पुनर्मूषको भव :

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यह कहानी बहुत पुरानी है। आपने भी जरूर सुनी होगी। एक बार एक चूहा अपनी दीन-हीन स्थिति से बहुत दुखी हो गया। उसके सिर पर हर समय बिल्ली का खतरा छाया रहता था। बिल्ली उसके सैकड़ों रिश्तेदारों को खा चुकी थी। जब भी बिल्ली के घर कोई मेहमान आता, वो किसी बच्चे को भेज देती, और वह दो-चार चूहे पकड़ लाता।

पर एक दिन तो हद हो गयी। चूहे के बेटे का जन्मदिन था। उस दिन कुछ विशेष व्यंजन चुहिया ने बनाये थे। सब लोग भोजन कर रहे थे कि बिल्ली रानी आ टपकीं। उसने इतनी प्रतीक्षा भी नहीं की कि भोजन निबट जाए। उसके झपाटे में चूहे का सारा परिवार आ गया। केवल चूहा ही जैसे-तैसे बिल में घुस पाया। जान बची तो लाखों पाये..।

बस, चूहे ने उसी समय तय कर लिया कि चाहे जो हो, पर अब कुछ करना ही होगा। उसने पुस्तकालय में जाकर कई ग्रंथ कुतरे, तो ध्यान में आया कि बिल्ली से छुटकारा पाना सरकार के बस की बात तो है नहीं, इसके लिए तो सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा जी को प्रसन्न करना होगा। पहले भी बहुत से प्राणियों ने ऐसा किया है। सो वह बिल में सिर के बल खड़ा होकर तपस्या करने लगा।

दिन, महीने और साल बीत गये; पर चूहा पीछे नहीं हटा। पूरा शरीर सूख कर पूंछ जैसा हो गया। रिश्तेदारों ने मना किया। मोहल्ले वालों ने भी समझाया कि सदियों से ऐसा होता रहा है और आगे भी ऐसा ही होगा; पर चूहा टस से मस नहीं हुआ। उसने सोच लिया कि अभी नहीं तो कभी नहीं। आखिर उसकी तपस्या रंग लायी। ब्रह्मा जी प्रकट हो गये और उससे वरदान मांगने को कहा।

चूहे ने कहा कि मुझे बिल्ली के आंतक के साये में हर समय रहना पड़ता है। इसलिए मुझे आप बिल्ली बना दें। ब्रह्मा जी ने तथास्तु कहा और चले गये; लेकिन बिल्ली बनकर वह चूहा जैसे ही बाहर निकला कि एक कुत्ता उस पर झपट पड़ा। उस बेचारे को पेड़ पर चढ़कर जान बचानी पड़ी। उसने फिर तपस्या की और क्रमशः कुत्ता, शेर, आदमी और पहाड़ बन गया; पर एक चूहे को पहाड़ में बिल खोदते देख वह फिर से चूहा ही बन गया। इसी को ‘पुनर्मूषको भव’ कहते हैं। यही राग इन दिनों भारतीय राजनीति में गाया जा रहा है। इस बार इसका माध्यम बनी है वोट मशीन।

वोट मशीन का प्रयोग कई साल से हो रहा है। इससे चुनाव का खर्च तो घटा ही, परिणाम भी जल्दी आने लगे। बूथ लूटने का गंदा खेल भी बंद हो गया। शायद ही कोई दल हो, जिसने इसकी गणनाओं के बाद सत्ता न पायी हो। पिछली बार उ.प्र. में अखिलेश भैया को पूर्ण बहुमत मिला। इससे पहले मायावती ने यह कमाल दिखाया था। तब तो वे वोट मशीनों के समर्थक थे; पर इस बार जब आंकड़े उनके विरुद्ध गये, तो उनके पेट में दर्द होने लगा है। दिल्ली में कांग्रेस लगातार 15 साल सत्ता में रही। तब तो उसने कुछ नहीं कहा; पर उसके पापों के चलते पिछली बार वोट मशीनों ने केजरी ‘आपा’ को 67 सीट दे दीं। उन्होंने खूब जश्न मनाया; पर पंजाब और गोवा में जब उनके चेहरे पर झाड़ू फिर गयी, तो इसका कारण वे वोट मशीन को बता रहे हैं। इसी को कहते हैं ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा।’

अर्थात अखिलेश हों या मायावती या फिर केजरीवाल। सबको खोट अपनी नीतियों में नहीं, वोट मशीनों में लग रहा है। कांग्रेस के सुपर लीडर तो अभी चुप हैं; पर उनके कुछ साथी इसका विरोध कर रहे हैं। राहुल बाबा ने चुनाव में काफी काम किया है। इसके परिणाम उनके लिए तो नहीं, पर देश के लिए अच्छे रहे। सुना है अभी वे थकान उतार रहे हैं। जब वे काम के मूड में आएंगे, तब देखेंगे कि क्या कहते हैं ?

वोट मशीन विरोधियों की राय है कि चुनाव उसी पुरानी ‘पर्चा प्रणाली’ से हों; पर खतरा यहां भी है। इन पर्चों से भी कई बार भारी हार और जीत हुई है। 1977 के लोकसभा चुनाव में पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस साफ हो गयी थी। इंदिरा गांधी और संजय गांधी तक चुनाव हार गये थे। यदि पर्ची प्रणाली लाने के बाद फिर ऐसा हो गया तो.. ?

तो शायद ये लोग फिर से राजतंत्र की मांग करेंगे। उस खांचे में ये सब फिट भी बैठते हैं। कांग्रेस में पिछले 70 साल से, तो स.पा. में 30 साल से राजतंत्र ही है। बाप या मां के बाद भाई, बेटा, बेटी या दामाद को विरासत मिल जाती है। मायावती ने भी अभी अपने भाई को नंबर दो बनाया है। केजरीवाल की पार्टी तो अभी शिशु अवस्था में ही है। उसमें आगे क्या होगा, ये शायद उन्हें भी नहीं पता।

वैसे वोट मशीनों से चुनाव कांग्रेस ने ही शुरू किया था। तब भा.ज.पा. वाले इसके विरोधी थे; पर अब वे इसके समर्थक हैं। यानि मुद्दा वोट मशीन नहीं, जीत या हार है। ‘मीठा गड़प और कड़वा थू’ वाली इस राजनीतिक उलटबासी को समझना बहुत कठिन है। ताजी खबर ये है कि अगले लोकसभा चुनाव पर्ची वाली वोट मशीन से होंगे। आप देखना, ये पराजित नेता इसका भी विरोध करेंगे। क्योंकि ‘पुनर्मूषको भव’ का सिद्धांत कल की तरह आज भी सच है और आगे भी रहेगा।

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