राहुल ने आंख चमकाकर संसद की गिराई गरिमा ?

प्रमोद भार्गव
लोकसभा में सवा चार साल पुरानी राजग सरकार के खिलाफ पहले अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर कारगर ढंग से राजनीतिक हमले किए। सरकार की नाकामियां गिनाते हुए फ्रांस के साथ हुई राफेल विमान खरीद सौदे को कठघरे में खड़ा किया और रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण पर इस बाबत झूठ बोलने के आरोप लगाए। राहुल ने जियो के विज्ञापन में प्रधनमंत्री की तस्वीर, बेरोजगारी और नोटबंदी पर भी सरकार को घेरा। सर्जिकल स्ट्राइक के बहाने जुमला स्ट्राइक कहकर तंज कसा। भाषण  के बाद आत्ममुग्ध राहुल संसद की परंपरा तोड़ते हुए कुर्सी पर बैठे प्रधानमंत्री के गले भी पड़ गए। इसके बाद अपनी कुर्सी पर बैठकर राहुल ने जिस ढंग से आंख मारी, उसने संसद की गरिमा तो गिराई ही, साथ ही संसद की सीधी कार्यवाही देख रही देश  और दुनिया की अवाम को यह संदेश  भी दे दिया कि वे वाकई अभी पप्पु ही हैं। वैसे भी हमारे लोक-मानस में आंख चमकाने की क्रिया को छिछौरापन ही माना जाता है। हालांकि इन सब आरोपों और हरकतों से निर्लिप्त रहते हुए और अविश्वास प्रस्ताव जैसी कार्यवाही के बावजूद सरकार एवं प्रधानमंत्री सहज दिखे। क्योंकि उन्हें अपने सांसद, सहयोगी दल और रणनीति पर पूरा भरोसा था। इसीलिए अविश्वास प्रस्ताव 199 मतों के भारी अंतर से गिर गया। बावजूद संसद में बहस के दौरान अच्छी बात यह रही कि इसकी षुरूआत सकारात्मक ऊर्जा के साथ हुई और प्रधानमंत्री ने भी जवाबी  भाषण में राहुल के चैकीदार बनाम भागीदार मुहावरे की धार भौंथरी करते हुए अपनी भागीदारी को गरीब व किसानों से जोड़कर रचनात्मक संदेश  दिया। उम्मीद है आगे भी संसद में बहस की यही स्थिति दिखेगी।
चूंकि अविश्वास प्रस्ताव तेलुगू देशम पार्टी द्वारा लाया गया था। एक समय तक तेलुगू देशम भाजपा का भरोसे का मित्र दल रहा है, लेकिन राजनीति में दोस्त को दुश्मन होने में देर नहीं लगती। आंध्र प्रदेश  के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू आंध्र को   विशेष  दर्जा देने की मांग कर रहे हैं। किंतु मोदी ने इसे अनसुना किया हुआ है। अब उन्होंने अपनी मन की बात कहते हुए संसद में कहा कि ‘जोर और जुल्म के बीच आंध्र एवं तेलंगाना का विभाजन हुआ है। उस समय मैंने यह कहा था कि तेलुगू हमारी मां है। तेलुगू की एकता को टूटने नहीं देना चाहिए। कांग्रेस की वजह से तेलंगाना विवाद पैदा हुआ, नतीजतन प्रदेश  का बंटवारा हुआ। कांग्रेस ने ही भारत-पाकिस्तान का विभाजन किया, जिसकी मुसीबत हम आज भी झेल रहे हैं। कांग्रेस  विभाजन करके आंध्र जितना चाहती थी, लेकिन आंध्र मिला न ही तेलंगाना।‘ जाहिर है, इस बंटवारे के परिणामस्वरूप कांग्रेस ने ‘आधी रोटी छोड़, साजी को भागे, साजी मिले न आधी पावे‘ कहावत को चरितार्थ कर दिया। प्रधानमंत्री ने एक तीर से दो  निशाने  साधकर स्पष्ट  कर दिया है कि आंध्र को विशेष  राज्य का दर्जा उनके रहते हुए मिलने वाला नहीं है। साथ ही आंध्र के बंटवारे में कांग्रेस की उस छिपी हुई राजनीतिक मंशा  को भी मोदी ने उजागर कर किया, जिस बंटवारें के चलते वह आंध्र की सत्ता चाहती थी।
राफेल सौदे को लेकर राहुल पहले भी सड़क से लेकर संसद तक केंद्र सरकार पर हल्ला बोलते रहे हैं। किंतु इस बार संसद में इस मुद्दे पर सरकार को घेरना, उन्हें इसलिए महंगा पड़ गया क्योंकि फ्रांस ने उनके आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है। राहुल ने कहा है कि इस विमान सौदे में विमानों की कीमत बढ़ा दी गई है। इस कारण बड़ा घपला हुआ है। इस आरोप का जबाव देते हुए फ्रांस सरकार ने कहा है कि ‘दोनों देशों में सूचना गोपनीय रखने का करार है। इसलिए इसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है। फ्रांस सरकार ने अपने बयान में यह भी हवाला दिया है कि 2008 में सुरक्षा समझौते के तहत दोनों देश  गुप्त सूचना को सार्वजनिक नहीं कर सकते हैं।‘ इस करार के समय कांग्रेस नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार केंद्र में थी। राहुल ने एक हवाई जहाज 1600 करोड़ में खरीदना बताया है, जबकि संप्रग सरकार ने यह सौदा 520 करोड़ रुपए प्रति विमान किया था।
हालांकि फ्रांस से लड़ाकू विमान राफेल खरीद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या केंद्र सरकार पर गड़बड़ी की आषंका व्यर्थ है। यूपीए की सरकार के दौरान 2008 में जब इसी विमान सौदे की बात चल रही थी, तब प्रति विमान 526.1 करोड़ रुपए पर सहमति बनी थी। केंद्र सरकार पारदर्षिता बरतते हुए विमान की कीमत भले ही करार की मर्यादा के चलते स्पष्ट  नहीं कर रही हो, जबकि इसी सरकार के रक्षा राज्यमंत्री सुभाश भामरे ने ‘8 नवंबर 2016 को लोकसभा में एक लिखित जवाब में बताया था कि फ्रांस के साथ 23 सितंबर 2016 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए हैं, जिसके तहत तमाम जरूरी रक्षा उपकरणों, सेवाओं और हथियारों से युक्त 36 राफेल विमान खरीदे जाएंगे। प्रत्येक विमान की कीमत करीब 670 करोड़ रुपए होगी। अप्रैल 2022 तक सभी विमान भारत आ जाएंगे।‘ जब सरकार लोकसभा में विमान की कीमत बता चुकी है तो अब गोपनीयता क्यों बरत रही है ? चूंकि यह विमान सौदा फ्रांस के  राष्टपति  फ्रांस ओलांद और नरेंद्र मोदी के बीच हुई सीधी बातचीत से तय हुआ था, इसलिए इसमें शक की कहीं कोई गुंजाइश  रह ही नहीं जाती।
देरी और दलाली से अभिशप्त रहे रक्षा सौदों में राजग सरकार के वजूद में आने के बाद से लगातार तेजी दिखाई दी है। मिसाइलों और राॅकेटों के परीक्षण में भी यही गतिशीलता दिखाई दे रही है। इस स्थिति का निर्माण, सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए जरूरी था। वरना रक्षा उपकरण खरीद के मामले में संप्रग सरकार ने तो लगभग हथियार डाल दिए थे। रक्षा सौदों में  भ्रष्टाचार के चलते तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी तो इतने मानसिक अवसाद में आ गए थे कि उन्होंने हथियारों की खरीद को टालना ही अपनी उपलब्धि मान लिया था। नतीजतन, हमारी तीनों सेनाएं शस्त्रों की कमी का अभूतपूर्व संकट झेल रही थीं।
नरेंद्र मोदी ने 2016 में फ्रांस यात्रा के दौरान फ्रांसीसी कंपनी दासौ से जो 36 राफेल जंगी जहाजों का सौदा किया है, वह अर्से से अधर में लटका था। इस सौदे को अंजाम तक पहुंचाने की पहल वायु सैनिकों को संजीवनी देकर उनका आत्मबल मजबूत करने का काम करेगी। फ्रांस के  राष्ट्रपति  और नरेंद्र मोदी से सीधे हुई बातचीत के बाद यह सौदा अंतिम रुप ले पाया है, इस लिहाज से इस साॅैदे के दो फायदे देखने में आ रहे हैं। एक हम यह भरोसा कर सकते हैं कि ये युद्धक विमान जल्दी से जल्दी हमारी वायुसेना के जहाजी बेड़े में शामिल हो जांएगे। दूसरे, इस खरीद में कहीं भी दलाली की कोई गुंजाइश  नहीं रह गई है, क्योंकि सौदे को दोनों  राष्ट्र प्रमुखों ने सीधे संवाद के जरिए अंतिम रूप दिया है। पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह और रक्षा मंत्री एके एंटनी की साख ईमानदार जरूर थी, लेकिन ऐसी ईमानदारी का क्या मतलब, जो जरूरी रक्षा हथियारों को खरीदने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए ? जबकि ईमानदारी तो व्यक्ति को साहसी बनाने का काम करती है। हालांकि रक्षा उपकरणों की खरीदी से अनेक किंतु-परंतु जुड़े होते हैं,सो इस खरीद से भी जुड़ गए हैं। यह सही है कि जंगी जहाजों का जो सौदा हुआ है वह संप्रग सरकार द्वारा चलाई गई बातचीत की ही अंतिम परिणति है। इस खरीद प्रस्ताव के तहत 18 राफेल विमान फ्रांस से खरीदे जाने थे और फ्रांस के तकनीकी सहयोग से स्वेदेशीकरण को बढ़ावा देने की  द्रष्टि  से 108 विमान भारत में ही बनाए जाने थे। स्वदेश  में इन विमानों को बनाने का काम हिंदुस्तान एयरोनाॅटिक्स लिमिटेड ;एचएएलद्ध को करना था, ये शर्तें अब इस समझौते का हिस्सा नहीं हैं। इससे मोदी के ‘मेक इन इंडिया‘ कार्यक्रम को धक्का लगा है। क्योंकि तत्काल युद्धक विमानों के निर्माण की तकनीक भारत को मिलने नहीं जा रही है ? जाहिर है, जब तक एचएएल को यूरोपीय देशों से तकनीक का हस्तांतरण नहीं होगा, तब तक न तो स्वेदेशी विमान निर्माण कंपनियों का आधुनिकीकरण होगा और न ही हम स्वेदेशी तकनीक निर्मित करने में आत्मनिर्भर हो पाएंगे ? इसलिए मोदी कुछ विमानों के निर्माण की शर्त भारत में ही रखते तो इस सौदे के दीर्घकालिक परिणाम भारत के लिए कहीं बेहतर होते ?
विमानों की इस खरीद में मुख्य खामी यह है कि भारत को प्रदाय किए जाने वाले सभी विमान पुराने होंगे। इन विमानों को पहले से ही फ्रांस की वायुसेना इस्तेमाल कर रही है। हालांकि 1978 में जब जागुआर विमानों का बेड़ा ब्रिटेन से खरीदा गया था, तब ब्रिटिश  ने हमें वही जंगी जहाज बेचे थे,जिनका प्रयोग ब्रिटिश  वायुसेना पहले से ही कर रही थी। लेकिन हरेक सरकार परावलंबन के चलते ऐसी ही लाचारियों के बीच रक्षा सौदें करती रही है। इस लिहाज से जब तक हम विमान निर्माण के क्षेत्र में स्वावलंबी नहीं होंगे, लाचारी के समझौते  की मजबूरी झेलनी ही होगी। इस सौदे की एक अच्छी खूबी यह है कि सौदे की आधी धनराषि भारत में फ्रांसीसी कंपनी को निवेश  करना अनिवार्य होगी। बहरहाल इस बहस ने यह तय कर दिया है कि 2019 में होने वाले आम चुनाव रोचक होने जा रहे हैं। लेकिन इनकी रोचकता तभी सामने आएगी, जब राहुल परिपक्वा का परिचय दें।

 

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