विविधा

तुष्टीकरण (आरक्षण) का अनदेखा दृष्टिकोण

-डॉ. मधुसूदन-
reservation-article

****एक याचक, पू. पैगम्बर साहब से भीख मांगने गया था।
****आरक्षण से आरक्षित समाज की हानियां।
****आरक्षित परावलम्बी हो जाता है।
****तुष्टीकरण, पुष्टिकरण नहीं न संतुष्टिकरण है।

(एक) एक शिक्षाप्रद आख्यायिका

एक शिक्षाप्रद आख्यायिका, यहां की मस्जिद के इमाम “तलाल ऐद” ने सुनायी थी।
आख्यायिका कुछ इस प्रकार है, जिसे संक्षेप में प्रस्तुत करता हूं।
एक बार एक (भीखारी) याचक, पैगम्बर साहब से भीख मांगने गया था।
तो, पैगम्बर साहब ने उसे सीधी-सीधी भीख देने के बदले एक सीख दी थी; कैसे, यह जानने के लिए पढ़ें।
आपने, उसे. अपने घर की कुछ वस्तुएं लेकर आने को कहा था। तब वह याचक घर जाकर, एक कम्बल और एक लोटा लेकर आया। शायद यही उसकी कुल सम्पत्ति थीं।
उस समय, पैगम्बर साहब श्रद्धालुओं के बीच ही बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे। उन श्रद्धालुओं के बीच आपने इन वस्तुओं का नीलाम किया, और उस नीलाम से दो दिर्हा में बनाए।
पश्चात पैगम्बर साहब ने, उस याचक को एक दिर्हाम खर्च कर के उस दिन का घर-खर्च चलाने का निर्देश दिया। पर, दूसरे दिर्हाऔम से आपने उसे एक कुल्हाड़ी खरीद दी। और लकड़ी काट कर, बेच कर अपना जीवन निर्वाह करने का आदेश दिया। और कहा कि १५ दिन पश्चात फिर आकर अपना अनुभव बताए।
आश्चर्य की बात, जो, इमाम ने बड़ा हर्ष अपने चेहरे पर लाते हुए, और किसी गुत्थी को खोलते-खोलते जो भाव होता है, वैसे सुनाई थी कि १५ दिन बाद, जब वह भक्त वापस आया, तो, उसके घर खर्च के उपरांत, उसने १० दिर्हाकम बचाए हुए थे। हिंदुओं का कर्मयोग और यह पैगम्बर साहब की शिक्षा, इन दोनों में, कुछ समानताएं अवश्य हैं।

(दो) याचकों को उपदेश

तब पैगम्बर साहब ने भी याचकों के लिए उपदेशात्मक शब्द बोले थे। कहा था, “ये तेरे लिए इसलिए, बेहतर है कि तू कयामत के दिन जब आये तो तेरे चेहरे पे भीख मांगने का दाग ना हो।”
पर आपने कुछ लोगों को याचना करने की अनुमति भी दी थी।
और बोले थे, “सवाल (याचना) करना सिर्फ़ उस शख्स को हलाल है जो सख्त मोहताज़ हो, या, जिसके जिम्मेदारी तावान (अर्थदण्ड) हो या, जिस की गर्दन से खून बहा हो।”
(कुछ शब्द कोश के आधार पर अर्थ लगाया है- लेखक)

(तीन) आरक्षित परावलम्बी हो जाता है।

कानूनी आरक्षण आरक्षित समूह को पंगु बना डालता है; और आरक्षित समाज को आरक्षण की आदत पड जाती है। जिससे, स्वयं के पराक्रम और पुरूषार्थ से आगे बढने की प्रेरणा का अंत हो जाता है।
इसी के कारण ऐसे परिवारों में जन्मे बालक भी संभवतः आलसी और दूसरों पर निर्भर होकर ही जीवनयापन करने में हीनता अनुभव करते हैं। पढ़ने लिखने को प्रोत्साहन नहीं बचता। आत्मविश्वास जाग्रत नहीं हो पाता।
जीवन में स्वयं के पराक्रम और पुरूषार्थ से ऊपर ऊठने की जो आध्यात्मिक प्रेरणा है, और उपलब्धियों का जो गौरव होता है; उसका अंत हो जाता है।

(चार)मेरे सहपाठियों का अनुभव

मैंने बिना किसी भेदभाव मेरे साथ पढ़नेवाले इस्लाम धर्मियों को भी आगे बढ़े हुए पाया है।
हम अपना भविष्य अपने हाथ में रखकर ही स्वतंत्र हुआ करते हैं।
पैगम्बर साहब की यह आख्यायिका यहां के इमाम के मुखसे सुनी थीं; जब RUAH (रूह) नामक संस्थाने “व्यवसाय और आध्यात्मिक उन्नति” (Work and Spirituality) विषय कुछ वर्षों पहले संवाद आयोजित किया था जिसमें यहुदि, इसाई प्रोटेस्टंट, इसाई कॅथोलिक, इस्लामी, हिंदू, और बौद्ध धर्मों के प्रतिनिधियों की सम्मिलित गोष्ठियां रखी गयी थी। मेरे द्वारा सनातन हिंदू धर्म का दृष्टिकोण रखा गया था। मैं ने कर्म योग को अमरिकी संदर्भ में प्रस्तुत किया था।
वहां क्विन्सी (मॅसॅच्युसेट्ट्स ) मस्जिद के, इमामश्री. “तलाल ऐद” ने इस सुन्दर और शिक्षाप्रद आख्यायिका का आधार लेकर चर्चा की थी। मुझे वह आख्यायिका सभी के लिए शिक्षाप्रद प्रतीत तब भी हुयी थी, जिसको मैं ऊपर शब्दांकित कर चुका हूं।

(पांच) बंधुभाव का उदय- दीनदयाल जी के विचार

एक ऐसा ही अनदेखा अलग दृष्टिकोण जो, मैंने दीनदयाल जी के विचारों में पढा हुआ स्मरण है; जो, मुझे कुछ झकझोर ही गया था। पहली बार पढनेपर स्वीकृति भी कठिन ही प्रतीत हुयी थीं। विचार करने पर सही लगा था।
दीनदयालजी किसी कानून द्वारा सदा के लिए, जनता को सहायता देने का विरोध व्यक्त करते हैं।
उस का कारण जैसा मुझे समझ में आता है; लिखता हूं।
समाज में आपसी सहायता से ही बंधुभाव का उदय होता है। सहायता देनेवाला देकर अपनत्त्व व्यक्त करता है। और लेनेवाला लेकर कृतज्ञता जताता है। यह अपनत्व और यह कृतज्ञता समाज को बांध कर रखती है। यह बंधना ही तो बंधुत्व है। जब एक राष्ट्र (देश) प्रधान रूप से ऐसे बंध जाता है, तो वह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति है। इसी प्रकार परस्पर बंधन के जाल का विराट स्वरूप हमारी राष्ट्रीयता अद्भुत हो जाती है।
इससे विपरीत, आज अमरिकी समाज की सामाजिक दुर्बलता का एक कारण “सोशल वेलफेयर” प्रणाली का होना ही है। ऐसा शासन पर अवलम्बित समाज बंधुभाव अनुभव नहीं कर पाता।जो मिलना है, कानून से मिलता है। तो कृतज्ञता और अपनत्व नहीं अनुभव करता और न जीवन की उपलब्धियां प्राप्त कर गौरव का अनुभव कर पाता है।
ऐसा जब देखता हूं तो सोचने पर, मुझे दीनदयाल जी के विचार नितान्त सही लगते हैं।

(छः) आरक्षण से आरक्षित समाज की हानियां।

तुष्टीकरण समाज के पुरुषार्थ और स्वावलम्बन को प्रोत्साहन नहीं देता।
इसके कारण समाज सदा के लिए परावलम्बी होने की संभावना बढ़ जाती है।
ऐसी तुष्टीकरण की, बैसाखी पर चला तो जा सकता है, पर दौड़कर आगे नहीं निकला जाता।
तुष्टीकरण समाज को पुष्ट (समृद्ध) नहीं करता, इसे पुष्टीकरण नहीं कहा जा सकता।
और संतुष्टिकरण भी नहीं है। और, भारत में तुष्टीकरण अन्य समाज से वैमनस्यता बढ़ा देता है। एकता के बदले अलगाव का कारण बन जाता है। तो कठिनाई इसकी है कि कैसे अलगाव से लगाव प्रोत्साहित करें? और समाज का आत्मविश्वास भी नहीं जगा सकता।
तुष्टीकरण किसी भी समाज को परस्वाधीन बना डालता है।
तुष्टीकरण से अल्पकालिक और अस्थायी लाभ शायद हो, पर स्थायी दीर्घकालीन लाभ नहीं होता।
अल्पकालिक सहायता और लाभ के लिए, दूसरी व्यवस्थाएं की जा सकती है।
और तुष्टीकरण समाज और राष्ट्र को विघटित भी करता है। आपस में परस्पर वैरभाव को जन्म देता है। दीर्घकालिक विघटन और शत्रुता निर्माण करता है।

(सात) स्वाधीनता, पराधीनता की विरोधी है।
Independence और Dependence परस्पर विरोधी हैं।
सारे अल्पसंख्यक हितैषी चिंतकों के लिए, सोचने का अवसर अब भी है।

प्रवक्ता ने जो प्रोत्साहन इन बंधुओं को दिया है, उसका आदर करता हूं।
बहुत बार सर्व श्री इकबाल हिंदुस्थानी, तनवीर ज़ाफरी, इत्यादि लेखकों को पढ़कर
हर्षित होता रहा हूं। मैं भी, इस्लामी भारतीय बंधुओं का हितैषी हूं।
इन इस्लामी मित्रों के सामने चुनौती है।
आज इस्लामिक समाज ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां से दो पथ अलग अलग दिशा में जाते हैं। सोचने पर मुझे लगता है कि तुष्टीकरण पराधीनता बढ़ा देता है। समाज को परवश बना डालता है।
सारा तुष्टिकरण आप को परवश (Dependent) या परतंत्र बना डालता है, और ऐसी परवशता (Dependence) या परतंत्रता आपको स्वतंत्रता (Independence) नहीं दे सकती। अंग्रेज़ी में Long term Dependence is unlikely to lead to Independence. दीर्घकालीन, परतंत्रता आप को स्वतंत्रता की ओर नहीं ले जा सकती। उलटे अधिकाधिक परवशता,परावलम्बीता आपको( Dependent) बना सकती है।

पैगम्बर साहब ने भी, भीखारी को कुल्हाड़ी खरीद कर दी,पर भीख देकर दूसरों पर निर्भर नहीं बनाया; न उसे परवश (Dependent) बनाया।

(आठ) चिंतक विचार करें।

(मित्रता के प्रेमभाव से लिखता हूं।)
जब तक आंख दूसरों के दोष ढूंढ़ने में व्यस्त रहेगी, तब तक उसे अपने दोष देखने का समय ही नहीं मिलेगा। और मनुष्य एक समय में, ध्यान देकर एक ही काम कर सकता है।
जो बुद्धि और शक्ति वकालत में लगायी जाती है, उसे अपने समाज को ऊंचा उठाने में भी लगाई जा सकती है। सत्य का शोध या सच्चाई का अन्वेषण करने के लिए, अपने पूर्वाग्रहों से पहले मुक्त होना पड़ता है। अर्थात अपने आप से मुक्ति, उसी प्रकार अपनी ही रट्टामार विचार करने की आदत से भी मुक्त होना पड़ता है। यदि ऐसा कर पाए तो इस्लाम और अन्य पिछड़े बंधु भी ऊंचे उठ पाएंगे।
यदि ऐसा नहीं कर पाए तो आप अपने ही खूंटे से बंधकर चक्कर काटते रह जाएंगे।
मस्तिष्क में विचार डोमिनो की भांति अपनी रट पर दौड़ते हैं। और दौड़कर बार बार उसी पूर्वनिर्धारित अंतिम स्थिति या स्थान पर पहुंचते हैं। और जाना पहचाना विचार करने की विधा आपको वैचारिक चक्कर कटवाकर बार-बार उसी बिंदू पर लाएगी, जहां से आप चले थे।
जाना पहचाना मार्ग आप को कभी अनजाने पथ का दर्शन नहीं करा पाएगा।
और सब से पहले, जाना पहचाना तो आपका मन ही होता है। तो यह मन ही आप को बंदी बना लेता है।
इस सच्चाई को ठीक-ठीक समझ कर इस पर मनन करने की आवश्यकता है।
इस विषचक्र व्य़ूह के प्रति सजग रहकर विचार करें, तो फिर आप अपने मन से भी पार निकल सकते हैं।
जाने पहचाने रटे रटाए का अस्त हुए बिना, उसकी जगह अनजाना सुलझाव नहीं आ सकता।

(नौ) ध्यान समाधि

और ऐसी जाने पहचाने का अंत करने की विधि ही ध्यान समाधि कहलाती है जिस अवस्था में जाने पर आप अपना नाम, लिंग, राष्ट्रीयता, मज़हब या धर्मनाम, इत्यादि भूलकर रूह (आत्मा) की ही पहचान पाते है। बाकी सारी पहचानों से ऊपर उठ जाते है। तो स्वयं प्रकाशित सत्य आप के सामने खुल जाता है।
भेदभाव समाप्त हो जाता है। चराचर सृष्टि में व्याप्त स्पंदन का अनुभव होता है। सारी अलग नाम-रूप पहचाने ही अंत हो जाती है।
इसी से नया रास्ता खुल जाता है।
आप बुद्धिमान विचारकों पर, एक बड़े समाज का उत्तरदायित्व है, उसका निर्वाह कर पाए तो कल का भविष्य उज्ज्वल होने की संभावनाएं हैं। शुभेच्छाएं।