कविता

आर. सिंह की कविता/ नाली के कीडे़

भोर की बेला थी

लालिमा से ओत प्रोत हो रहा था

धरती और आकाश

और मैं

टहल रहा था उपवन में

हृदय था प्रफुल्लित

स्वप्न संसार में भटकता हुआ

आ जा रहे थे एक से एक विचार

टूटी शृंखला विचारों की

जब मैं बाहर आया उपवन के

दो घंटों बाद

देखा मेरा बेटा

सुकोमल छोटा

खेल रहा था

गली के बच्चों के साथ

खेल-खेल में पकड़ लिया था उन लोगों ने

नाली के कुछ कीड़ों को

दिखा रहे थे वे मुझे

और फिर

डाल दिया था उन नन्हें मुन्नों ने

नाली के उन कीड़ों को

गन्दी नालीं मे रहने वालों को

स्वच्छ जल के एक पात्र में

और देख रहे थे तमाशा

पर नहीं चला तमाशा देर तक

मर गये थे वे कीडे़ तड़प-तड़प कर

उस स्वच्छ जल में

जल जो जीवन है

स्‍वच्छता जो स्वर्गीय है

बन गयी थी काल उन कीड़ों के लिये

उन कीड़ों के लिये

जो खुश थे

उठा रहे थे लुफ्त जिन्दगी का

जब तक पडे़ थे वे उन नालियों में

जो भरपूर था गन्दगी से

व्‍याप्त था दुर्गंध से

नहीं सह सके वे सफाई

नहीं सह सके वे स्वच्छता

सफाई जो, स्वच्छता जो प्रतीक है जीवन का

बन गयी मौत का कारण उनके लिये

विचार आया

हम भी कहीं, वहीं नाली के कीडे़ तो नहीं

जी रहे हैं गन्दगी में

तन की गन्दगी, मन की गन्दगी

सांस ले रहे हैं दुषित वायु में

और प्रसन्न हैं

कहीं मौत हमारी भी तो नहीं हो जायेगी

जब हम बढेंगे स्वच्छता की ओर

सादगी और सत्यता की ओर.