क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय सवाल

-प्रमोद भार्गव-
-क्षेत्रीय दलों के लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने की मांग-

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज सिंह चौहान ने क्षेत्रीय दलों पर लोकसभा चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध की मंशा जताई है। त्रिशंकु संसद और गठबंधन की सरकारें क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वजूद की मजबूरी के चलते पिछले ढाई दशक से देखने में आ रही हैं। तय है, इन दलों ने राष्ट्रीय दल माने जाने वाले कांग्रेस और भाजपा की जड़ों में मट्ठा डालकर ही अपने लिए जगह बनाई है। इसलिए कांग्रेस और भाजपा के आहत नेता केंद्र सरकार की स्थिरता के बहाने राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों के हस्तक्षेप पर सवाल उठाते रहे हैं। हालांकि वर्तमान परिदृश्य में ऐसा कोई उपाय संभव नहीं है। भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार, जब एक नागरिक को निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने का अधिकार हासिल है तो किसी क्षेत्रीय दल को कैसे रोका जा सकता है ? दरअसल देश में आर्थिक उदारवाद के पूंजीवादी आग्रह जिस तरह से प्रभावी हुए हैं, उनकी मंशा रही है कि राजनीतिक व्यवस्था दो दलीय प्रणाली में तब्दील हो जाए, जिससे वे प्राकृतिक संपदा के दोहन के लिए अपने हिसाब से कानून बनवा सकें। दूसरे, सुविधा की राजनीति करने वाले राष्ट्रीय दलों के नेताओं की निरंतर सत्ता में बने रहने की महत्वकांक्षा इस प्रणाली को वजूद में लाने के लिए उतावली रहती है। देश के इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने तो इस आम चुनाव की राजनीति को न केवल दो दलों, बल्कि दो संभवित प्रधानमंत्रियों के दायरे में ही समेट दिया है। वैश्विक पूंजीवादी की यह चाहत इसलिए है, जिससे वह चंद दलों और नेताओं को साधकर अपनी गतिविधियों को निष्कंटक व निरंकुश रूप में अंजाम तक पहुंचाती रहे।

चौहान ने जर्मनी का हवाला देते हुए कहा कि वहां की तरह अपने यहां भी क्षेत्रीय दलों को लोकसभा चुनाव में भागीदारी से प्रतिबंधित कर दिया जाए तो भारत में अमेरिका की तरह दो या तीन दलीय प्रणाली आस्तित्व में आ सकती है। परमाणु करार के समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी कहा था कि अधूरे जनादेश के कारण मन मुताबिक करना मुश्किल है। ऐसी ही भावना का प्रगटीकरण सोनिया गांधी ने कांग्रेस के एक अधिवेशन में किया था। उनका कहना था, दूसरे दलों से गठबंधन की राजनीति करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि कांग्रेस अपना राजनैतिक वजूद हीं खो दे। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी दो दलीय प्रणाली लागू करने का सुझाव दिया था, जिसका सर्मथन भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी किया था। योग और आध्यात्म की शिक्षा देकर जीवन जीने की कला सिखाने वाले गुरू श्रीश्री रविशंकर ने भी ऐसी ही मंशा जताई थी। मसलन ऐसी सोच के लोग बहुसंख्या में हैं, जिनकी अवधारणा है कि प्रांत या क्षेत्र विशेष में जानाधार रखने वाले दल स्थिर, सरकारों के लिए न केवल समस्या हैं, बल्कि आर्थिक विकास में बाधा भी हैं। दरअसल, इस प्रणाली के पैरोकारों की कोशिश है कि बढ़ते वैश्विक पूंजीवाद को भारत में कोई संकट उत्पन्न न हो। जबकि क्षेत्रीय दलों के सहयोग से पीवी नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी ने भी गठबंधन की सरकारें सफलतापूर्वक चलाकर अपने कार्यकाल पूरे किए, किंतु दो दलीय प्रणाली की पैरवी कभी नहीं की, इसलिए यह कहना बेबुनियाद है कि राजनीतिक स्थिरता ही विकास का पर्याय है।

चौहान जर्मनी और अमेरिका की चुनाव प्रणालियों को आदर्श मान रहे हैं। अमेरिका और यूरोप के तमाम देशों में जो दो दलीय प्रणाली प्रत्यक्ष दिखाई देती है, वह संवैधानिक बाध्यता नहीं है। हकीकत यह है कि वहां लंबी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में नए दल उभर ही नहीं पाए है। इन देशों में ऐसा इसलिए संभव बना हुआ है, क्योंकि वहां क्षेत्रीय विंसगतियां, भाषाई विविधता और जातीय व सांप्रदायिक समस्याएं नहीं है। जबकि भारत सांस्कृतिक विविधताओं के साथ समस्याओं की दृष्टि से जटिलतावादी देश है। इसलिए यहां तेलगांना राज्य को लेकर टीआरएस उभरता है। नंदीग्राम और सिंगूर में टाटा की नैनो का विरोध करने पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल की 34 साल पुरानी वामपंथी सरकार को पटक देती है। मायावती की तथाकथित सोशल इंजनियंरिंग और मुलायम सिंह यादव के साथ मुस्लिमों के सांप्रदायिक गठजोड़ ने उत्तर प्रदेश ने कांग्रेस और भाजपा को कमोवेश बेदखल किया हुआ है। बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने पिछ़ड़ी व अति पिछड़ी जातियों को राजनीति की मुख्यधारा में आने का अवसर दिया है। जाहिर है,क्षेत्रीय राजनीतिक दल अलग-अलग प्रांतों और और उप क्षेत्रों की भी जन-आकाक्षाओं की अभिव्यक्ति का माध्ययम बने हुए हैं। लिहाजा किसी एक दल को पूर्ण बहुमत न मिलने के कारण क्षेत्रीय दलों पर प्रतिबंध का सवाल अनुचित है। यहां यह भी गौरतलब है कि जिस आर्थिक वृद्धि की दर एक समय 8-9 प्रतिशत थी, वह गठबंधन सरकारों के कालखंड में ही पहुंची थी। इस लिहाज से यह कहना बेमानी है कि जोड़-तोड़ सरकारें आर्थिक विकास में बाधा हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत तमाम जटिलताओं व भिन्नताओं के बावजूद अखंडता व संप्रभुता को बनाए रखा है तो उसकी असली वजह है कि हमारे संविधान ने हर क्षेत्र जाति व वर्ग के लोगों को राजनीतिक व्यवस्था में उचित लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व देना निर्धारित किया हुआ है। लिहाजा देश के समग्र विकास में क्षेत्रीय दलों की भूमिका को दो दलीय प्रणाली के लिए नकारा नहीं जा सकता है?

अमेरिका, ब्रिटेन व अन्य यूरोपीय देशों में दो दलीय प्रणाली इसलिए फलीभूत बनी हुई हैं, क्योंकि वहां समाजिक समस्याएं नगण्य हैं। आर्थिक विकास ही प्रमुख है। वह भी इसलिए क्योंकि वहां दोनों दलों की नीतियां कमोवेष एक ही सिक्के की उलट-पलट होती हैं। लिहाजा वहां केवल राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण होता है। आर्थिक सत्ता यथावत बनी रहती है। और इस आर्थिक सत्ता का आधार होता है, विकासशील देशों का शोषण उनकी प्राकृतिक संपदा का दोहन और उनमें परस्पर टकराव के हालात पैदा करके उन्हें हथियार बेचकर अपनी आर्थिक हैसियत बनाए रखना। इन देशों में प्राकृतिक संसाधनों की तुलना आबादी बेहद कम है और प्रतिव्यक्ति आय बहुत ज्यादा। गोया, सामाजिक विशमताओं से उन्हें भारत की तरह सामना ही नहीं करना पड़ता। जबकि भारत में भूख और कुपोषण हर तीसरे कदम पर दया के लिए मोहताज हैं। यदि क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय हस्तक्षेप नहीं होता तो अमेरिकापरस्त मौजूदा संप्रग सरकार 81 करोड़ लोगों की खाद्य सुरक्षा के इंतजाम के लिए विधेयक लाने वाली नहीं थी। तय है, भारत की बड़ी आबादी शोषण के उपायों से सुखी नहीं बन सकती, उसे तो शोषण मुक्ति और समता की कोशिशें ही समृद्धशाली बना सकती हैं।

यह बात जरूर सही है कि क्षेत्रीय दलों के पिश्ठपोशण के चलते,गठबंधन सरकारें चलन में भले ही आ गई हों, पर अभी तक ये सरकारें अपनी परिपक्वता सिद्ध नहीं कर पाई हैं। मनमोहन सिंह नेतृत्व वाली सरकार में तो यह अपरिपवक्ता कुछ ज्यादा ही दिखाई दी है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर षीर्श न्यायालय ने किसी और सरकार को इतनी फटकारें लगाई हों, जानकारी में नहीं है। श्रीलंका के मुद्दे पर वे करूणानिधि के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। एफडीआई के मुद्दे पर मुलायम और मायावती की अनुपातहीन संपत्ति की सीबीआई जांचों को बट्टे खाते में डाल देते हैं। जाहिर है, विचार और व्यावाहर के स्तर पर ज्यादात्तर क्षेत्रीय दलों में विकल्प शून्यता है। राजनेताओं में राजनीतिक प्रतिबद्धता और उदारता नदारद है। राष्ट्रीय या क्षत्रीय राजनीति के रंगमंच पर मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। अखिल भारतीय नागरिकता का भाव शून्य है। अलबत्ता, प्रादेशिकता अथवा क्षेत्रीयता अखिल भारतीयता अपने ढंग से प्रभावित करती हुई, दबाव व शर्त आधारित समर्थन देने की दृश्टि से राष्ट्रीय दलों को विवश किए हुए है। इस वजह से राष्ट्रीय हित एवं समस्याओं पर विचार-विमर्श गौण हो गया है। संसद और विधानसभाएं कभी-कभी तो कुरूक्षेत्रों में बदलते दिखाई देने लगी हैं। ऐसे हालातों के निर्माण में आवारा पूंजी का बड़ा योगदान रहा है। जिससे वैश्विक पूंजीवाद से जुड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां आसानी से ऐसे विधेयकों को पारित करा ले जाएं, जो भारत में उनेक आर्थिक हित साधने वाले हैं। एफडीआई को संसद से मंजूरी मिलने के दौरान यह बात उठी भी थी कि वॉलमार्ट ने करोड़ों रूपए सांसदो, मीडिया घरानों और स्वंय सेवी संगठनों को पैरवी के लिए दिए हैं। खास तौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस चुनाव को दो दलों में केंद्रित कर दिया है। मीडिया के दबाव में भाजपा ने नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री घोशित किया। कांग्रेस ने संविधान का सम्मान करते हुए राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार भले ही घोषित नहीं किया हो, लेकिन उनकी स्क्रीन पर प्रस्तुति भावी प्रधानमंत्री के रूप में ही हो रही है। आप और अरविंद केजरीवाल को मीडिया में जगह मिल भी रही है तो उसके पीछे अमेरिकी संगठन ‘फोर्ड फाउनडेशन‘ का दबाव जताया जा रहा है। जाहिर है, वैश्विक पूंजी ने कम से कम मीडिया में तो आम चुनावों को दो दलों के दायरे में समेट ही दिया है। इस प्रचण्ड प्रचार में मोदी को बढ़त मिलती दिखाई दे रही है। मोदी बनाम भाजपा की बढ़त का आशय भी अंततः निरंकुश बाजारवाद को बढ़ावा देना और नया उपभोक्ता तैयार करना है। समावेशी विकास के लिए जरूरी है, क्षेत्रीय दलों का वजूद कायम रहे, जिससे वह ममता बनर्जी और वामपंथी दलों की तरह लंपट पूंजीवाद पर लगाम कसे रहें।

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