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लोकतंत्र में समानता के लिए काली पट्टी बांधकर पढ़ाते प्राध्यापक

मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने हाल ही में दो नये पाठ्यक्रमों की घोषणा करते हुये कहा था कि ”लोकतंत्र को हमेशा राजनीति से जोड़ा जाता है। हम कभी भी कक्षाओं में लोकतंत्र स्थापित करने के बारे में नहीं सोचते। ये कहते हुये उन्होंने अफसोस जताया कि इस कंसेप्ट को कक्षाओं से इतना दूर क्यों रखा गया है”। ऐसे में कक्षाओं से पहले शिक्षण संस्थाओं में लोकतंत्र की पडताल जरूरी है। हाल ही में राजस्थान के भरतपुर जिले के बयाना कस्बे में एक मामला प्रकाश में आया है जहां शिक्षण संस्था के प्रबंधन में ही लोकतंत्र आंसू बहा रहा है। लोकतंत्र की बहाली के लिए दो प्राध्यापकों को गांधीगिरी के नुस्‍खे काम में लेने पड़ रहे, वहीं एक जाति का प्रबंधन तानाशाह बना हुआ है।

राजस्थान के भरतपुर जिले के बयाना कस्बे में ऐसा ही एक कन्या महाविद्यालय है जहां प्रबंधन के सौतेलेपन से दुखी दो प्राध्यापकों को काली पटटी बांधकर शिक्षण कार्य कराने को मजबूर होना पड़ रहा है। इससे पहले प्राध्यापक बार्षिक वेतनवृद्वि देने के लिए प्रबंधन के समक्ष अपनी जाति बदलने तक का प्रस्ताव रख चुके हैं। प्रबंधन को भेजे पत्र में प्राध्यापकों ने साफ लिखा था कि ”प्रार्थीद्वय की ओर से अग्रिम एक निवेदन आपके समक्ष ये रखा जा रहा है कि अगर आपको लगता है कि उन अनवरत कार्यरत कार्मिकों की भांति वेतनवृद्धि के लिए अग्रवाल समाज का होना ही जरूरी है तो जीवन को बचाये रखने के लिए यदि संभव हो तो प्रार्थीद्वय को ऐसे सदाशयी समाज का बनकर जीवन रक्षा करने में कोई गुरेज नहीं है।

हालात ये है कि लगभग एक दशक से ये प्राध्यापक 4 हजार रूपये मासिक पर काम करने को मजबूर है। वही प्रबंधन की अपनी जाति के कार्मिकों का वेतन बढकर चार गुना तक हो गया है। कारण की पड़ताल में सामने आई सच्चाई ये है कि प्रबंधन में एक जाति समूह ही शामिल है जो कि नियमों के बिल्कुल विरूद्ध एक मामला है।

राजस्थान को कभी शिक्षा के क्षेत्र में बीमारू राज्य माना जाता था। आजादी के समय यहॉ शिक्षा का प्रतिशत 9 जो अब बढकर लगभग 70 हो गया हैं। इतना ही नहीं प्रदेश में 14 सरकारी,16निजी और आठ डीम्ड विश्वविद्यालय स्थापित हो गये है। शिक्षा के इस दौर में निजीकरण ने अपनी गहरी पैठ बनाई हैं। प्रदेश में लगभग 1200 उच्चशिक्षा के कॉलेज है जिनमें से एक हजार से कहीं अधिक निजी क्षेत्र के है। उच्च शिक्षा के इस निजीकरण ने शिक्षा को शुद्ध व्यवसाय बना दिया हैं। व्यवसाय से भी कहीं अधिक बुराई इसमें जाति के नाम पर खुलेआम चल रही कारगुजारियों ने इसे बदनाम कर दिया हैं। हालात ये है कि बच्चों में विद्रूपताऐं घर कर गई हैं। इसका खुलासा हुआ है एक निजी महाविद्यालय के कारनामों से जो सरकार का मोटा पैसा लेकर अपनी जाति के कार्मिकों का भला कर रहा है।

शिक्षा के निजीकरण में यों तो प्रदेश ने लंबी छलांग लगाई है लेकिन अव्यवस्थाओं और अनियमितताओं का आलम ये है कि हालात बद से बदतर है। निजी शिक्षण संस्थाओं का संचालन जाति की रीति नीति से किया जा रहा है। कहने को तो शिक्षण संस्था के प्रबंधन में सभी जाति और वर्गो के लोगों को शामिल किया जाना अनिवार्य शर्त है। मगर विभागीय आलम ये है कि किसी को ये जानने की फुरसत ही नहीं है कि हो क्या रहा है। सही माने तो शिक्षा के निजीकरण ने आला अधिकारियों की पौ बारह कर दी है। राज्य सरकार की अवलोकन प्रकिया के तहत अधिकारी जब भी किसी शिक्षण संस्था का निरीक्षण करने जाते है तो मोटी रकम ऐंठ कर सब कुछ को ठीक ठाक बता देते है। यही कारण है कि अपनी स्थापना के एक दशक से भी अधिक समय हो जाने पर ये कन्या महाविद्यालय ‘मन्दिर’ परिसर में संचालित किया जा रहा है और उसके प्रबंधन में एक ही जाति के लोग शामिल है। वही अधिकारी इसका बार्षिक निरीक्षण कर रिपोर्ट ओके कर जाते है।

भरतपुर जिले के बयाना कस्बे में स्थित अग्रसेन कन्या महाविद्यालय का पूरा प्रबंधन अग्रवाल समाज के हाथों में है। 1997 में स्थापित इस कॉलेज का संचालन अग्रवाल समाज के हाथों में है। इसकी 20 सदस्यीय प्रवंध कार्यकारिणी में आरम्भ से एक भी सदस्य किसी भी दूसरे समाज का नहीं हैं। अग्रवाल समाज के ही लोग इसे अपनी मर्जी के सिद्धान्तों से संचालित कर रहे है। इतना ही नहीं अब तो उन्होंने अपने समाज के कार्मिकों के लिए पदों का सृजन भी अपनी मर्जी से सभी नियम कायदे कानूनों को ताक में रखकर करना शुरू कर दिया हैं। प्रदेश में गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं के संचालन के लिए पृथक से नियम बनाये गये हैं। राजस्थान गैरसरकारी शैक्षिक संस्‍था अधिनियम 1993 के नियम 23 के अन्तर्गत प्रवंध समिति के गठन के लिए जो निर्देश दिये गये है वो कुछ और ही बात कह रहे है। नियम 23 के बिन्दू ख में साफ लिखा है कि ”किसी भी मान्यता प्राप्त निजी महाविद्यालय की प्रवंध कार्यकारिणी में किसी एक जाति,समुदाय या पंथ के दो तिहाई से अधिक सदस्य नहीं होंगे”। वही इस महाविद्यालय के प्रबंधन में आरम्भ से आज तक अग्रवाल समाज के अलावा किसी दूसरे समाज के लोगों को शामिल नहीं किया गया है। इतना ही नहीं अधिनियम के बिन्दू ‘घ,च,छ’ में स्टॉफ, अभिभावक और प्रतिष्ठित पुराने विद्यार्थी को आवष्यक रूप से शामिल किये जाने की बात कहीं गई है। इस महाविद्यालय की आरम्भ से आज दिन तक की कार्यकारिणयों में इनमें से भी किसी को शामिल नहीं किया गया है। अब सवाल मान्यता देने और बार्षिक निरीक्षणों को करने वालों की कार्य प्रणाली पर भी खडे होते है कि आखिर उन्होंने क्या देखा? कैसे मान्यता दे दी?

इस कन्या महाविद्यालय में अव्यवस्थाओं का आलम ये है कि अग्रवाल समाज का ये प्रबंधन अपने समाज के अनवरत कार्मिकों को तो लगातार वार्षिक वेतनवृद्धि दे रहा है वही अन्य समाजों के नियमित प्राध्यापकों को ऐसी आवश्यक सुविधा ये वंचित कर रखा हैं। इतना ही नहीं अपनी जाति के प्राध्यापकों को अनावश्यक रूप से बरिष्ठता का दर्जा दिया जा रहा हैं। भेदभाव का आलम ये है कि आजाद भारत के इतिहास में पहली बार एक नवीन पद का सृजन इस महाविद्यालय में कर दिया गया हैं। ‘उपाचार्य कम व्याख्याता’ यही है वो नाम जो अग्रसेन कन्या महाविद्यालय प्रबंधन ने अपनी जाति, रिश्ते और नातेदारी के कार्मिक के लिए सृजित कर दिया है।

अग्रवाल समाज का ये महाविद्यालय विधायक कोटे की राशि के वोट बैंक के आधार पर देने का जीता जागता उदाहरण है। महाविद्यालय को लगातार पैसे देने वाले विधायकों ने भी ये देखने की जहमत नहीं उठाई की प्रबंधन लोकतांत्रिक है या नहीं? बस वोट बैंक के दबाब में राशि दिये जा रहे है। महाविद्यालय लगभग 20 लाख रूप्ये राज्य सरकार के कोटे से ले चुका है। भाजपा के विधायक ग्यारसा राम कोली ने तो प्राध्यापकों की उनसे शिकायत के बाद भी हाल ही में 5 लाख 11 हजार की घोषणा कर दी है। इतनी सरकारी सहायता लेने वाले महाविद्यालय के द्वारा जातीय भेदभाव और द्वेष भावना के साथ काम करना अजूबा लगता है मगर हो रहा है। ऐसे में व्यवस्था पर भी एक सवालिया निशान ये लगता है कि क्यों किसी की नजर में ये बात नहीं आती कि एक जाति का प्रबंधन कैसे लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का क्रियांवयन ठीक प्रकार से कर सकता हैं।

बीते 13 जून को प्राध्यापकों की ओर से स्थानीय भाजपा विधायक ग्यारसाराम कोली को जब अपनी पीड़ाओं का ज्ञापन दिया तो विधायक महोदय ने अपनी अनुशंसा कुछ इस प्रकार की। मंत्री प्रबंध समिति। ”प्रकरण प्रथमदृष्टया उचित प्रतीत होता है मामले की सहानभूतिपूर्ण नियमों का अध्ययन कर कार्यवाही से अवगत कराते हुये उचित न्यायसंगत कार्यवाही करावें”। विधायक ने अपने एक संबोधन में भी कहा कि महाविद्यालय प्रबंध समिति का गठन नियमानुसार करें जिसमें छात्रा अभिभावक और अन्य समाजों के लोगों को भी शामिल किया जाये जिससे समरसता का वातावरण बन सके। प्रबंधन की तानाशाही का आलम ये है कि उसके कान पर विधायक की टिपण्णी और समझाइश के बाद जूं तक रेंगती नजर नहीं आ रही है। प्रबंधन की ओर से प्राध्यापकों पर महाविद्यालय छोडकर चले जाने का दबाब बनाया जा रहा है। वेतनवृद्वि देने के बदले प्रबंधन दोनों प्राध्यापकों पर पूर्व में ही इस्तीफा लिखकर देने का दबाब भी बना रहा है।

प्रबंध समिति का गठन लोकतांत्रिक तरीके से किये जाने और जातीय भेदभाव के खिलाफ लडाई लड रहे ये दो प्राध्यापक हिन्दी और समाजशास्त्र विषय के है। इनका मानना है कि अपने जीवन के अभावों के बीच इस जातीय भेदभाव के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रहे है। हाल में 26 जून से शुरू हुये संघर्ष में प्राध्यापकों ने 16 जुलाई से काली पटटी बांधकर शिक्षण कार्य कराना आरम्भ कर दिया है। प्राध्यापकों की माने तो इस गॉधीगिरी में उन्होंने कस्बे के गणमान्य नागरिकों को खुले पत्र भी लिखे है। प्राध्यापकों की ओर से 28 जुलाई को उपखंड अधिकारी को अपनी पीडाओं और मॉग का ज्ञापन सोंप दिया गया है। इससे आगे की लडाई में प्रशासन को अपनी परेशानी से अवगत कराते हुये अंत में जब न्याय की उम्मीद खत्म हो जायेगी तो 14 अगस्त से उनका आमरण अनशन किया जाना प्रस्तावित है। क्या इसे उच्‍चशिक्षा के एक तंत्र में सही माना जा सकता है? क्या ये शिक्षा की वकालत करने वाले लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है? शायद नहीं। अब ये देखना आगे दिलचस्प होगा कि प्राध्यापकों को आमरण अनशन करना पडता है या फिर इससे पहले ही प्रसाशन के कान पर जूं रेंग जायेगी। अभी तक के हालातों में प्रबंधन ने तो काली पटटी को नजरअंदाज कर तानाशाही रूप ही बना रखा है