प्रियंका योशीकावा: नस्लभेद मानवता का अभिशाप

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priyankaललित गर्ग –

जिसमें हम जीते हैं, वह है सभ्यता और जो हममें जीती है वह है संस्कृति। संस्कृति ने अपने जीने का सबसे सुरक्षित स्थान मानव मस्तिष्क, मानव मन एवं मानव शरीर चुना और मानवीय मूल्यों का वस्त्र धारण किया, पर आज मानव उन मूल्यों को अनदेखा कर रहा है, तोड़ रहा है। मात्र संकुचित और संकीर्ण स्वार्थ के लिए। हजारों वर्षों में दुनिया में कहीं-न-कहीं धर्म और नस्लभेद के नाम पर मानव जाति में टकराव होते रहे हैं। इसका ताजा मामला जापान का सामने आया है। जैसे ही भारत से संबंध रखने वाली प्रियंका योशीकावा को ‘मिस जापान’ का ताज पहनाया गया, वहां इस पर नस्ली समानता को लेकर आक्रामक बहस छिड़ गई है और बवाल मच गया। प्रियंका के पिता भारतीय हैं और मां जापानी।

प्रियंका को ताज पहनाए जाने के बाद से जापान की सोशल मीडिया पर यह बहस उग्र होती जा रही है कि ‘मिस यूनिवर्स जापान’ पूरी तरह से जापानी होना चाहिए न कि आधा यानी हाफू (जापानी शब्द)। यहां पर हाफू शब्द का इस्तेमाल मिश्रित नस्ल के लिए किया गया है। प्रियंका दूसरी ऐसी सुदंरी हैं, जो जापान का प्रतिनिधित्व करेंगी। इससे पहले पिछले साल अरियाना मियामोतो को यह सम्मान मिला था। तब एक अश्वेत महिला के चुने जाने पर उन्हें भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था।

‘मिस जापान’ का ताज पहनाये जाने के बाद प्रियंका ने अब जापान में नस्ली पूर्वाग्रह के खिलाफ लड़ाई जारी रखने का संकल्प लिया है। उनका कहना है, ‘हम जापानी हैं। हां, मैं आधी भारतीय हूं और लोग मुझसे मेरी नस्ली शुद्धता के बारे में पूछते हैं। मेरे पिता भारतीय हैं और मुझे इस पर गर्व है, मुझे गर्व है कि मेरे अंदर भारतीयता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं जापानी नहीं हूं।’ आपको बता दें, जापान में प्रियंका जैसी मिश्रित नस्ल के बच्चों की तादाद महज 2 फीसदी है। 22 साल की प्रियंका धाराप्रवाह जापानी और अंग्रेजी बोलती हैं। उन्हें हाथियों के प्रशिक्षण का लाइसेंस मिला हुआ है। योशीकावा 22 दिसंबर 2016 को वॉशिंगटन में होने वाले मिस वल्र्ड खिताब के लिए जाएंगी।

बर्लिन की दीवार तोड़ दी गई, तो लगा जैसे कितनी ही दीवारें टूट गईं। चीन की दीवार हिल रही है तो लगता है कितनी दीवारें हिल रही हैं। यह टूटना, हिलना, क्या नई संस्कृति के जन्म की प्रसव पीड़ा है? धर्म, जाति एवं नस्ल की दीवारें जब-जब हिलाने की कोशिश होती है, बवाल-सा मच जाता है। हम आज भी कई और दीवारें बना रहे हैं-मजहब की, सूबों की, नस्ल की, धर्म की। यहां तक कि दीवारें खड़ी करके ”नेम-प्लेट“ लगाकर ईंट-चूने की अलग दुनिया बना रहे हैं और यह स्थिति पैदा कर रहे हैं कि इन ईंट-चूने के मकानों के दरवाजे भी खुले नहीं रख सकते। तब दिमाग कैसे खुले रख सकते हैं। तब भला हम कैसे विश्व बंधुत्व एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को आकार दे पायेंगे?

जापान के लोग काफी देशभक्त होते हैं और देशभक्त-राष्ट्रभक्त होना चाहिए। हर किसी को देश के सम्मान की रक्षा करनी चाहिए लेकिन उन्हें धर्म और नस्ल की संकीर्ण सीमाओं में रहकर काम नहीं करना चाहिए। जापान में धर्म और नस्ल की संकीर्णता के स्वरों के उठने से महसूस किया जा सकता है कि वहां के समाज में भी नस्लभेद मौजूद हैं। यूं तो भारत में भी उत्तर पूर्वी राज्यों के लोगों के साथ अप्रिय प्रसंग घटे हैं, नाइजीरियाई छात्रों ने भी बुरा व्यवहार होने की शिकायत की थी और उनकी नाराजगी अफ्रीकी समुदाय के सत्तातंत्र तक पहुंची थी।

दिल्ली के लाजपत नगर में नस्लवाद का शिकार होकर मारा गया निदो तनियाम पूर्वोत्तर के अपेक्षाकृत शांत राज्य अरुणाचल का रहनेवाला था। निदो की मौत कोई साधारण घटना नहीं थी। यह पूरे देश के लिए बड़े शर्म की बात थी क्योंकि निदो देश की राजधानी में गहरे पैठे नस्ली पूर्वाग्रह का शिकार बना था। वह उनके हाथों मारा गया शहीद है जिन्हें ‘विविधता में एकता’ का मतलब मालूम नहीं था। इसकी गंभीरता पर ठहर कर सोचते हैं, तो यह घटना महत्वपूर्ण हो जाती है। आज हमें दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी से हुए नस्लभेद को याद करते हुए आत्मचिंतन करना होगा कि दुनिया में कब तक रंग या धर्म के नाम पर भेदभाव होता रहेगा। नई व्यवस्था की मांग के नाम पर पुरानी व्यवस्था के खिलाफ जंग की- एक नई संस्कृति पनपा रहे हैं। व्यवस्था अव्यवस्था से श्रेष्ठ होती है, पर व्यवस्था कभी आदर्श नहीं होती। आदर्श स्थिति वह है जहां व्यवस्था की आवश्यकता ही न पड़े।

एक नई किस्म की वाग्मिता पनपी है जो किन्हीं शाश्वत मूल्यों पर नहीं बल्कि भटकाव के कल्पित आदर्शों के आधार पर है। जिसमें सभी नायक बनना चाहते हैं, पात्र कोई नहीं। भला ऐसी सामाजिक व्यवस्था किसके हित में होगी? सब अपना बना रहे हैं, सबका कुछ नहीं। और उन्माद की इस प्रक्रिया में एकता की संस्कृति का नाम सुनते ही सब विरोध को मचल उठते हैं। मनुष्यता क्रूर, अमानवीय और जहरीले मार्गों पर पहुंच गई है। बहस वे नहीं कर सकते, इसलिए विरोध करते हैं। संवाद की संस्कृति के प्रति असहिष्णुता की यह चरम सीमा है। विरोध की संस्कृति की जगह संवाद की संस्कृति बने तो समाधान के दरवाजे खुल सकते हैं। दिल भी खुल सकते हैं। बुझा दीया जले दीये के करीब आ जाये तो जले दीये की रोशनी कभी भी छलांग लगा सकती है।

नस्लभेद एवं रंगभेद मानवीयता पर बदनुमें दाग हैं। कई दशक पहले आई फिल्म पूरब और पश्चिम में मनोज कुमार ने गाया था, ‘काले-गोरे का भेद नहीं, हर दिल से हमारा नाता है’ लेकिन आपको भी अच्छी तरह पता है कि हकीकत क्या है। भारत में आज भी शादियों के लिए किसी और चीज से ज्यादा लड़की के रंग को तवज्जो देना इस देश में आम है। लेकिन ऐसा नहीं है कि रंगभेद सिर्फ भारत में होता है. दुनिया में ये हर जगह होता है। अब पड़ोसी देश चीन को ही लीजिए, जहां हाल ही में एक डिटर्जेंट पर बनाया गए ऐड पर बवाल मच गया है, वजह है इस विज्ञापन का जबर्दस्त तरीके से रंगभेदी होना। चीन में कियाओबी ब्रैंड के लिए बनाए गए इस डिटर्जेंट के विज्ञापन में एक काला आदमी एक चीनी युवती को इशारे करता है और सीटी बजाते हुए उसके पास पहुंच जाता है और जब ऐसा लगता है कि वे दोनों किस करने वाले हैं, तभी युवती उस आदमी के मुंह में डिटर्जेंट की एक गोली डालकर उसे वॉशिंग मशीन में डाल देती है और मशीन को ऑन करके उसके ऊपर बैठ जाती है. अंदर से उस आदमी के चीखने की आवाज आती है. लेकिन जब युवती मशीन को खोलती है तो एक गोरा आदमी उससे बाहर निकलता है, जिसे देखकर लड़की मुस्कुरा कर उसका स्वागत करती है।

कियाओबी कंपनी के इस विज्ञापन को लेकर चीन ही नहीं बल्कि दुनिया भर में तीखी आलोचना हुई है। लोगों ने इसे बेहद नस्लवादी करार दिया है और ऐसे विज्ञापन बनाने के लिए कंपनी की तीखी आलोचना की है। ट्विटर जैसे चीन के सोशल मीडिया वीबो पर कई लोगों ने इस विज्ञापन की कड़ी आलोचना की है. इस विज्ञापन पर चीन में रहने वाले अफ्रीकी मूल के लोगों ने नाराजगी जताई है। अमेरिका में भी इस चीनी विज्ञापन का जोरदार विरोध हुआ है। जबकि अमरीका में भी पगड़ी और दाढ़ी वाले लोगों के साथ-साथ नाम के आधार पर भी काफी संशय भरा व्यवहार होता रहा है।

हमें यह भी भूलना नहीं चाहिए कि अमरीका के लोगों ने ही एक अश्वेत माता-पिता की संतान ओबामा को राष्ट्रपति चुना। लंदनवासियों ने पहली बार सादिक खान नामक पाकिस्तानी मूल के व्यक्ति को मेयर के रूप में निर्वाचित किया। ईसाई बाहुल्य लंदन में एक मुस्लिम का मेयर हो जाना अपने आप में एक मिसाल है। कनाडा का रक्षा मंत्री पंजाब मूल का एक सिख है। भारत में डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और कई अल्पसंख्यक राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं और वर्तमान में भी आसीन हैं। फिर भी लोग कई तरीकों से नस्लभेद करते हैं। कुछ लोग बातों से किसी का अपमान करते हैं या उसके दिल को ठेस पहुंचाते हैं मगर कुछ लोग इससे भी भयानक तरीका अपनाते हैं। वे तो किसी जाति को मिटाने की नीति ही बना डालते हैं।

जापान जैसे विकसित देश में प्रियंका योशीकावा के मिस जापान चुने जाने पर टिप्पणियां खेदजनक हैं। नस्लभेद की लड़ाई में पूरा भारत उसके साथ है। भगवान बुद्ध के देश में इंसानों से भेदभाव की तो कल्पना नहीं की जा सकती। प्रगतिशीलता, विकास ये सारे शब्द तब तक अर्थहीन हैं जब तक इंसानों से समानता का व्यवहार वास्तविकता नहीं बन जाता। विचार, आचरण या वक्तव्य के द्वारा नस्ल, कुल या जाति का भेद करना, उक्त में से किसी को हीन और किसी को श्रेष्ठ मानना नस्लवाद है और यह विश्व मानवता के लिये एक अभिशाप है।

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