राजनीति

पंच परमेश्वर की अवधारणा और ग्राम स्वराज

1zcfp1uसाहित्य, सिनेमा, कला आदि हर विधा में आज भले ही गाँव, गरीब, किसान, पंचायत आज कही नहीं हो, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। लोक-रुचि की हर विधा में ग्रामीण परिवेश पहले बिखरा पड़ा होता था। या ऐसा भी कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अभिव्यक्ति का हर रास्ता पहले गाँव के चौपालों से हो कर ही गुजरा करता था। पंचायत की बात करते समय सहसा प्रेमचंद्र उसके प्रतिनिधि रचनाकार के रूप में सामने आते हैं। आज भी मुंशी जी का पंच परमेश्वर हर गंवार को प्रेरित करता है। ऐसा ही गाँव से जुड़े कई संस्मरण इस लिक्खार का भी है।

उत्तर भारत के कई गाँव को मिलाकर बना पंचायत। पंचायत के दो गाँव के कुछ गणमान्य लोग फैसला लेने बैठे हैं। दूसरे गाँव में व्याही गयी एक महिला को पहले गाँव के दुल्हे ने घर से निकाल दिया है। आरोप-प्रत्यारोपों का दौर जारी है। सहसा एक आवाज़ पीछे से आती है कि अरे मुखिया जी की शादी भी तो दुल्हन के गाँव में ही हुई है ना। यदि लड़का अपनी बहू को स्वीकार नहीं करता है तो हम भी अपने मुखियाइन को अपने गाँव में नहीं रखेंगे। ठहाकों का दौर चलता है और सभा समाप्त। आदर के साथ दुल्हन अपने ससुराल वापस चली जाती है। कही किसी अदालत में जाने की ज़रुरत नही। किसी भी हिन्दू विवाह अधिनियम को खंगालना नहीं पड़ा, कोई कोर्ट फीस नहीं। वकीलों का झंझट नहीं, और मामला ख़तम। ऐसा ही हुआ करता था दो दशक पहले तक का ग्राम-स्वराज। सैकडों ऐसे पंचायत थे जहां कभी किसी ने पुलिस को देखा भी नहीं था। गाँव के लगभग सभी झगडे आपस में ही सुलझा लिये जाते थे। डॉ. आंबेडकर के अनुसार हमारे यहाँ पंचायते इतनी मज़बूत थी कि हम दिल्ली के तखत को भूल गये। लेकिन फिर आया वैश्वीकरण का ज़माना लोगों ने दुनिया देखी, संविधान में 73वा संशोधन कर पंचायती राज को विशद कानूनी अधिकार मिलना शुरू हुआ और ख़तम हो गये चौपाल की सादी रंगीनियत। शुरू हो गया अधिकारों के लिये लड़ाई का दौर, ख़तम हो गया बाबूजी का गाँव। लड़ने लगे लोग, आने लगे दरोगे, होने लगा महाभारत। एक ऐसा महाभारत जिसमें किसी को भी हस्तिनापुर का राज-प्रसाद नहीं मिलना था।

तो जैसा बाबा साहब ने कहा था सही में पंचों को दिल्ली के तखत से कोई ज्‍यादा मतलब नहीं था। यहाँ तक कि आजादी के आन्दोलन हुए, देश आज़ाद भी हुआ लेकिन सामान्यतया ग्राम पंचायतों को अपनी प्रणाली बदलने की ज़रुरत नहीं हुई। बिना किसी राजनीतिक अधिकार के भी मोटे तौर पर पंचायत अपने सीमा का शेर बना रहा। हजारों साल की यह प्रणाली विभिन्न झंझावातों से भी अछूता ही रहा। जैसा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था, ध्यान देने की बात यह है कि हमारे भारत में प्राचीन काल में पंचायत प्रणाली आज के सामान शासन-सत्ता की स्वैर इच्छा के अनुसार चलने वाली नहीं थी। उन्हें समाज में स्वायत्त एवं स्वयम्भू घटकों का स्थान प्राप्त था। राजा उन्हें कोई आदेश नहीं दे सकता था। राजा की एक समिति होती थी और ग्राम पंचायतों के प्रतिनिधि इन समितियो में हुआ करते थे। इस प्रकार ग्राम पंचायतों की सम्मति राजा को माननी पड़ती थी। राजा कि समीति विधान बनाने के लिये नहीं केवल कार्य चलाने के लिये होती थी। ग्राम-पंचायतें राजा कि कृपा पर निर्भर नहीं होती थी प्रत्युत राजा ही उनके आधार पर खडा होता था। हिन्दू कल्पना के अनुसार सरकार के अत्यंत सीमित कार्य हैं। अस्तु! अभी यूपीए सरकार द्वारा पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की गयी है। हालाकि छत्तीसगढ़ समेत कई राय सरकारों ने ऐसी व्यवस्था अपने यहाँ पहले से ही करके रक्खी है। निश्चित ही महिलाओं के लिये आरक्षण एक अच्छा कदम है। लेकिन यह भी केंद्र से सीधे रायों पर क्यू थोपा जाए? अगर यह इतना ही अच्छा और क्रांतिकारी कदम है तो बार-बार वादा करने के बाद भी उसको आपने पहले विधायिका में क्यूँ नहीं लागू किया? इसी तरह से दो बच्चों तक की संख्या वाले अभिभावकों को ही पंचायतों में चुनाव लड़ने देकर जनसंख्या नियंत्रण का कर्तव्‍य पंचों के मत्थे, लेकिन नौ बच्चे पैदा कर भी केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री बन जाने का सुख आपको चाहिये। लाखों भ्रष्टाचार करने के बाद भी जनप्रतिनिधियों को बेशर्मी से अपने पद को सुशोभित करने दिया जाय लेकिन पंचों को वापस बुला लिये जाने के लोहिया प्रयोग की शुरुआत गाँव से हो। यानी अधिकारों की सारी रावडी केंद्र को और कर्तव्यों का प्रयोग या प्रयोगों का कर्तव्य गाँव के लिये। मौलिक सवाल ये है कि हर तरह के प्रयोग के लिये गिनी-पिग की भूमिका पंचायतों के लिये ही क्यू हो? गौर करें, जब पंचायतों के लिये कुछ अच्छी बात सोची जाए, कोई राशि की व्यवस्था करनी हो तो वह दिल्ली और राज्‍यों की राजधानी एवं सम्बन्धी जिलों से रिसते हुए राजीव जी के शब्द में कहू तो पंद्रह फीसदी रकम ही गाँव तक पहुच पाये। लेकिन अगर आपको कोई प्रयोग करना हो तो सीधे वह गाँव पर थोप दें।

तो विकास का यहाँ सारा माडल जो है उसको कम से कम गांवो के मामले में बदलने की ज़रूरत है। अर्थशास्त्र का एक पश्चिमी सिद्धांत है जिसको थ्योरी ऑफ़ परकोलेशन कहते हैं यानी रिसने का सिद्धांत। उसके अनुसार जब भी कहीं पूजी इकठ्ठा होगा तो वो पानी की तरह रिसकर नीचे तक भी जाएगा। राजीव जी के सुपुत्र राहुल के अनुसार अब रिसने का यह आकड़ा दस फीसदी तक आ कर अटक गया है। यानी नब्बे प्रतिशत रकम तो रास्ते में ही सूख जा रहा है। तो विकास के इस अधोगामी प्रारूप को उर्ध्वगामी बनाना होगा। सरल शब्दों में कहा जाये तो पानी की तरह विकास को केंद्र से रिसकर नीचे नहीं लाना है अपितु आग की तरह उसको नीचे से ऊपर ले जाने की ज़रूरत है।

जिन लोगों का गाँव से वास्ता रहा है वह बेहतर जानते हैं कि बीस साल पहले का गाँव अधिकतर मामलों में आत्मनिर्भर था। वहाँ विनिमय के साधन के रूप में रूपये की भूमिका न्यून थी। काम के बदले अनाज का कार्यक्रम भले ही सरकारों ने आज शुरू किया हो लेकिन गाँव में ज़रूरत की लगभग सभी चीज़ें अनाज के बदले ही ख़रीदी जाती थी। ना केवल उत्पाद वरन सेवा प्राप्त करने का साधन भी अनाज ही हुआ करता था। नाइ, धोबी, बढ़ई, चर्मकार, तेली, साहूकार, मजदूर आदि सभी की सेवायें भी अनाज के बदले ही प्राप्त की जाती थी। करीब-करीब दो दशक पहले का ग्रामीण समाज मोटे तौर पर वास्तविक अर्थों में कृषि पर ही निर्भर था। देश का कृषि प्रधान होना केवल कहावत नहीं बल्कि उस समय तक वास्तविकता थी। यदि भूटान के अनुसार खुशी एवं संतुष्टि को विकास का सूचकांक मान लें तो निश्चित ही तब-तक का भारत ज्‍यादा विकसित था। लेकिन अब समय के पहिये को वापस घुमाने का अवसर नहीं है। बदलाव बहुत अर्थों में सकारात्मक भी हुआ है। तेज़ी से बदलती,विकसित एवं छोटी होती इस दुनिया में हम खुद को बदले बिना रह भी नहीं सकते। ग्लोबल-विलेज से प्रतिस्पर्द्धा करने के लिये गाँव को भी कदमताल करना ही होगा। लेकिन यह सब करते हुए हमें अपने मौलिकता को अक्षुन्न रखने की ज़रूरत है। जैसा कि गाँधी कहा करते थे, बदलाव की हवा के लिये अपने दरवाजे हम भले ही खोल कर रखें लेकिन हमारी नींव दुरुस्त रहे इसकी चिंता करना तो आवश्यक है ही।

संविधान के 73वें संशोधन के द्वारा पंचायतों को सशक्त करने की नीयत भले ही सही रही हो, लेकिन जहां तक नीति का सवाल है तो नियंताओं को कोई भी बदलाव करते समय गाँव की आत्मा को समझना चाहिये था। निश्चय ही इस मामले में कही-ना-कही त्रुटि हुई है। बहुत पुरानी बात नहीं है जब बिना किसी आर्थिक अधिकार के होते हुए भी मुखिया इतने ताकतवर हुआ करते थे कि राय के अधिकारियों को भी उनका लिहाज़ करना पड़ता था। लेकिन आज जब कथित तौर पर गावों को अधिकार दिये गये हैं तब लोग खुद को नौकरशाही के चंगुल में फंसा महसूस कर रहे हैं। हर विकास कार्यों में चुने हुए प्रतिनिधि का दर्जा व्यवहारिक रूप से दोयम हो गया है और जिला पंचायत के सीईओ सर्वोच्च पदाधिकारी के रूप में स्थापित हो गये हैं। मानो पदनाम के अनुरूप वास्तव में वो किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सर्वोच्च पदाधिकारी हों। एक जिला पंचायत अध्यक्ष के अनुसार पूरे पंचायत प्रणाली के सीईओ ही पर्याय हो गये हैं। चुने हुए प्रतिनिधियों की भूमिका रबर-स्टांप की भी नहीं रह गयी है। तो फिर हम किस पंचायत सशक्तिकरण की बात करें। यदि सब कुछ नौकरशाहों को ही चलाना है तब क्या उपादेयता रह जाती है उपरोक्त संविधान संशोधन की। कम से कम जैसा ऊपर वर्णित किया गया है, चुने गये मुखियों की अन्यथा एक गरिमा तो बची रहती। ज़रूरत तो इस बात की है कि जन-प्रतिनिधियों को अन्य विधायिकाओं की तरह ही वास्तविक अधिकार दिया जाए। और उनके बनाए हुए नियमों को लागू करने की जिम्मेदारी नौकरशाह वहन करे। केंद्र और राय की सरकारें यह समझते हुए काम करे कि पंचायत की संस्थायें स्वायत्त है ना कि अन्य विभाग जैसे उनके मातहत। आखिर वे भी सांसद और विधायक की तरह सीधे ही चुन कर आते हैं। अत: पंचायतों में किसी भी नयी तरह की व्यवस्था करते हुए आप अव्वल तो गाँव की आत्मा को समझें उसके बाद संस्थाओं को तंत्र लोक बना देने के बनिस्वत वहाँ भी लोकतंत्र ही कायम रहे ऐसी व्यवस्था करें। यही समीचीन एवं उपयुक्त होगा।

तो जिन-जिन लोगों और संस्थाओं पर गावों के लिये नीति बनाने की जिम्मेदारी है उनको पहले गाँव को जानना और समझना होगा। मुख्य बात तो यह कि आखिर दिल्ली के एसी कमरे मे बैठकर ही सारी नीति क्यूँ कर बनायी जाय। भेष-भूषा, भाषा, भोजन, रूप-रंग, रहन-सहन, रीति-रिवाज, मजहब, मत-मान्यता, मिजाज़, मौसम आदि इतनी तरह की विविधताओं से परिपूर्ण समाज में आखिर दिल्ली को ही सबकुछ तय करने की अटपटी आजादी क्यूं रहे? क्यूं ना सत्ता का सच्चा विकेंद्रीकरण हो और अपनी-अपनी ज़रूरतों के अनुसार नीति बनाने की जिम्मेदारी निचले स्तर पर वहन करने दी जाये। एक छोटी सी बात में छिपा बड़ा सा मजाक देखिये। हाल में ग्रामीण विकास मंत्री ने घोषणा की है कि नरेगा के तहत हर गाँव में (एक पंचायत में सामान्यतया कई गाँव होते हैं) एक-एक राजीव गाँधी भवन बनेगा। अब क्या इस तरह के फरमान को तुगलकी नहीं कहा जा सकता? क्या दिल्ली में बैठे-बैठे ही मंत्री जी ने ये समझ लिया कि एक अदद राजीव भवन के लिये भारत के लाखों गाँव तरस रहे हैं? हो सकता है हर गाँव की अपनी अलग-अलग ज़रूरत हो। किसी के यहाँ पानी की समस्या हो, कोई स्कूल बनाना चाहता हो, कही अस्पताल की ज़रूरत हो, कही पौधा रोपण ज़रूरी हो तो आखिर आप कैसे तय कर सकते हैं कि उस भवन से ही उध्दार हो जाएगा गाँव का? प्रख्यात नारीवादी मधु किश्वर ने सरकार के इस निर्णय की आलोचना करते हुए सही कहा है कि हमें महात्मा गाँधी का पंचायती राज चाहिये, राजीव गांधी का नहीं। और जैसा कि आप जानते हैं गांधी का गाँव वह था जहां सबको अपना-अपना भाग्य, अपनी-अपनी ज़रूरत खुद आत्मनिर्भर होकर तय करने की आजादी हो। सबको अपने गाँव का भाग्य खुद लिखने की सुविधा प्रदान की जाए। यदि सही अर्थों में ग्राम स्वराज की अवधारणा स्वीकार करनी हो तो आप राशि तय कर दीजिये और ग्राम सभा को यह जिम्मेदारी दे दीजिये कि अपनी प्रकृति एवं ज़रूरत के अनुरूप वह नीति बनाए। उसको यह अधिकार रहे कि अपने द्वारा बनाए गये नीतियों का सही पालन हो, वह नौकरशाहों की जाल में ना उलझे, इसको वह मॉनिटर भी कर सके।

ऊपर के किसी भी आलोचना का यह मतलब नहीं है कि पंचायती राज पूर्णत: असफल रहा है। भले ही पंचायतों को मिले अधिकार और विकास के पैसे के कारण गाँव की शांति भंग हुई हो। लोगों में प्रतिस्पर्द्धा का भाव उत्पन्न हुआ हो। लेकिन यहाँ भी अगर लोगों में मुक्तिबोध जगाना हो तो कहा जा सकता है कि सशक्तिकरण के खतरे तो उठाने ही होंगे। इसे भी सकारात्मक तौर पर देखने की ज़रूरत है। बिना केंद्र सरकार द्वारा आरक्षण दिये हुए भी अभी दस लाख से अधिक महिला पंचायत सदस्य,अस्सी हज़ार से अधिक महिला सरपंच लोकतंत्र की शोभा बढा रहे हैं। अनुसूचित जाति ,जन-जाति, पिछडा वर्ग समेत बड़ी संख्या में वंचित वर्ग भी मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं। बस आवश्यकता यह है कि हर तरह की दलीय और गुटीय राजनीति से पंचायतों को अलग रखा जाए। हाँ इस तमाम मामलों में नीचे स्तर तक के प्रतिनिधियों को जागरूक होने के साथ थोड़ा सा नैतिक भी होना होगा।

लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई होने के कारण लोगों से पंचों का क्यूंकि प्रत्यक्ष संपर्क होता है, अत: पंचायती राज के प्रतिनिधियों के लिये यह सबसे ज़रूरी है कि अपने आचरण से मिसाल कायम करें। ना केवल अच्छा दिखें अपितु अच्छे हों भी। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि अधिकार कभी अकेला नहीं आता वरन कर्तव्यों को पहले लेकर आता है। बिना अधिकार के कर्तव्यों की चाहत केवल तानाशाही व्यवस्था में ही संभव है। लोकतंत्र में तो बिल्कुल नहीं। एक मुखिया को सही अर्थों में जीतेंद्र होना होगा। उसे स्वयं में सर्व-समावेश का कौशल विकसित करना होगा। तभी ढंग के पंचायती राज की कल्पना की जा सकती है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, मुखिया मुख सो चाहिये खान-पान सब एक पाले-पोसे सकल अंग,तुलसी सहित विवेक।

-जयराम दास.