पंच परमेश्वर की अवधारणा और ग्राम स्वराज

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1zcfp1uसाहित्य, सिनेमा, कला आदि हर विधा में आज भले ही गाँव, गरीब, किसान, पंचायत आज कही नहीं हो, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। लोक-रुचि की हर विधा में ग्रामीण परिवेश पहले बिखरा पड़ा होता था। या ऐसा भी कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अभिव्यक्ति का हर रास्ता पहले गाँव के चौपालों से हो कर ही गुजरा करता था। पंचायत की बात करते समय सहसा प्रेमचंद्र उसके प्रतिनिधि रचनाकार के रूप में सामने आते हैं। आज भी मुंशी जी का पंच परमेश्वर हर गंवार को प्रेरित करता है। ऐसा ही गाँव से जुड़े कई संस्मरण इस लिक्खार का भी है।

उत्तर भारत के कई गाँव को मिलाकर बना पंचायत। पंचायत के दो गाँव के कुछ गणमान्य लोग फैसला लेने बैठे हैं। दूसरे गाँव में व्याही गयी एक महिला को पहले गाँव के दुल्हे ने घर से निकाल दिया है। आरोप-प्रत्यारोपों का दौर जारी है। सहसा एक आवाज़ पीछे से आती है कि अरे मुखिया जी की शादी भी तो दुल्हन के गाँव में ही हुई है ना। यदि लड़का अपनी बहू को स्वीकार नहीं करता है तो हम भी अपने मुखियाइन को अपने गाँव में नहीं रखेंगे। ठहाकों का दौर चलता है और सभा समाप्त। आदर के साथ दुल्हन अपने ससुराल वापस चली जाती है। कही किसी अदालत में जाने की ज़रुरत नही। किसी भी हिन्दू विवाह अधिनियम को खंगालना नहीं पड़ा, कोई कोर्ट फीस नहीं। वकीलों का झंझट नहीं, और मामला ख़तम। ऐसा ही हुआ करता था दो दशक पहले तक का ग्राम-स्वराज। सैकडों ऐसे पंचायत थे जहां कभी किसी ने पुलिस को देखा भी नहीं था। गाँव के लगभग सभी झगडे आपस में ही सुलझा लिये जाते थे। डॉ. आंबेडकर के अनुसार हमारे यहाँ पंचायते इतनी मज़बूत थी कि हम दिल्ली के तखत को भूल गये। लेकिन फिर आया वैश्वीकरण का ज़माना लोगों ने दुनिया देखी, संविधान में 73वा संशोधन कर पंचायती राज को विशद कानूनी अधिकार मिलना शुरू हुआ और ख़तम हो गये चौपाल की सादी रंगीनियत। शुरू हो गया अधिकारों के लिये लड़ाई का दौर, ख़तम हो गया बाबूजी का गाँव। लड़ने लगे लोग, आने लगे दरोगे, होने लगा महाभारत। एक ऐसा महाभारत जिसमें किसी को भी हस्तिनापुर का राज-प्रसाद नहीं मिलना था।

तो जैसा बाबा साहब ने कहा था सही में पंचों को दिल्ली के तखत से कोई ज्‍यादा मतलब नहीं था। यहाँ तक कि आजादी के आन्दोलन हुए, देश आज़ाद भी हुआ लेकिन सामान्यतया ग्राम पंचायतों को अपनी प्रणाली बदलने की ज़रुरत नहीं हुई। बिना किसी राजनीतिक अधिकार के भी मोटे तौर पर पंचायत अपने सीमा का शेर बना रहा। हजारों साल की यह प्रणाली विभिन्न झंझावातों से भी अछूता ही रहा। जैसा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था, ध्यान देने की बात यह है कि हमारे भारत में प्राचीन काल में पंचायत प्रणाली आज के सामान शासन-सत्ता की स्वैर इच्छा के अनुसार चलने वाली नहीं थी। उन्हें समाज में स्वायत्त एवं स्वयम्भू घटकों का स्थान प्राप्त था। राजा उन्हें कोई आदेश नहीं दे सकता था। राजा की एक समिति होती थी और ग्राम पंचायतों के प्रतिनिधि इन समितियो में हुआ करते थे। इस प्रकार ग्राम पंचायतों की सम्मति राजा को माननी पड़ती थी। राजा कि समीति विधान बनाने के लिये नहीं केवल कार्य चलाने के लिये होती थी। ग्राम-पंचायतें राजा कि कृपा पर निर्भर नहीं होती थी प्रत्युत राजा ही उनके आधार पर खडा होता था। हिन्दू कल्पना के अनुसार सरकार के अत्यंत सीमित कार्य हैं। अस्तु! अभी यूपीए सरकार द्वारा पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की गयी है। हालाकि छत्तीसगढ़ समेत कई राय सरकारों ने ऐसी व्यवस्था अपने यहाँ पहले से ही करके रक्खी है। निश्चित ही महिलाओं के लिये आरक्षण एक अच्छा कदम है। लेकिन यह भी केंद्र से सीधे रायों पर क्यू थोपा जाए? अगर यह इतना ही अच्छा और क्रांतिकारी कदम है तो बार-बार वादा करने के बाद भी उसको आपने पहले विधायिका में क्यूँ नहीं लागू किया? इसी तरह से दो बच्चों तक की संख्या वाले अभिभावकों को ही पंचायतों में चुनाव लड़ने देकर जनसंख्या नियंत्रण का कर्तव्‍य पंचों के मत्थे, लेकिन नौ बच्चे पैदा कर भी केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री बन जाने का सुख आपको चाहिये। लाखों भ्रष्टाचार करने के बाद भी जनप्रतिनिधियों को बेशर्मी से अपने पद को सुशोभित करने दिया जाय लेकिन पंचों को वापस बुला लिये जाने के लोहिया प्रयोग की शुरुआत गाँव से हो। यानी अधिकारों की सारी रावडी केंद्र को और कर्तव्यों का प्रयोग या प्रयोगों का कर्तव्य गाँव के लिये। मौलिक सवाल ये है कि हर तरह के प्रयोग के लिये गिनी-पिग की भूमिका पंचायतों के लिये ही क्यू हो? गौर करें, जब पंचायतों के लिये कुछ अच्छी बात सोची जाए, कोई राशि की व्यवस्था करनी हो तो वह दिल्ली और राज्‍यों की राजधानी एवं सम्बन्धी जिलों से रिसते हुए राजीव जी के शब्द में कहू तो पंद्रह फीसदी रकम ही गाँव तक पहुच पाये। लेकिन अगर आपको कोई प्रयोग करना हो तो सीधे वह गाँव पर थोप दें।

तो विकास का यहाँ सारा माडल जो है उसको कम से कम गांवो के मामले में बदलने की ज़रूरत है। अर्थशास्त्र का एक पश्चिमी सिद्धांत है जिसको थ्योरी ऑफ़ परकोलेशन कहते हैं यानी रिसने का सिद्धांत। उसके अनुसार जब भी कहीं पूजी इकठ्ठा होगा तो वो पानी की तरह रिसकर नीचे तक भी जाएगा। राजीव जी के सुपुत्र राहुल के अनुसार अब रिसने का यह आकड़ा दस फीसदी तक आ कर अटक गया है। यानी नब्बे प्रतिशत रकम तो रास्ते में ही सूख जा रहा है। तो विकास के इस अधोगामी प्रारूप को उर्ध्वगामी बनाना होगा। सरल शब्दों में कहा जाये तो पानी की तरह विकास को केंद्र से रिसकर नीचे नहीं लाना है अपितु आग की तरह उसको नीचे से ऊपर ले जाने की ज़रूरत है।

जिन लोगों का गाँव से वास्ता रहा है वह बेहतर जानते हैं कि बीस साल पहले का गाँव अधिकतर मामलों में आत्मनिर्भर था। वहाँ विनिमय के साधन के रूप में रूपये की भूमिका न्यून थी। काम के बदले अनाज का कार्यक्रम भले ही सरकारों ने आज शुरू किया हो लेकिन गाँव में ज़रूरत की लगभग सभी चीज़ें अनाज के बदले ही ख़रीदी जाती थी। ना केवल उत्पाद वरन सेवा प्राप्त करने का साधन भी अनाज ही हुआ करता था। नाइ, धोबी, बढ़ई, चर्मकार, तेली, साहूकार, मजदूर आदि सभी की सेवायें भी अनाज के बदले ही प्राप्त की जाती थी। करीब-करीब दो दशक पहले का ग्रामीण समाज मोटे तौर पर वास्तविक अर्थों में कृषि पर ही निर्भर था। देश का कृषि प्रधान होना केवल कहावत नहीं बल्कि उस समय तक वास्तविकता थी। यदि भूटान के अनुसार खुशी एवं संतुष्टि को विकास का सूचकांक मान लें तो निश्चित ही तब-तक का भारत ज्‍यादा विकसित था। लेकिन अब समय के पहिये को वापस घुमाने का अवसर नहीं है। बदलाव बहुत अर्थों में सकारात्मक भी हुआ है। तेज़ी से बदलती,विकसित एवं छोटी होती इस दुनिया में हम खुद को बदले बिना रह भी नहीं सकते। ग्लोबल-विलेज से प्रतिस्पर्द्धा करने के लिये गाँव को भी कदमताल करना ही होगा। लेकिन यह सब करते हुए हमें अपने मौलिकता को अक्षुन्न रखने की ज़रूरत है। जैसा कि गाँधी कहा करते थे, बदलाव की हवा के लिये अपने दरवाजे हम भले ही खोल कर रखें लेकिन हमारी नींव दुरुस्त रहे इसकी चिंता करना तो आवश्यक है ही।

संविधान के 73वें संशोधन के द्वारा पंचायतों को सशक्त करने की नीयत भले ही सही रही हो, लेकिन जहां तक नीति का सवाल है तो नियंताओं को कोई भी बदलाव करते समय गाँव की आत्मा को समझना चाहिये था। निश्चय ही इस मामले में कही-ना-कही त्रुटि हुई है। बहुत पुरानी बात नहीं है जब बिना किसी आर्थिक अधिकार के होते हुए भी मुखिया इतने ताकतवर हुआ करते थे कि राय के अधिकारियों को भी उनका लिहाज़ करना पड़ता था। लेकिन आज जब कथित तौर पर गावों को अधिकार दिये गये हैं तब लोग खुद को नौकरशाही के चंगुल में फंसा महसूस कर रहे हैं। हर विकास कार्यों में चुने हुए प्रतिनिधि का दर्जा व्यवहारिक रूप से दोयम हो गया है और जिला पंचायत के सीईओ सर्वोच्च पदाधिकारी के रूप में स्थापित हो गये हैं। मानो पदनाम के अनुरूप वास्तव में वो किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सर्वोच्च पदाधिकारी हों। एक जिला पंचायत अध्यक्ष के अनुसार पूरे पंचायत प्रणाली के सीईओ ही पर्याय हो गये हैं। चुने हुए प्रतिनिधियों की भूमिका रबर-स्टांप की भी नहीं रह गयी है। तो फिर हम किस पंचायत सशक्तिकरण की बात करें। यदि सब कुछ नौकरशाहों को ही चलाना है तब क्या उपादेयता रह जाती है उपरोक्त संविधान संशोधन की। कम से कम जैसा ऊपर वर्णित किया गया है, चुने गये मुखियों की अन्यथा एक गरिमा तो बची रहती। ज़रूरत तो इस बात की है कि जन-प्रतिनिधियों को अन्य विधायिकाओं की तरह ही वास्तविक अधिकार दिया जाए। और उनके बनाए हुए नियमों को लागू करने की जिम्मेदारी नौकरशाह वहन करे। केंद्र और राय की सरकारें यह समझते हुए काम करे कि पंचायत की संस्थायें स्वायत्त है ना कि अन्य विभाग जैसे उनके मातहत। आखिर वे भी सांसद और विधायक की तरह सीधे ही चुन कर आते हैं। अत: पंचायतों में किसी भी नयी तरह की व्यवस्था करते हुए आप अव्वल तो गाँव की आत्मा को समझें उसके बाद संस्थाओं को तंत्र लोक बना देने के बनिस्वत वहाँ भी लोकतंत्र ही कायम रहे ऐसी व्यवस्था करें। यही समीचीन एवं उपयुक्त होगा।

तो जिन-जिन लोगों और संस्थाओं पर गावों के लिये नीति बनाने की जिम्मेदारी है उनको पहले गाँव को जानना और समझना होगा। मुख्य बात तो यह कि आखिर दिल्ली के एसी कमरे मे बैठकर ही सारी नीति क्यूँ कर बनायी जाय। भेष-भूषा, भाषा, भोजन, रूप-रंग, रहन-सहन, रीति-रिवाज, मजहब, मत-मान्यता, मिजाज़, मौसम आदि इतनी तरह की विविधताओं से परिपूर्ण समाज में आखिर दिल्ली को ही सबकुछ तय करने की अटपटी आजादी क्यूं रहे? क्यूं ना सत्ता का सच्चा विकेंद्रीकरण हो और अपनी-अपनी ज़रूरतों के अनुसार नीति बनाने की जिम्मेदारी निचले स्तर पर वहन करने दी जाये। एक छोटी सी बात में छिपा बड़ा सा मजाक देखिये। हाल में ग्रामीण विकास मंत्री ने घोषणा की है कि नरेगा के तहत हर गाँव में (एक पंचायत में सामान्यतया कई गाँव होते हैं) एक-एक राजीव गाँधी भवन बनेगा। अब क्या इस तरह के फरमान को तुगलकी नहीं कहा जा सकता? क्या दिल्ली में बैठे-बैठे ही मंत्री जी ने ये समझ लिया कि एक अदद राजीव भवन के लिये भारत के लाखों गाँव तरस रहे हैं? हो सकता है हर गाँव की अपनी अलग-अलग ज़रूरत हो। किसी के यहाँ पानी की समस्या हो, कोई स्कूल बनाना चाहता हो, कही अस्पताल की ज़रूरत हो, कही पौधा रोपण ज़रूरी हो तो आखिर आप कैसे तय कर सकते हैं कि उस भवन से ही उध्दार हो जाएगा गाँव का? प्रख्यात नारीवादी मधु किश्वर ने सरकार के इस निर्णय की आलोचना करते हुए सही कहा है कि हमें महात्मा गाँधी का पंचायती राज चाहिये, राजीव गांधी का नहीं। और जैसा कि आप जानते हैं गांधी का गाँव वह था जहां सबको अपना-अपना भाग्य, अपनी-अपनी ज़रूरत खुद आत्मनिर्भर होकर तय करने की आजादी हो। सबको अपने गाँव का भाग्य खुद लिखने की सुविधा प्रदान की जाए। यदि सही अर्थों में ग्राम स्वराज की अवधारणा स्वीकार करनी हो तो आप राशि तय कर दीजिये और ग्राम सभा को यह जिम्मेदारी दे दीजिये कि अपनी प्रकृति एवं ज़रूरत के अनुरूप वह नीति बनाए। उसको यह अधिकार रहे कि अपने द्वारा बनाए गये नीतियों का सही पालन हो, वह नौकरशाहों की जाल में ना उलझे, इसको वह मॉनिटर भी कर सके।

ऊपर के किसी भी आलोचना का यह मतलब नहीं है कि पंचायती राज पूर्णत: असफल रहा है। भले ही पंचायतों को मिले अधिकार और विकास के पैसे के कारण गाँव की शांति भंग हुई हो। लोगों में प्रतिस्पर्द्धा का भाव उत्पन्न हुआ हो। लेकिन यहाँ भी अगर लोगों में मुक्तिबोध जगाना हो तो कहा जा सकता है कि सशक्तिकरण के खतरे तो उठाने ही होंगे। इसे भी सकारात्मक तौर पर देखने की ज़रूरत है। बिना केंद्र सरकार द्वारा आरक्षण दिये हुए भी अभी दस लाख से अधिक महिला पंचायत सदस्य,अस्सी हज़ार से अधिक महिला सरपंच लोकतंत्र की शोभा बढा रहे हैं। अनुसूचित जाति ,जन-जाति, पिछडा वर्ग समेत बड़ी संख्या में वंचित वर्ग भी मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं। बस आवश्यकता यह है कि हर तरह की दलीय और गुटीय राजनीति से पंचायतों को अलग रखा जाए। हाँ इस तमाम मामलों में नीचे स्तर तक के प्रतिनिधियों को जागरूक होने के साथ थोड़ा सा नैतिक भी होना होगा।

लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई होने के कारण लोगों से पंचों का क्यूंकि प्रत्यक्ष संपर्क होता है, अत: पंचायती राज के प्रतिनिधियों के लिये यह सबसे ज़रूरी है कि अपने आचरण से मिसाल कायम करें। ना केवल अच्छा दिखें अपितु अच्छे हों भी। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि अधिकार कभी अकेला नहीं आता वरन कर्तव्यों को पहले लेकर आता है। बिना अधिकार के कर्तव्यों की चाहत केवल तानाशाही व्यवस्था में ही संभव है। लोकतंत्र में तो बिल्कुल नहीं। एक मुखिया को सही अर्थों में जीतेंद्र होना होगा। उसे स्वयं में सर्व-समावेश का कौशल विकसित करना होगा। तभी ढंग के पंचायती राज की कल्पना की जा सकती है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, मुखिया मुख सो चाहिये खान-पान सब एक पाले-पोसे सकल अंग,तुलसी सहित विवेक।

-जयराम दास.

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पंकज झा
मधुबनी (बिहार) में जन्म। माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर की उपाधि। अनेक प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों पर सतत् लेखन से विशिष्‍ट पहचान। कुलदीप निगम पत्रकारिता पुरस्‍कार से सम्‍मानित। संप्रति रायपुर (छत्तीसगढ़) में 'दीपकमल' मासिक पत्रिका के समाचार संपादक।

18 COMMENTS

  1. आपके आलेख ने अभिभूत कर दिया….बहुत ही सही लिखा है आपने….शायद ही कोई पहलू छूटा है इस आलेख में….

    हमारे एक रिश्तेदार हैं…..मुखिया हैं…बहुत ही भले कर्मठ और ईमानदार इंसान हैं ….उन से बात चीत हो रही थी तो पता चला कि चुनाव में उनके पच्चीस लाख रुपये लग गए और पांच वर्षों में सभी काम इमानदारी से करते हुए वो प्रतिवर्ष पशीस लाख रुपये बनायेंगे…पिछले दो टर्म से ये मुखिया हैं और लोग बाग़ इन्हें भगवान् की तरह पूजते हैं…क्योंकि ये लोगों की सेवा में ही रत रहते हैं…इनके मुताबिक बाकी मुखिया एक बार के बाद अगली बार इस लिए हार जाते हैं कि वे लोग इसने छः से सात गुना पैसा इस अवधि में बना लेते हैं…

    मैं बस सुन्न होकर सब सुन रही थी….

  2. जयराम जी ने वास्तविकता को बहुत सार गर्भित शब्दो मे बयान कर दिया है। हम लोग तो बोलकर या ब्लाग लिखकर मन की बात कर लेते है किन्तु हमारे देश को चलाने वाले नेता एवं आई एं एस अफसरों को कौन समझाए की भैया नियम बनाने से पहले कभी हमारा इतिहास पॄ लिया करो या देख लिया करो। हमारा समाज आत्मनिर्भर से रियायतों वाला बन गया है।

  3. jai mithila
    wah jai ram ji wah aap un sajag insano mein se ke hai jo aise-aise gambhir muddo per bhi abne kuch bichar rakhte hai.

    sach kahu to aap gramya jiva mein kanun ko is tarh piroya hai jo kabile tarif hai.
    mujhe aap jaise mithila basi per garb hai.

    kas ye baat goan ke log samagh pate,aur phoot jata andon,ho jati ye nayi bayabasha bhang,aur yadi aisa hota to ye dur se kanun banne wale ko sabak milta

    aur bahut -bahut dhanyabad ye artical k lel.

    shailendra kumar jha

  4. वहा भय्या क्या लेख लिखा है! में आपके विचारो से बहुत ही प्रभावित हुआ हु!
    आपने लोगो के दर्द को बहुत ही गहराई से महसूस किया है वास्तव में आपके विचार कितने महान है
    अगर सभी लेखक इस बात को महसूस करे और आपके जैसे ही विचारो को अपने लेख में सामिल करे तो इस देश के प्रत्येक व्यक्ति तक ये विचार पहुच सकते है और जीवन के काम आने वाली बाते अपने जीवन में उतार सकते है !
    तो भय्या वैरी गुड आप ऐसे ही लिखते रहे और लोगो के लिए प्रेरणा बनते रहे !

    आपका
    मयूर पटेल

  5. Gaven me jo sarpanch chune jayen ve sahi tarike se chune jayen abhi jo mahilayon ko reservation prapt huwa hai sime dikakat ye hai ki vastuta jitati mahila hain par kam karte hain unke pati ve bhaut bari samasya hain dusra panchayat election me corruption. Abhi mere gaven me chunav hain aik mahina pahale se pure gaven me mitahi, Sharab kai chij free me milne lagegi jisse log vote de hame system me sudhar karna hoga

  6. अधिकतर सरपंच जितने भ्रष्ट हैं उतने तो नौकरशाह भी नहीं होंगे. नैतिकता की उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती क्योंकि उनके पास गाँव के अन्य लोगों की भलाई का कांसेप्ट ही नहीं है. उनका एक ही फलसफा रह गया है- ‘मोर पेट हाहू, मैं न देहों काहू’. जो सरपंच अनपढ़ है उनकी आड़ में वे दबंग पैसे खा जाते हैं जिन्होंने उन्हें जिताया होता है. महिला सरपंचों के मामले में तो स्थिति और भी दारुण है. सांसद से लेकर पंचायत सचिव तक मिलीभगत के जरिए नंगा नाच कर रहे हैं.

  7. jairam das ji, bhot dinon baad kisi lekh ko padhkar dil ko sakoon mila,,allah kare aawaz door tak phoonche…lekh ki nimnlikhit panktiyan batati hen ki hamara desh kidahr ja raha he,, behad chinta ki baat he…
    * दो बच्चों तक की संख्या वाले अभिभावकों को ही पंचायतों में चुनाव लड़ने देकर जनसंख्या नियंत्रण का कर्तव्‍य पंचों के मत्थे, लेकिन नौ बच्चे पैदा कर भी केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री बन जाने का सुख आपको चाहिये।

  8. सही और् सटीक् लॆख़्. काश् सत्ताधारी इसॆ समझ् पाऎ??

  9. Thanks so much bhyya ki aapne itne satik tarike se apni baato ko logo tak pahuchaya vah bhi bahut hi saral tarike se.
    aapko istarh ke lekh ke liye bahut bahut sadhuvad bhyya.

  10. aapka lekh bahut achchha hai. samadhan mulak hai. ise kendr aur kuchh raj sarkaron ko bhi padhaaya jaya to behtar hoga. gaon ke udahran kitne asarkari ho sakte hain, ye dekhne ko mila saadhuvaad
    vibhash kumar jha
    , raipur, chhattisgarh.

  11. आप्नॆ बहुत् ही सार् गर्भित् लॆख् लिखा है. यह् लॆख् कॆन्द्र् सर्कार् या राज्य सर्कारॊ कॊ भी दॆख्नॆ कॊ मिलॆ तॊ बॆह्तर् हॊगा. आपका नजरिया भी साफ् है.

  12. भाई जयराम जी,’प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं’ भी तुलसीदास ने ही लिखा है। आपकी व्यथा को समझा जा सकता है। दरअसल, आजादी के बाद देश में साक्षरता का ग्राफ तो चढ़ा है, नैतिकता का ग्राफ गिरा है। शिक्षित बनाने का जो तरीका इन दिनों चल रहा है उसमें शिक्षा और नैतिकता व्युत्क्रमानुपाती हैं। कुल मिलाकर तो हम साम्राज्यवादी संसार में ही जी रहे हैं। फिर भी, आपने एक ऐसे विषय की ओर कर्णधारों का ध्यान दिलाने का प्रयत्न किया है जिसकी ओर सोचना उन्होंने करीब चौथाई सदी से बिल्कुल छोड़ ही दिया है।

  13. Dear Jairamji,
    Highly thought provoking article and analytically factual presentation of Panchayati Raj system, which needs to be understood by all of us in the right perspective. I endorse your views…. Indeed a good article!

  14. जय राम दास जी को पंचायत व्यवस्था पर लिखे लेख के लिए बधाई . बहुत सही प्रश्न उठाये है इस पर गंभीर चिन्तन होना ही चाहिए . पंचायती माडल कैसा हो गाँधी जी का , दीन दयाल उपाध्याय जी का या उनका जो पंचायत का मतलब ही नहीं जानते ,

  15. प्रिय् जैराम्, यॆ क्या च्मत्कर् है भाइ? बधाइ. सुन्दर् प्रयस्…

  16. जनतंत्र में सत्ता का विकेन्द्रीकरण जितना अधिक होगा उतना ही जनतंत्र विकसित और मजबूत होगा और देश भी। लेकिन ग्राम स्वराज्य के बारे में जो आदर्श अवधारणा यहाँ इस आलेख में खड़ी की गई है और अतीत की पंचायतों को जिस तरह से आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है वह उन का सही चित्रण नहीं है। वे जाति पंचायतें हुआ करती थीं। जब तक जाति भेद, धर्म भेद, लिंग भेद और आर्थिक हैसियत का भेद समाप्त नहीं होगा, प्रत्येक नागरिक को उस की जाति से, लिंग से, धर्म से और उस की आर्थिक हैसियत से पहचाने जाने के स्थान पर भारतीय के रूप में नहीं पहचाना जाएगा तब तक ग्राम स्वराज्य का भी अर्थ नहीं होगा।

  17. बहुत सार्गर्भित आलेख है वर्ना आजकल त्रुटियाँ निकालने वाले आलेख तो जगह जगह मिल जायेंगे मगर समाधान कोई नहीं सुझायेगा। ऐसे आलेख सर्कार के कानों तक जाये तो सही है यूँ तो सरकार सब कुछ जानते हुये भी वोट के लिये सब को उलझाये रखती है नेता सब कुछ जानकर अनजान बने रहते हैं। पता नहीं कौन सा मसीहा कब आयेगा देश का सुधार करने? इस जानकारी के लिये आभार

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