राजनीति

राहुल का गुब्‍बारा तो मीडिया ने फुलाया है…

प्रवक्‍ता पर पंकजजी का लिखा ‘खिसियायें नहीं सीखें राहुल गांधी से’ और संजयजी का ‘सडक पर उतरा शहजादा’ लेख पढा। लेखक ने वास्‍तविकता को नजरअंदाज किया है। मीडिया के झांसे में आकर राहुल गांधी की राजनीति से प्रभावित हो जाना दुर्भाग्‍यपूर्ण है। यहां हम लेखक की आंखें खोलने के लिए सिर्फ कुछ ही तथ्‍यों को प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

गौरतलब है कि राहुल गांधी प्रदेश अध्‍यक्ष एवं युवा कांग्रेस में प्रजातांत्रिक ढंग से चुनाव की हामी तो भरते हैं पर कहीं ऐसा चुनाव करा नहीं पाए। राहुल वंशवाद के विरोधी तो हैं लेकिन वंशवाद की ही रोटी तोड रहे हैं। उनकी माताश्री पिछले 14 सालों से राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष बनी बैठी हैं। न उनकी माताश्री और न स्‍वयं राहुल गांधी ने सामान्‍य कांग्रेस पार्टी के रूप में सेवा की। वे तो पैराशूट से राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष एवं राष्‍ट्रीय महामंत्री के पद पर बैठ गए। हैरानी की बात तो यह है कि जिस सोनिया ने कांग्रेस परिवार में अपनी शादी के बाद 20 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी को साधारण सदस्‍यता के योग्‍य न समझा और वही मार्च 1996 में साधारण सदस्‍य बनीं और तीन मास के अंदर ही पार्टी की राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष बन बैठी। राहुल गांधी ऐसे मुद्दों पर अपनी जुबान अवश्‍य खोलते हैं जिनसे उन्‍हें स्‍वयं को वाहवाही और पार्टी को वोट मिलते हैं। वे तो दलितों के बडे मसीहा बनते हैं पर प्रतिदिन बढती कीमतों के बीच पिस रहे दलितों का ध्‍यान नहीं करते और बढती कीमतों पर अपनी जुबान बंद रखते हैं। कलावती को प्रसिद्धि तो दी पर जो उससे वादा किया उसे पूरा नहीं किया। तो ऐसे व्‍यक्ति को क्‍या भारत का युवक आदर्श मान सकते हैं।

लेखक शायद यह भी भूल रहे हैं कि राहुल गांधी उस परिवार से ताल्‍लुक रखते हैं जो खाता तो भारत का है, जो सत्ता-भोग तो भारत में करता है और भारतीयता से प्‍यार का ढोंग रचाता है। पर जब विवाह की बात आती है तो उसके पिता राजीव गांधी को कोई भारतीय युवती भा न सकी और यही रिपोर्ट यही राहुल के बारे में भी आ रही है। कहां तक सच है यह तो वही जाने पर इतनी उम्र बीत जाने के बाद भी विवाह की बातें टाली जाती हैं तो लगता है धुंआ यूं ही नहीं उठ रहा।

एक बार नहीं अनेकों बार उन्‍होंने जब मुंह खोला है तो बचकानी बातें ही की हैं। उनके भारतीय इतिहास ज्ञान पर तरस आता है। असल में वे मुस्लिम वोट को ही बटोरना चाहते हैं। यही कारण है कि उन्‍होंने एक बार यह कह डाला कि यदि उनके पापा और परिवार का कोई सदस्‍य 1992 में सक्रिय राजनीति में होता तो बाबरी मस्जिद नहीं ढहता। पर उन्‍होंने यह नहीं बताया कि उनकी माताजी को तब सक्रिय होने से किसने रोका नहीं था। अब हलवा-मंडा खाने के लिए कांग्रेस के युवराज अवश्‍य आगे आ रहे हैं।

एक बार तो राहुल गांधी ने तहलका साप्‍ताहिक से वार्ता में यह भी कह दिया था कि मैं चाहता तो पच्‍चीस वर्ष की आयु में ही देश का प्रधानमंत्री बन जाता। यह उन्‍होंने जिस आधार पर कहा उसी वंशवाद के विरोध का ढोल राहुल गांधी पीट रहे हैं। यह अलग बात है कि तब तहलका के संपादक ने उनकी झेंप को मिटाने के लिए कह दिया था कि राहुल ने अनौपचारिक भेंट में कहा था पर सत्‍य तो सत्‍य है। डींग तो राहुलजी ने अवश्‍य मारी थी चाहे वह अनौपचारिक बातचीत में हो या अनौपचारिक बातचीत में।

आज तक उन्‍होंने गरीबी और भ्रष्‍टाचार पर मुंह नहीं खोला क्‍योंकि उनकी अपनी और पार्टी की पोल खुल जाएगी। लगता है लेखक पंकजजी मीडिया की बयार में बह गए हैं। सच्‍चाई तो यह है कि राहुल गांधी का राजनीतिक गुब्‍बारा मीडिया ने ही फुलाया है जो कभी भी फूट सकता है।

-विकास