में समता थी, समरसता थी, प्रीति थी, नेह थे, स्नेह थे। विपरीत मत का आदर था। ऋग्वेद में ढेर सारे विचार हैं।

पश्चिम और पूरब की सांस्कृतिक अनुभूतियों में भारी अंतर है। पश्चिम में ‘परिवार’ नाम की संस्था समिति या एन.जी.ओ. जैसी है। स्वाभाविक ही परिवार के सदस्यों के कतिपय अधिकार भी हैं। भारत में ‘परिवार’ नाम की संस्था दंपति (पति-पत्नी) का विकास है। पुत्र अपने माँ-पिता का ही प्रवाह है, वे परिवार के साधारण सदस्य नहीं है। वे मां-पिता का अविभाज्य अंग है, बेशक वे इकाई है लेकिन इस इकाई का व्यक्तित्व मां-पिता का प्रवाह है। बहू बाहर से आती है। दूसरे परिवार की है। लेकिन ऋग्वेद के ऋषियों के अनुसार देवता ही उसे पितृकुल से मुक्त करते हैं और पति पक्ष से युक्त करते हैं। इस तरह वह भी इस परिवार की अंगीभूत है, उसे आशीष मिला है – साम्राज्ञी श्वसरोभव। वह सासु-ससुर, ननद-देवर पर सम्राट है। माता-पिता यहां देवता हैं। तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया – मातृ देवो भव, पितृ देवो भव। पिता वैसा ही संरक्षक है जैसे देवता। ऋग्वेद के ऋषि देवों से स्तुति करते हैं, हे देवो! आप हमें वैसे ही गोद में लेंवे जैसे पिता-पुत्र को। यहां पिता प्रथमा है और देव द्वितीया। ऋषि देवों से भी पिता जैसा आचरण चाहते हैं, जाहिर है कि पिता का आचरण श्रेष्ठ है। गीता का अर्जुन विराट रूप देखता है और त्वमेव माता च पिता कहता है। क्या ऐसे माता-पिता और पुत्रों के बीच ‘मानवाधिकार’ की कहीं कोई गुंजाइश बचती है? प्राचीन शासन प्रणाली में राजा और प्रजा के रिश्ते भी ऐसे ही हैं। प्रजा का अर्थ विशेष पुत्र होता है। प्रजा असाधारण पुत्र है। राजा प्रजा का पालन विशेष पुत्र की तरह करने को बाध्य है। यही राजधर्म था। जो राजा प्रजा का समुचित पालन नहीं करते थे वे सत्ता के अयोग्य थे। कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ ऐसे राजाओं की अच्छी खबर लेता है। तुलसीदास तो ऐसे राजा को नर्क की सजा सुनाते हैं – ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी/सो नर अवसि नरक अधिकारी।’ यूरोप के राजा और राज्य व्यवस्था प्रजा पर आक्रामक थे। पश्चिम के मनुष्य को अपनी राजव्यवस्था के विरुध्द ही मानवाधिकार की जरूरत थी। आधुनिक भारत में मानवाधिकारों की बड़ी चर्चा है। आतंकवादियों के समर्थक आतंकियों को भी मानवाधिकार दिलाने की पैरवी करते हैं। भारतीय पुलिस बेशक मानवाधिकारों की शत्रु है, वह अंग-भंग करती है। पुलिस हिरासत में मौतों की संख्या रोंगटे खड़े करने वाली हैं। लेकिन संस्कृत साहित्य में सारा जोर कर्तव्य पर है। कर्तव्यपालन अपने आप में आनंददायी कर्म है। कर्तव्यपालन के राष्ट्रधर्म के कारण भारत में मानवाधिकार की कोई आवश्यकता ही नहीं थी।

कर्तव्यपालन का राष्ट्रधर्म भारतीय दर्शन की अनुभूति है। सृष्टि में अनंत जीव हैं, अनंत वनस्पतियां है, समुद्र हैं, असंख्य सूर्य, चंद्र, तारामण्डल और बहुत कुछ। लेकिन सृष्टि अनंत इकाइयों का जोड़ नहीं है। समूची सृष्टि एक है। भारतीय दर्शन में इसे ‘अद्वैत’ कहते हैं। अद्वैत का अर्थ है – दो नहीं। विज्ञान में इसे ‘कासमोस’ कहते हैं। अमेरिकी वैज्ञानिक कार्ल-सागन ने इसे ‘कास्मिक एग’ (संपूर्ण अंडा) कहा है। उपनिषदों ने इसे ब्रह्म कहा है, भौतिकवादी भाषा में यही ब्रह्मांड है। ब्रह्मांड या सृष्टि एक जैविक सत्ता है, एक आर्गेनिक यूनिटी है। सृष्टि के पूर्व यह अदृश्य है, ऋग्वेद से लेकर गीता और शंकराचार्य, विवेकानंद तक इस अदृश्य का नाम अव्यक्त-असत् है। अव्यक्त का व्यक्त होना सृष्टि है। व्यक्त का अव्यक्त हो जाना प्रलय है। लेकिन समूचा व्यक्त सदा से एक इकाई है। ऋग्वेद के ऋषि ने इसे एक प्रीतिकर नाम दिया है अदिति। अदिति के बारे में कहा गया है जो अब तक हो चुका है और जो आगे होगा सब अदिति है। पुरुष सूक्त में ‘पुरुष’ के बारे में भी यही अनुभूति है – पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं भव्यं च। यह पुरुष ही सबकुछ है जो हो गया वह और जो भविष्य में होगा वह भी।

भारतीय दर्शन और अनुभूति में विश्व एक परिवार है। कीट, पतंग, वनस्पति और चांद तारे भी इस परिवार के अंगभूत हैं। हम सब सूर्य के हिस्से हैं, हम पर सूर्य की अनुकंपा है। हम पृथ्वी के अंग हैं, वनस्पतियां हम सबको प्राण वायु देती हैं। वनस्पतियां हमारा परिवार हैं। वायु प्राण है, जल पोषक है, अग्नि ऊर्जा उद्दीपक है। प्रकृति की इन सभी शक्तियों की हम सब पर अनुकंपा है। गीता में श्रीकृष्ण यज्ञ चक्र समझाते हैं कि मनुष्य इन दिव्य शक्तियों का पोषण करे। यह शक्तियां हम सबका पोषण करती हैं। पशु, पक्षी, कीट, पतंग, जलचर, नभचर, पृथ्वी से आकाश तक सब एक ही जैविक सत्ता के अंग हैं। सृष्टि में परस्परावलंबन है। विज्ञान इसे इकोलोजी कहता है, उपनिषद् दर्शन इसे ब्रह्म कहता है। सृष्टि की एक-एक इकाई परस्पर एकीकृत है। सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और सब एक-दूसरे से पोषण पाते हैं। यहां की कोई भी वस्तु भोग के लिए नहीं, उपयोग के लिए ही है। यह सब एक विराट सत्ता है, स्वयं के लिए जरूरी का उपयोग बाकी सब विराट का। ईशावास्योपनिषद् के ऋषि की यही शानदार घोषणा है कि सब तरफ ईशावास्य है यह जानकर काम करते हुए 100 बरस तक जीने की इच्छा करें। कर्तव्य का राष्ट्रधर्म मानवाधिकारों को आच्छादित करता है। इसमें सभी जीवों के अधिकार सुरक्षित हैं। अधिकार संकीर्णता है। कर्तव्य में व्यापकता है। कर्तव्य पालन के कारण प्रकृति की प्रत्येक इकाई को अपना भाग मिल जाता है। संपूर्ण संस्कृत वाड्.मय का यही सार तत्व है। भारत इसी राष्ट्रधर्म में जिया है। अधिकारों के परस्पर संघर्ष में नहीं।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

13 COMMENTS

  1. The divorce rate in India is even quite lower in the villages in India and higher in urban parts of India. These days divorce rates in India’s urban sphere are shooting up.

    Some facts from CIA Worldbook for comparison with US

    –Infant mortality rate
    India – 64.9 deaths/1,000 live births
    USA -6.76 deaths/1,000 live births

    –Life expectancy at birth
    India 62.5 years
    USA 77.26 years

    –Birth rate
    India – 24.79 births/1,000 population
    USA – 14.2 births/1,000 population

    –Death rate
    India -8.88 deaths/1,000 population USA – 8.7 deaths/1,000 population

    –Divorce rates
    US – 50%
    India – 1.1%

  2. The divorce rate in India is even quite lower in the villages in India and higher in urban parts of India. These days divorce rates in India’s urban sphere are shooting up.
    Some facts from CIA Worldbook for comparison with US
    –Infant mortality rate
    India – 64.9 deaths/1,000 live births
    USA -6.76 deaths/1,000 live births

    –Life expectancy at birth
    India 62.5 years
    USA 77.26 years
    –Birth rate
    India – 24.79 births/1,000 population
    USA – 14.2 births/1,000 population
    –Death rate
    India -8.88 deaths/1,000 population USA – 8.7 deaths/1,000 population
    –Divorce rates
    US – 50%
    India – 1.1%
    देशवासियों आपके सामने C I A का कुछ डेटा देता हूं।
    तलाक का दर १.१ % (भारत) और ५०% अमरिका

  3. कुटुंब नष्ट हुआ तो समाप्त हो जाओ गे। रोम और युनान में यही हुआ था, तो मिट गए जहांसे!
    हरेक को जानने योग्य ==> मेरी युनिवर्सिटी से एक अमरिकन प्रॉफेसर फुल ब्राइट प्रॉ. के नाते ३ बार, भारत गया था।दूसरा निकट की यु. का २ बार, और एक तीसरा १ बार साल भर भारत रहकर वापस लौटे थे। उनके लेक्चर रखे गए।
    सारे के सारे अपने अपने भाषणमें, हमारे परिवार संस्था की प्रशंसा कर रहे थे।
    अचरज था उन्हे, कि कैसे भारतने इतनी गरीबी में भी कुटुंब को टिकाए रखा? (जो उनके लिए बहुत बडा अचरज था।यहां इकॉनोमी बिगडी तो तलाक बढ जाते हैं)
    (१) यह हमारे कर्तव्य (अधिकार नहीं)परायण समाज रचना का परिणाम है।जाने अन्जाने राम का आदर्श है।
    कर्तव्य के लिए लडना नहीं पडता, पति के कर्तव्य में बच्चे, पत्नी इत्यादि सभीकी भलाई और अधिकार संतोषे जाते है।पत्निके कर्त्वव्योमें अन्योंके…… इत्यादि इत्यादि।
    (२) यदि हम अधिकार परायण होंगे, तो समाज की व्यवस्था नष्ट होगी।
    कर्तव्य एक दूजेके लिए पूरक होता है, कोई झगडा नहीं।
    अधिकार कुटुंबके सदस्योंको लडा देगा। अधिकारके लडके मिला तो भी प्रेम रहेगा ही, ऐसा नहीं होता।
    अधिकार आधारित(पश्चिममे भी) अमरिका में केवल २१% परिवार अपने औरस (शरीरसे जन्मे) बच्चोंके साथ रहते हैं। ५०% पुरुष और ५४% महिलाएं एक बार भी ब्याह नहीं करते(ज़रूरत नहीं है)। जब बच्चे वासना जनित वृत्तिसे जन्मते हैं, तो मा बाप के प्रति आदर नहीं रख सकते। मा बाप के प्रति जान ले, कि भारत की परंपराएं श्रेष्ठ हैं। कुछ मलिनता ११५० सालकी गुलामीसे आयी है।

    Duty fosters beauty और Rights create fights.
    इसका अर्थ यह नहीं है, कि हम अपने दलित, वनवासी, शोषित, अंतिम पंक्ति के बंधु की ओर दुर्लक्ष्य़ करें।
    मैंने कुछ युनिवर्सिटियों मे इस विषय पर प्रस्तुतियां की है।
    मैंने मॅरिलॅंड यु. में, दो साल पहले बोला था, वह प्रतीकात्मक तर्क शास्त्रका उदाहरण दिया है। उसे पढने पर कुछ ठीक प्रकाश पड सकता है।और भी बहुत बिंदु हैं,सारे टिप्पणीमें नहीं समा सकते।
    पर मैं, अपने आपको, गौरवान्वित अनुभव करता हूं, तो ७ वें आसमान में पहुंच जाता हूं।
    विनय सहित।

  4. “देश के दुश्मन तो अपना काम कर रहे हैं पर देश, धर्म और संस्कृति के रखवाले कहाँ सोये हुए हैं ? देश के हित में हुए लेखन पर उत्साह बढाने वाली सकारात्मक टिप्पणियाँ लिखने में आलस और प्रमाद हमारे हित में नहीं.”
    मैं इसका विनम्रतासे अनुमोदन करता हूं।
    —————————————–
    (१) सोनेके फ़र्ज़ी हिरन ने राम को भी झाँसा दिया था। यह झाँसेका युग है। जो दिखता है, वह होगा ही, इसका कोई प्रमाण नहीं।
    (२) यह जानकारी के (Age of information Revolution) क्रांति का युग है।
    कंप्युटर के आनेसे यह बजरंगबली की छलांग लगा चुका है। जानकारी की बाढ समाज में जो बदलाव लाएगी, उसका अनुमान करना इतना सरल नहीं।चिंतक भी शायद इसका भविष्य ठीक ठीक(?) नहीं जानते।
    संक्षेपमें यह, जानकारी के (Information War) युद्ध का युग ही है। हरेक गुट अपने हितमें संदेश ,(फिर वह गलत फहमी फैलानेवालाभी), असुंतलित और देशभक्तों को देशद्रोही प्रमाणित करनेवाला, परदेशियोंको देशभक्त साबित करनेवाला,परदेशियोंके पक्षमें, देश के विघटन को प्रेरक, देशद्रोह को देश भक्तिका चोला पहनाकर ….इत्यादि अनगिनत मार्गों से लगा हुआ है। यह इन्फ़र्मेशन का युग है, मिस इन्फ़र्मेशनका युग है,”झूठ को” सच, और सचको झूठ दिखानेका युग है। यहां समाचार पत्र, अखबार, दूरदर्शन, और स्तंभ लेखक, अन्य लेखकभी, वक्ता, नेता, इत्यादि बिके हुए दिखाई देते हैं।समाचारको गलत शीर्षक दो, अनामी स्रोत से समाचार दो, संदर्भ रहित खबर दो, राष्ट्रवादी खबरों को ना दो, धनके सहारे लेखकों को खरिदो, समाचार पत्रों के पूरे पृ्ष्ठ खरिदो, …. ऐसे अनगिनत तरिकोंसे … यह जानकारी की लडाई लडी जाएगी।
    जिन लोगोंके पास सत्य है। उन्हे सकारात्मक, विधायक, रचनात्मक कामोंसे समय निकालना पडेगा। अब वह “हाथी चले बज़ार तो कुत्ते भौंके हज़ार” कहके मौन नहीं बैठा जाए। भगवानने गीतोपदेश जब अर्जुन लडने तैय्यार हुआ तभी समाप्त किया। आज की लडाई information Age की है। निःशुल्क, निस्वार्थी स्वयंसेवकों द्वारा चलने वाले ३४ से ३५ हज़ार एकल विद्यालय जनता को दिखाए नहीं जाते, क्यों कि वे आदिवासी क्षेत्रोमें पहाडी में चलते हैं, पर युवराज कहीं कारसे उतरकर किसी झोंपडीमें जाकर हाथ मिलाता है, तो वह बढा चढाके लिखा जाता है।
    paradigm बदल रहे हैं।परंपरागत सोच को बदलना चाहिए।
    नहीं तो फिर गाते रह जाओगे…. हम करे राष्ट्र आराधन॥
    राम किर्तन में लीन हिंदू, आंखे मूंदकर किर्तन में ही, लगा रहा, और सामनेसे राम को ही गायब कोई कर जाए, ऐसा भी हुआ है, और हम सूस्त रहे तो और भी होगा।

  5. समस्त ज्ञानी अग्रज बंधुओं को अनुज का प्रणाम
    हे एड्स का इलाज खोजने वाले कपूर जी जो व्यक्ति सच्चाई को कहता है वो देश विरोधी हो जाता है. यहाँ हम लोग संवाद के लिए अपनी टिप्पणियां लिखते हैं. मैं नहीं समझता कि यहाँ सबका उद्देश्य एक दुसरे की तारीफ़ करना या कीचड उछालना है.लोग यहाँ सिर्फ तारीफ बटोरने के लिए लिख रहे हैं सच्चाई पर भी नज़र डालें तो ये चीज़ें स्वयं मिल जाएँगी.
    **अनिल जी कहते हैं “भारत में मानवाधिकारों की बड़ी चर्चा है। आतंकवादियों के समर्थक आतंकियों को भी मानवाधिकार दिलाने की पैरवी करते हैं।”मगर मेरे अग्रज बंधू आतंकी के मानवाधिकार है जो हैं सो होंगे पर दबे कुचले नागरिकों को उनके अधिकार भी मिलेंगे या नहीं.
    **राष्ट्रवादी लोग जो कार्य कर रहे हैं उन्हें कोई नहीं देखता बल्कि कथित छद्म राष्ट्रवादी लोग उन्हें देश विरोधी कहते हैं. डा. भीमराव आंबेडकर ने संविधान लिखा लेकिन आज़ादी के ४५ साल बाद तक इस देश के ब्राह्मण बुद्धि धारक प्रधानमंत्रियों को यह याद नहीं आया कि उस कर्मयोगी की एक तस्वीर संसद में लगा दी जाये.
    मैं लेखक के विचारों का काफी हद तक सम्मान करता हूँ लेकिन यहाँ लेख मैं कई अतिश्योक्ति और भ्रमित करने वाले तथ्य लेखक ने लिखे हैं.

    ***लेखक कहते हैं”मानवाधिकार का विषय दरअसल दूसरे विश्वयुध्द की विभीषिका से उठा। विश्वयुध्द में मानवीय अस्मिता, गरिमा और महिमा को चोट पहुंची थी। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मानवीय गरिमा के प्रश्न को महत्ता दी। 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा हुई।” महोदय जो १९४८ का चार्टर बना है वो बहुत हद तक बाईबिल से प्रेरित था और उसके सिद्धांत उसमें हैं इसलिए आप दूसरी ओर कहना “क्या बाइबिल या कुरान में मानवाधिकारों की कोई कल्पना है?” निरर्थक और भ्रामक है.

    ***लेखक कहते हैं-“तुलसीदास की चौपाई है – नर समान नहि कौनिऊ देहीं।”
    मगर तुलसीदास नर मानते किसको थे तुलसीदास की एक और चौपाई है-ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी (सुं.कां. ६२-३) तो क्या शुद्र और नारी मानव नहीं हैं.

    ***लेखक कहते हैं “भारत के इतिहास में मानवीय गरिमा को कुचलने का पश्चिम जैसा असभ्य और दूसरा दुर्दांत उदाहरण नहीं मिलता। समूचा संस्कृत साहित्य, वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, पुराण और अर्थशास्त्र, योगसूत्र, नाट्यशास्त्र सबके सब मनुष्य को ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना बताते हैं।” तथा उस मानव को जानवर से भी बदतर बताते हैं .

    ***लेखक कहते हैं “यूरोप के राजा और राज्य व्यवस्था प्रजा पर आक्रामक थे। पश्चिम के मनुष्य को अपनी राजव्यवस्था के विरुध्द ही मानवाधिकार की जरूरत थी।” महोदय भारत में भी मानवाधिकार की जरूरत तब ही पड़ती है जब राज्य व्यवस्था प्रजा पर आक्रामक हो जाती है. आप हम सब रोजाना मानवाधिकार उल्लंघन देखते हैं.
    में यहाँ पर धार्मिक ग्रंथों के उदाहरण इसलिए नहीं दे रहा हूँ क्योंकि में नहीं चाहता कि किसी की श्रद्धा पर कोई कुठाराघात हो. वैसे भी सच्चाई स्पष्ट आइना होती है सब समझ ही जाते हैं.
    आप सब अग्रज बंधुओं के निर्देशन की प्रतीक्षा में
    आपका अनुज

  6. आदरणीय दीक्षित जी
    पूर्व और पाश्चात्य का विश्यन्तार्गत बेहतर ताल मेल अर्थात भारतीय बांग्मय के कतिपय दार्शनिक सूत्रों को पाश्चात्य वैज्ञनिक भौतिकवाद से तो आपने संगती बढ़ियाँ बिठाई .किन्तु अंतिम वाक्य को लगता है विज्ञानं की कसौटी आवश्यक नहीं
    “भारत इसी राष्ट्र धर्म में जिया है अधिकारों के संघर्ष में नहीं ”
    देवासुर संग्राम ;;परशराम द्वारा .सामंतशाही का खत्म करना. ;राम -रावन युद्ध ;
    आर्य- अनार्य संघर्ष ;महाभारत का कत्ले आम बोद्ध -शेव -शाक्त -जैन -संघर्ष ;
    शक -हूण-कुषाण -तोर्मान -तुरक -गुलाम -पठान -सुलतान एवं मुगलों के आक्रमण तथा उनसे जूझने वाली हमारे पूर्वजों की संघष यात्रा हमारा आह्वान कर रही है की लाल कपडे को पोथी से अलग करो ;उसका झंडा बनाओ और क्रांति की झंकार से पूंजीवाद -सामंतवाद को बहरा गूंगाकर दो .शहीद भगतसिंह ने कहा था -जब तलक शोषण -दमन -उत्पीडन रहेगा ;क्रांति के लिए हमारा संघर्ष जरी रहेगा .अतीत की जिन नीतियों से हम गुलाम हुए थे उन्हें महिमा मंडित करना आप जैसे विद्वानों को शोभा नहीं देता .क्षमा सहित -अनुजवत आपका -श्रीराम तिवारी .;

  7. *देश विरोधी ताकतों की एक तकनीक अंग्रेज़ी काल से बड़ी सफलता पूर्वक इस्तेमाल की जा रही है. जो कोई भी मजबूत बात भारत के हित में उठाई जाए उसपर कोई टिप्पणी न करो और उसे महत्व दिए बिना समाप्त हो जाने दो.
    *देश के दुश्मन तो अपना काम कर रहे हैं पर देश, धर्म और संस्कृति के रखवाले कहाँ सोये हुए हैं ? देश के हित में हुए लेखन पर उत्साह बढाने वाली सकारात्मक टिप्पणियाँ लिखने में आलस और प्रमाद हमारे हित में नहीं.
    ## जो और जितना सशक्त ज्ञान व अतीत हमारे पास है, सारे संसार के पास कुल मिलाकर उसके एक अंश जितना भी नहीं है. समस्या केवल यह है की हम में आत्म विश्वास की कमी है (डा. अब्दुल कलाम, स्वामी विवेकानंद और महर्षी अरविन्द के अनुसार). एक और कमी है पहल करने की, सक्रियता की. बहुत मार खाने के बाद भी अपने देश व समाज के हितों के मुद्दों पर आलस और उपेक्षा का व्यवहार. क्या अब भी हम अपनी आत्मघाती तंद्रा को नहींछोड़ेंगे ?
    ## भारत विरोधी आलेखों के पक्ष में तुरंत प्रतिक्रियाएं आने से साफ़ पता चलता है कि भारत विरोधी सदा के सामान सक्रीय हैं पर भारत के पक्ष हुए लेखन की कई बार हुई उपेक्षा से लगता है कि हम अभी भी पर्याप्त जागरूक नहीं हुए हैं.
    * यह भी शायद एक कारण हो कि ह्रदय नारायण दीक्षित जी का लेखन थोड़ा क्लिष्ट है जिसे कुछ पाठक न समझ पाए हों. पर जटिल व दार्शनिक विषयों की भाषा थोड़ी कलिष्ट तो हो ही जाती है.

  8. कर्तव्य प्रधान भारत का राष्ट्र धर्म
    – by – हृदयनारायण दीक्षित

    मानवाधिकार का विषय? दीक्षित का कहना है.

    भारत में मानवाधिकारों की बड़ी चर्चा है। आतंकवादियों के समर्थक आतंकियों को भी मानवाधिकार दिलाने की पैरवी करते हैं।
    संस्कृत साहित्य में कर्तव्यपालन अपने आप में कर्म है। कर्तव्यपालन के राष्ट्रधर्म के कारण भारत में मानवाधिकार की कोई आवश्यकता ही नहीं ।

    कर्तव्यपालन का राष्ट्रधर्म भारतीय दर्शन की अनुभूति है।

  9. अधिकार की आपूर्ति आप ही आप हो ही, नहीं सकती। किसी और के कर्तव्योंसे ही उसकी पूर्ति होती है।इस लिए, पश्चिम की विचार धाराएं,एक बहुत बडी मौलिक भूल करती है, औए सारी समस्याएं इसीके कारण है।
    इस विषय पर (लेक्चर) प्रस्तुति करनेका अवसर मुझे Maryland University में प्राप्त हुआ था।
    (१) संक्षेप में मैंने A B C ….. Z, गुटको केवल,Right oriented ऐसा,और
    (२) a b c d ….z को केवल Duty Oriented गुट ऐसा दिखाया।
    (३) दोनो गुट संपूर्णतः अलग अलग स्थान में माने गए।
    —–
    (४)फिर प्रश्न पूछा, कि, Right oriented गुट के Rights कैसे प्राप्त होंगे ? A से Z तक सारे के सारे Duty तो करेंगे नहीं।
    (५) पर Duty वाले गुट को कोई अडचन नहीं होंगी। वे Duty करते रहेंगे। प्रतीकात्मक तर्क शास्त्रकी सहायता से इसे संक्षेप में समझाया जा सकता है। आदर सहित।

  10. दिक्षित जी आपने इतना सुन्दर लिखा है कि कमेट करे बिना रहा नही गया,अपनी परम्प्रा अधिकार नही कर्तव्य की बात करती है,और इस भाव जिस अत्यन्त व्यव्स्थित तरिके से आपने लिखा है उसके लिये आप साधुवाद के पात्र है,फ़िर विग्यान और आध्यात्म का सम्न्वय भी जोरदार व्यक्त किया है.
    “अव्दैत” को अभी तक विग्यान नही पा सका है,जिसे “कास्मिक एग” बताया गया है वो “हिरण्य गर्भ” कहा गया है शास्र्तो में.

  11. पूर्व और पश्चिम का इतना प्रमाणिक और विद्वत्तापूर्ण तुलनात्मक अध्ययन बहुत कम पढने को मिलता है. कमाल की बात तो यह है की राजनैतिक क्षेत्र में ऐसे विद्वान चिन्तक अभी भी हैं, यह आश्चर्य और प्रसन्नता की बात है. दीक्षित जी मेरा साधुवाद और शुभकामनाएं स्वीकार करें.

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