सवाल थोड़ा मुश्किल, मगर हकीकत है

मो. रियाज़ मलिक

पुंछ, जम्मू-कश्मीर

धरती पर स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू कश्मीर में चुनावी गहमागहमी पूरी तरह से थम गई है। भौगोलिक और राजनीतिक रूप से देश के अन्य हिस्सों से भले ही यह राज्य अलग है, लेकिन चुनाव के समय यहां भी बिजली, पानी, सड़क, स्कूल, अस्पताल, रोज़गार और बुनियादी आवश्यकताएं मुख्य चुनावी मुद्दे रहे हैं। जिसे ध्यान में रख कर जनता ने अपने मताधिकार का उपयोग किया है। रोज़ाना टीवी और अखबारों की सुर्खियों में रहने वाले जम्मू कश्मीर को प्रकृति ने अपनी विशेष नेमतों से नवाज़ा है। प्राकृतिक रूप से यहां पानी के स्रोत जैसे नदी, नाले, ग्लेशियर झरने, बर्फ से ढंके पहाड़ और हरियाली एक अलग ही छटा बिखेरती है। जिसे देखने के लिए सालों भर दुनिया के कोने कोने से पर्यटकों का तांता लगा रहता है। इसीलिए इसे एशिया का स्विट्ज़रलैंड भी कहा जाता है।

लेकिन दूसरी ओर धरती का यही सुंदर इलाक़ा कई तरह की सरकारी उपेक्षाओं और सामाजिक पिछड़ेपन का शिकार है। यहां के निवासी आज भी परेशानियों और मुसीबतों भरी ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं। लोगों को विकास की लौ जलने का अब भी इंतज़ार है। राज्य में ऐसे कई क्षेत्र है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से ही नहीं बल्कि बुनियादी रूप से भी अत्यंत पिछड़े हैं। सीमावर्ती क्षेत्र पुंछ के मंडी तहसील अंतर्गत नागानाड़ी गांव इन्हीं पिछड़े क्षेत्रों में एक है। जहां पहुँचने के लिए सड़क की सुविधा भी नहीं है। आलम यह है कि इस गांव तक पहुँचने के लिए पहाड़ों के घुमावदार और उबड़-खाबड़ रास्तों और कलियां नदी के किनारे घने जंगलों से होकर 5 से 8 घंटे पैदल चलना पड़ता है। पहाड़ी रास्ते इतने संकीर्ण है कि ज़रा सी असावधानी से इंसान हज़ारों फीट नीचे खाई में गिर कर मौत के मुंह में समा सकता है। दूसरी ओर ये जंगल इतने सघन है कि कोई महिला तो क्या, पुरुषों का भी अकेले गुज़रना खतरे से खाली नहीं होता है। कहा जाता है कि इस जंगल से गुजरने के लिए एक साथी और हाथ में लाठी आवश्यक है।

नागानाड़ी में मुश्किलें केवल सड़कों की कमी का ही नहीं हैं बल्कि सामाजिक जीवन भी यहाँ कठिनाइयों से भरा है। शिक्षा के क्षेत्र में भी यह गांव काफी पिछड़ा हुआ है। स्थानीय निवासी हाफ़िज़ बशीर अहमद के अनुसार ‘धार्मिक शिक्षा के क्षेत्र में नागानाड़ी अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा काफी आगे है लेकिन आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा यहां नाममात्र की है।’ गांव में रहने वाला कोई भी बच्चा पांचवीं कक्षा तक भी नहीं पहुँच सका है। गांव में एक प्राथमिक विद्यालय तो है परंतु नाममात्र के लिए। स्कूल की दुर्दशा का आलम यह है कि स्थानीय निवासी इसके भवन का निजी प्रयोग के लिए इस्तेमाल करते हैं। ग़ुलाम हुसैन के अनुसार इस स्कूल में दो शिक्षकों की नियुक्ति हुई है। जिनमें एक शिक्षक यहां कभी आये ही नहीं जबकि दूसरे शिक्षक महीने में किसी एक दिन आकर अपनी पूरी हाज़री बना लेते हैं। स्कूल में न तो किसी ने कभी पढ़ाई होते देखी है और न ही मध्यह्यान भोजन बनते देखा है। बच्चों को मिलने वाले ड्रेस और अन्य सुविधाओं के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है। शिक्षा विभाग के किसी अधिकारी ने भी आजतक इस स्कूल का हाल जानने का प्रयास नहीं किया है।

कमी केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं है बल्कि बिजली, पीने का साफ पानी और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताएं भी इस गांव के लोगों को मयस्सर नहीं है। मनरेगा जैसी अनेक लाभकारी योजनाओं के बारे में स्थानीय निवासियों को कोई जानकारी उपलब्ध नहीं कराया गया है। बुनियादी आवश्यकताओं की कमी ने नागानाड़ी गांव को विकास की दौड़ में बहुत पीछे धकेल दिया है। ऐसे में किसी को भी अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं होगा कि यहां के निवासी किस तरह कठिन परिस्थितियों में जीवन बसर करने पर मजबूर हैं। वहीं शिक्षा की कमी से नई पीढ़ी का भविष्य कितना अंधकारमय है, इसकी गंभीरता का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। क्षेत्र के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को भी शायद नागानाड़ी गांव के लोगों की मुसीबतों से कोई वास्ता नज़र नहीं आता है।

देश को आज़ाद हुए 70 साल से अधिक का वक़्त हो चुका है, विकास की दौड़ में हम आसमान छू चुके हैं। मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसी योजनाओं ने भारत को विश्व गुरु बना दिया है। किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना और खेलो इंडिया जैसी अनेकों योजनाएं युवाओं के कौशल को आगे बढ़ाने में कारगर सिद्ध हो रहे हैं वहीं दूसरी ओर नागानाड़ी जैसे देश के दूर दराज क्षेत्रों में ज़मीनी हकीकत कुछ और ही बयान कर रहे हैं। सवाल यह उठता है कि देश के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले इन बच्चों के भविष्य का जिम्मेदार कौन है? सरकारी योजनाएं इनके किस काम की हैं, जबकि इन्हें बुनियादी सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हैं? बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ योजना कैसे कामयाब होगी जब गांव की बेटी को प्राथमिक विद्यालय की सुविधा तक नहीं है? इनकी कठिनाइयों का सिलसिला आखिर कब तक थमेगा? सवाल थोड़ा मुश्किल मगर हकीकत है।

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