राजनीति

राहुल गांधी चुप क्यों हैं

डॉ0 आशीष वशिष्ठ

किसानों के दुख-दर्दे बांटने के लिए पुलिस-प्रशासन को धता बताकर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी मोटर साईकल से जिस तरह भट्ठा पारसौल पहुंचे थे, उसने आम आदमी के भीतर ये उम्मीद जगा दी थी कि चलो कोई तो है जो देश के किसान, मजदूर और आम आदमी के साथ खड़ा है। किसानों की समस्याओं को जोर-शोर से उठाने के लिए राहुल ने पदयात्रा और महापंचायत कर यूपी की माया सरकार को हिला दिया था। विपक्ष ने राहुल की पदयात्रा और किसान महापंचायत को नौटंकी और राजनैतिक ड्रामा करार दिया था। राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप का चलन आम बात है। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में ऐसे कई मौके आये जब राहुल बोलने की बजाय चुप रहे। ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या राहुल जो भी करते हैं वो राजनीति से प्रेरित होता है। और क्या असल में राहुल को आम आदमी, मजदूर, किसान और दलित से कुछ लेना-देना नहीं है। क्योंकि जो राहुल भट्ठा पारसौल में किसानों के लिए मगरमच्छी आंसू बहाते हैं, वही राहुल पुणे में पुलिस की गोली से मारे गए किसानों के बारे में दो शब्द क्यों नहीं बोल पाते हैं। क्यों राहुल को पंजाब, विदर्भ और हरियाणा के किसानों पर हो रहे अत्याचार और षोषण दिखाई नहीं देते। जिस पार्टी के राहुल महासचिव है उस दल की सरकारें देश के जिन राज्यों में है वहां दलितों, महिलाओं, किसानों और मजदूरों पर हो रहे अत्याचार, अन्याय और षोषण के खिलाफ राहुल पदयात्रा या पंचायत क्यों नहीं करते हैं। असलियत किसी से छिपी नहीं है कि राहुल एक विषुद्व और मंझे हुये नेता की तरह अपने मतलब, मुनाफे और मकसद के हिसाब से मुंह खोलते हैं।

विरोधी भले ही राहुल को अमूल बेबी, नौसिखया और पॉलटिक्स ट्रेनी समझते हों, असल में राहुल को राजनीति खून और विरासत में मिली है। किसी दलित के घर में रात बिताना, भोजन करना और उनके टूटे झोपडे और टूटी चारपाई पर बैठकर सुख-दुख सांझा करना राजनीति चालबाजी और नाटक ही लगता है। आज देश जिस दौर से गुजर रहा है वहां राहुल जैसे युवा और ऊर्जावान नेता की बहुत जरूरत है। लेकिन राहुल और उनकी युवा टीम वही पुरानी घिसी-पिटी लकीर पर चलने के अलावा ऐसा कुछ नया नहीं कर रही है कि जिससे देश के आम आदमी के मन में ये उम्मीद जगे कि देश का भविष्य समझदार, ईमानदार, मेहनती और दूसरों का दुख-दर्दे समझने वाले युवाओं के हाथ में है। राहुल देश में जारी जात-पात की ओछी और गंदी राजनीति के साथ खड़े दिखाई देते हैं। अभी तक के राजनीतिक कैरियर में राहुल ने ऐसा कोई करिशमा नहीं दिखाया है कि जिससे ऐसा आभास हो कि राहुल एक परिवर्तनकारी और चमत्कारी नेतृत्व क्षमता और योग्यता रखते हैं। कांग्रेस महासचिव की कुर्सी और सांसद होने का तमगा उन्हें एक तरह से उपहार में ही मिला है। राहुल की राजनीतिक समझ और दृष्टिकोण उतना ही संकीर्ण और पुराना है जितना देश के तमाम दूसरे नेताओं का है। यूपी में माया सरकार को डैमेज करने और कटघरे में खड़ा करने के लिए राहुल गुप-चुप तरीके से दलित गांवों ओर उनके घरों की यात्राएं करके ये साबित करने में जुटे हैं कि वो दलितों, पिछड़ों के सच्चे हिमायती है, दूसरा कोई और नहीं। आज राहुल जिस राजनीतिक ट्रैक पर यात्रा कर रहे हैं उसकी मंजिल और मकसद सत्ता में बने रहना और उसे हासिल करना है। यूपी में माया सरकार की घेराबंदी करके राहुल कांग्रेस की खोई जमीन दुबारा हासिल करना चाहते हैं क्योंकि दिल्ली के सिंहासन का रास्ता वाया लखनऊ होकर निकलता है।

पिछले एक दशक में जब भी कोई संकट या बड़ा मसला देश के सामने आया है, राहुल तस्वीर में कहीं दिखाई नहीं दिये। राम जन्म भूमि जैसे गंभीर और संवेदनषील मसले को राहुल ने यह कहकर टाल दिया था कि अयोध्या से बड़े दूसरे कई और मसले देश में हैं। राहुल को ये बखूबी मालूम हैं कि क्या बोलना है, कहां बोलना है और क्यों बोलना है। कॉमनवेल्थ गेम्स, 2जी स्पेक्ट्रम, आदर्ष हाउसिंग घोटाले ने देश की अर्थव्यवस्था को चरमरा दिया है। लेकिन राहुल ऐसे गंभीर और आम आदमी से जुड़े मुद्दों के आस-पास कहीं भी दिखाई नहीं देते हैं। यूपी में माया सरकार को घेरने के लिए वो राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत प्रदेश सरकार से जानकारी के लिए सूचना के अधिकार का प्रयोग से हिचकते नहीं हैं। लेकिन राहुल को देशभर में केन्द्रीय योजनाओं में मची लूट और भ्रष्टाचार दिखाई नहीं देता है। महात्मा गांधी रोजगार गांरटी योजना के तहत हरियाणा में जो खुली लूट और बंदरबांट पिछले कई सालों से जारी है। राहुल राजनीतिक नफा-नुकसान और गुणा-भाग करके ऐसे मुद्दों से दूर रहते हैं जिन पर फंसने या फिर वोट बैंक दरकने का खतरा होता है।

गौरतलब है कि जिस मुद्दे पर कांग्रेस को राजनीतिक फायदा होना होता है उस पर राहुल की बयानबाजी और दखलअंदाजी शुरू हो जाती है। जहां मामला नाजुक और स्थिति बिगड़ने का खतरा होता हैं वहां कांग्रेस के युवराज मौन धारण करना ही उचित समझते हैं। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के अनशन और प्रदर्शन के बारे में राहुल ने लगातार चुप्पी साध रखी है। 4-5 जून की रात को जिस तरह दिल्ली पुलिस ने बाबा रामदेव के कैंप में घुसकर सोते हुए अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया था। उस बर्बरता और अत्याचार के खिलाफ राहुल के मुंह से एक टूटा शब्द भी नहीं निकला। अपनी राजनीति चमकाने के लिए राहुल सुबह सवेरे भट्ठा पारसौल तो पहुंच सकते हैं लेकिन उन्हें दिल्ली के रामलीला मैदान में घायल हुये लोगों का हाल चाल पूछने की फुर्सत नहीं मिली।

जन लोकपाल बिल को लेकर अन्ना ने जो आंदोलन छेड़ रखा है उससे देश का हर छोटा-बड़ा आदमी जुडा हुआ है। लेकिन अमूल बेबी राहुल को अन्ना के आंदोलन से कोई मतलब नहीं है। सरकारी अमला अन्ना और रामदेव को बदनाम करने और कीचड़ उछालने में मशगूल है। और सारी हकीकत जानने के बाद भी राहुल अपना चिर परिचत मौन धारण किये हैं। अन्ना और उनकी टीक की गिरफ्तारी को किसी भी स्तर पर न्यायोचित्त नहीं ठहराया जा सकता है। अन्ना की तिहाड़ जाने के बाद उनकी जगह देश के उन युवाओं ने मजबूत और सख्त जन लोकपाल बिल के चलाये जा रहे आंदोलन की बागडोर थाम ली है जिनके दम पर राहुल कूदते हैं। राहुल युवाओं को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करते हैं और जब लाखों युवा सड़कों पर उतरकर धरना-प्रदर्शन और अनशन करते हैं तो राहुल सीन से गायब हो जाते हैं।

इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि एक सांसद के नाते राहुल देशभर की समस्याएं सुलझाने के लिए कानूनी तौर पर जिम्मेदार नहीं है। लेकिन जिस शख्स को उसकी पार्टीजन भविष्य का प्रधानमंत्री प्रचारित करते हों और जिसकी ताकत और पहुंच का जनता को भी अहसास हो, ऐसे शख्स से जनता का उम्मीद करना नैतिक तौर पर गलत नहीं है। और अगर राहुल आम आदमी से जुड् मसलों और मुद्दों पर कोई गंभीर कार्यवाही या ठोस समाधान ढूंढ पाने में सक्षम नहीं है तो उन्हें देशभर में घूम-घूम कर नौटंकी और नाटक करने की बजाय अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी के विकास पर ही ध्यान देना चाहिए।