प्रकृति ओर पर्यावरण के सुरक्षा कवच वृक्षों को बचाए रखें

    

              आत्माराम यादव पीव

      आज हमें प्रकृति की आवश्यकता है, प्रकृति का सुरक्षा कवच वनक्षेत्र है, वनों की पहचान वहाँ उगने वाले वृक्षों से है ओर यही वृक्ष हमारे पर्यावरण के लिए हमे जीवांदायिनी वायु प्रदान कर हमारी सुरक्षा के कवच बने हुये है। हम परंपरागत होली का पर्व मनाने के लिए हर साल लाखों वृक्षों का विनाश कर व्प्नि सुरक्षा में खुद ही सेंध लगाकर अपने खुद के लिए भस्मासुर बने हुये है। आवश्यकता है जल के साथ वनों की सुरक्षा करने की ताकि इन्सान अपनी सुरक्षा हेतु विभिन्न पर्यावरण के साधनों की सुरक्षा का आवरण धारण कर न केवल प्रकृति बल्कि वनों पहाड़ों में निवास करने वाले समस्त जीवों के लिये वरदान साबित हो सके। वन प्रदेश के आसपास के नगरों सहित उनके अंचल के बसे गांवों में होली पर जिस प्रकार लाखों वृक्षों को होलिकादहन में आहुती दे रहे है ओर उसी परंपरा को पागलपन तक हठधर्मिता से अपनाने वाले शहरी  भी अपने आसपास के पेड़ पौधों को होली में झोकने के लिए पर्यावरण के आवरण का ध्वस्त कर रहे है वह एक विचारणीय प्रश्न है जिसपर प्रतिबंध लगाने हेतु समाज को सजगता के साथ पहल कर रोकना होगा वरना हम प्रकृति के सम्मान में पूरे विश्व में पर्यावरण दिवस के रूप में 5 जून का महोत्सव की ओपचारिकता का निर्वहन कर खुद प्रकृति की तरह तिल तिल झुलसने को विवश होंगे।

      वन प्रकृति के लिये सुरक्षा कवच का ही नहीं अपूर्ति श्रृंगार का भी कार्य करते है। वन में हरे-भरे वृक्ष लतायें, झाडिय़ॉ फल और फूल होते हे वे निवास स्थान होते है। भोरों, नाचती गाती तिलियॉ, पशु पक्षियों का मानव जाति की रक्षा करने वाली अमूल्य संपदा ये वन ही होते है। वृक्ष की महत्ता आदि काल से ही भारतीय संस्कृति और सभ्यता में पूजनीय रही है कुछ वृक्ष जैसे नीम, पीपल, अशोक ये न केवल शुद्ध आक्सीजन का स्त्रोत है बल्कि ये वृक्ष सदियों से मानव जाति के लिये पूजनीय रहे हे। वृक्ष मूल रूप से मिट्टी के रक्षक है, वे न केवल आँधियों के तीव्र वेग को रोकते है वे मिट्ïटी को उड़ने से बचाते है। वृक्ष की जड़े पर्वतों की चट्टानों को मजबूती से पकड़े रहती है जिससे मिट्ïटी की सुरक्षा होती है और मिट्ïटी का वो उपजाऊ भाग जो ऊपरी परत के रूप में जाना जाता है संरक्षित रहता है। हवा की शुद्धता, शीतल इन्हीं पेड़ पौधों और वृक्ष होती है। वृक्ष ही वर्षा के होने या न होने के लिये जिम्मेदार है। जहॉ-जहॉ वृक्षों व वनों को असीमित रूप से काट दिया गया है वहॉ वर्षा होना ही रूक गयी है, ये वर्षा ही फसल के लिये आवश्यक है इससे मनुष्य जीवित रहता है। वातावरण की अस्वच्छ हवा को शुद्घ करने का काम भी प्रकृति के ये वन ही करते है, यदि निजी स्तर पर भी प्रत्येक व्यक्ति प्रदूषण कम करने पर कन्धे से कन्धा मिलाकर संकल्प ले ले कि वह न प्रदूषण फैलाया न ही किसी को फैलाने देगा तो पर्यावरण के लिये वरदान होगा ये संकल्प आज सभी के लेने कि आवश्यकता है।

      देखा जाये तो सदियों से हमारे पूर्वजों के प्रयासों से प्रकृति से उनकी घनिष्ठता रही है ओर वे प्रकृति को संतुलित पर्यावरण कायम रखे जाने हेतु सभी प्राणियों के समुचित विकास के लिये पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन…शुद्ध, जल, वायु, भौतिक सुख सुविधा सम्पन्न जैवित गुणों से युक्त धरती, वन सम्पना आदि प्रकृति की ऐसी देने है अग्रणी रहे है ताकि इनसे यह धरती प्राणियों के रहने योग्य बनी रही । जब तक मनुष्य ने प्रकृति के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की तब तक यह वसुंधरा भी स्वर्गादपि गरीयसी बनी रही लेकिन जैसे ही मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेक शील दोहन करना प्रारम्भ किया। विकास के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़ प्रारम्भ की। आर्थिक और सामाजिक वर्जनाओं की उपेक्षा की उसी समय से विनाश प्रारम्भ हो गया सच तो यह है कि जलवायु अथवा भूमि के भौतिक गुणों को हानि पहुचाने वाले प्रयासों ने ही पर्यावरण को सबसे अधिक प्रदूषित किया है ओर आज प्रगति और विकास के नाम पर हमने जिस प्रकृति का विनाश कर उसके दुष्परिणाम का स्वाद अति वृष्टि, अतिगर्मी, अतिसर्दी  अर्थात मौसम के चक्र को बदल इंसानियत को नष्ट करने के लिए कहीं भूकम्प तो कहीं विनाशकारी बाढ़, कहीं भयानक सूखे तो कहीं कैसर और कही कोरोना जैसे जान लेवा रोगों को आमंत्रित कर मनुष्यता पर गहरा संकट खड़ा कर लाखों जीवनहंता बने हुये है।    

      आज भारत ही नहीं अपितु समूचा विश्व अरबों रुपए प्रकृति को प्रदूषण से बचाने के लिये खर्च कर अपने अपने देश के वायुमण्डल में आक्सीजन व कार्बनडायआक्साइड का संतुलन बनाने जुटे है ताकि आज की बढ़ती जनसॅख्या के कारण जल, वायु इत्यादि समस्त प्राकृतिक संसाधनों की कमी से निपटते हुये प्रकृति को बचाया जा सके। सरकारे प्रतिदिन वृक्षारोपण के साथ हर जिलों में करोड़ों पौधे लगाने की आवश्यकता पर काम कर रही है, हमारे नर्मदापुरम संभाग में भी 7 करोड़ पौधरोपन हौआ किन्तु वह जमीन पर दिखा नहींम संभवतया आपके जिले में प्रदेश में भी यही परिणाम रहे हो या धरती के प्रति आपकी निष्ठा ने ईमानदारी रही हो तो आपके यहा की धरती अवश्य ही हरे-भरे वृक्षों से लहलहा रही हो। जिस प्रकार बूंद-बूंद से एक घड़ा भर जाता है उसी प्रकार यदि प्रत्येक मनुष्य अपने सम्पूर्ण जीवन में एक वृक्ष लगाने तथा उसे बड़ा होने तक सुरक्षित रखने का कार्य करे तो सरकारी खजाने से इस अपव्यय को रोका जाकर उसे मानवीय मूल्यों से जोड़ा जाकर पर्यावरण के साथ प्रकृति के उपकार के बदले मिलने वाली आक्सीजन का ऋण चुकाया जा सकता है ओर आपका यह प्रयास पृथ्वी को हरा भरा रखने के लिये पर्याप्त तो होगा ही वही होली जैसे पर्वों पर इंनसे बचाव कर लकड़ी के स्थान पर कंडों/ गाय के गोबर के उपलों को होली जलाकर पेड़ों को जीवन दिया जा सकता है।

      आधुनिकता के नाम पर हम सुविधा के जिस यांत्रिक व्यवस्था के गुलाम हो गए है वे सभी डीजल-पेट्रोल व गैस जैसे ईधनों से चलने वाले साधन है। वाहनों से कार्बनडाय आक्साइड, सल्फर डायआक्साइड, नाईट्रोजन कार्बनमोनो आक्साइड जैसी विषेली गैसे इन्डस्ट्रीज से निकलने वाला जहरीला प्रदूषण और ऊपर से ईंधन व अन्य सूक्ष्म लाभों के लिये मनुष्य हरे-भरे जंगलों को अंधा होकर काटता चला जा रहा है, परिणाम ये है कि प्रकृति का तापमान सामान्य से अधिक होता जा रहा है और बाढ़सूखा, भूचाल जेसे अप्राकृतिक घटनायें इस प्रकार घटित होती है कि मानों प्रकृति अपना क्रोध प्रकट कर रही हो और लाखों करोड़ों की सॅख्या में मनुष्य काल ग्रस्त हो रहे है, भुज का भयंकर भूचाल उत्तराचंल केदारनाथ की बाढ़, सहित आने वाली कई सुनामी जिससे शहर के शहर तबाह हो गए ओर यह विनाश साल दर साल समूचे देश के किसी न किसी शहर की आपदा के रूप में दिख रहा है, मुंबई बाढ़ की चपेट में विनाश के लिए मिटने को तत्पर है वही देश के हर प्रदेश में इस प्रकार के हालत देखे जा सकते है, रही सही कसर को भूकम्प की विभीषिका नष्ट कर प्रकृति से मानव की छेड़छाड़ की चेतावनी है। हम भूल गए है की प्रकृति का अत्यधिक दोहन का ही परिणाम है कि धु्रवों पर तापमान में वृद्घि के कारण बर्फ का पिघलना, प्राकृतिक संसाधनों को एक सीमा से अधिक दोहन प्रकृति के अस्तित्व को चुनौती देने का ही भयंकर परिणाम हमारे सामने आ रहे है किन्तु मनुष्यता ने अपने नेत्र बंद कर लिए है ओर जो दिखता है वह खुद के लिए नहीं अपितु जो मनुष्य उसका शिकार हो रहे है, उसके लिए मानकर खुद कल्पना लोक के उबर नहीं पा रहे है। 

            भारतीय कानून इस पर्यावरण हेतु पूरी तरह सजग है। तरह-तरह के आवश्यक कानून समय-समय पर भारतीय सरकार पारित कर ही रही है। वन अधिनियम एक हरे-भरे वृक्ष को काटने पर उसी प्रकार दंडित करता है जैसे चोरी-डकैती या अन्य आपराधिक कृत्यों पर भारतीय दण्ड संहिता दंडित करती है आज डीजल वाहनों पर प्रतिबंध पर्यावरण सुरक्षा के लिये उठाये गये सुरक्षात्मक नियम ही है, आज समस्त दिल्ली में डीजल जैसे ईंधन से निष्कासित प्रदूषण को रोकने के लिये भारतीय उच्च न्यायालय ने स्वयं हस्तक्षेप किया है और निर्देशित किया है कि कम प्रदूषण वाले ईंधन का प्रयोग वाहनों को चलाने के लिये इस्तेमाल किया जाये, परिणाम सामने आने लगा है, आज दिल्ली में प्रदूषण स्तर में अत्याधिक चौकाने वाली गिरावट आयी है। जब-जब मानव जाति एक सीमा से निकल कर अपने स्वार्थ के लिये प्रकृति का अत्याधिक दोहन करती है प्रकृति रोष पकट करती हे, भयंकर महामारी, प्राकृतिक आपदाओं के रूप में मनुष्य को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। प्रदूषण अधिनियम भी पर्यावरण की सुरक्षा दृष्टि से ही जारी किया गया है जिसके अन्र्तगत यदि कोई भी व्यक्ति अपने किसी कृत्य से प्रदूषण का स्तर मानक स्तर से अधिक फैलाता है उसके विरूद्घ दण्डात्मक प्रावधान है, उसे न केवल आर्थिक बल्कि शारीरिक दण्डात्मक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है किन्तु राजनैतिक परिपक्ता ने ये सारे कानून किताबों में सीमित कर रखे है ओर इनके पालन कि सीमाये विभागीय अधिकारियों कर्मचारियों के लिए दूध देने वाली कपिला गाय है जिसका वे वही उपयोग करते है जहा उनकी पाकेट मनी बढ़े शेष स्थानों पर ये अनुपयोगी ही है।

      अति सर्वत्र वर्जयेत अर्थात अति प्रत्येक चीज को बुरी होती है, अप्राकृतिक घटनायें एक चुनौती है, मानव जाति के लिये एक सन्देश छोड़ जाती है कि कुछ कर्तव्य हमारे भी है इस प्रकृति के लिये आओं हम सब मिलकर इस पृथ्वी  को हरा भरा बनाये, जहॉ तक सम्भव हो अपने निजी स्तर पर प्रदूषण में कमी लाये सरकार द्वारा समय समय पर जारी कानूनों का पालन करें, मान्यता  प्रदान करें तथा ठीक से पालन न करने वाले प्रत्येक व्यक्ति समाज में वह चाहे कितने भी बड़े ओहदे पर आसीन हो उसको भी उसका कर्तव्य याद दिलाये यदि फिर भी वह नहीं मानता है तो उसे कानून की अवहेलना करने पर उसके विरूद्घ दण्डात्मक कार्यवाही करने से भी न हिचकें तभी हम सच्चे मायने में इस धरती पर प्रकृति को सुरक्षा कवच दे कर उसकी रक्षा कर सकेंगे ओर होली या अन्य किसी भी परंपरागत पर्व पर वृक्षों कि आहुती पर पूर्णविराम दे सकेंगे।

आत्माराम यादव पीव

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