रक्तिम – भँवर

रक्तिम – भँवर
आलोक पाण्डेय

भर – भर आँसू से आँखें , क्या सोच रहे मधुप ह्रदय स्पर्श ,
क्या सोच रहे काँटों का काठिन्य , या किसी स्फूट कलियों का हर्ष ?
मन्द हसित , स्वर्ण पराग सी , विरह में प्रिय का प्रिय आह्वान ,
या सोच रहे किस- क्रुर प्रहार से छुटा स्नेह जननि का भान !
विरहणी चकवी का क्रन्दन ,भरी आँखों का नीर धार
कुसुम – कलेवर , विलुलित आँचल , उर निकुंज , सान्ध्य-रश्मियों का विहार ,
या सोच रहे , हो – आत्म-विस्मृत , प्रलय- हिलोर कराल झंझावातों को ,
आत्मीय जनों की सुध-सार या मादक-हसित , सुवासित रातों को !
विभिन्न व्यथा- स्त्रोत स्मृतियों को छोड़, तोड़ो कृत्रिम फूलों का श्रृंगार,
भूलो स्नेह स्वर, भूलो सरलता, नहीं भूलना कभी दासता की हार – अंगार ;
शंखनाद गुंजे रणभेरी की, रण में गुंजे वीरोचित ललकार,
उठे मृदंग, उठे तलवारें, खड्ग से सर्वत्र सकरूण हाहाकार !
धन्य भाग ! मधुर उल्लासों को छोड़, तज यौवन देने जीवन आधार ;
दु:खद् रजनी – दु:खद् प्रभात, दबा सूने में होता चित्कार, भय का संचार;
कंपकंपी व्योमगंगा , सर्वत्र करूण पुकार, नहीं अब नुपूर की झंकार ,
धरणी-सीमाओं पर, तांडव करती, कैसी मानव की पशुता साकार!
समरभूमि में तने खड़े हो, हर आकांक्षा -अरमान बिखर जाने दो ,
रोली, घुंघरू, कुंकुम, बिन्दी, प्रणय के आस, सब कुछ डूब भँवर जाने दो ;
निर्मम निरव क्षण की नीरव आशा की हर विलक्षण स्मृतियाँ , खूब बिखर जाने दो ;
शत्रु के उत्पात के, प्रतिपल संघात के , रक्तिम – भँवर में डूबो-डूबो सिहर जाने दो !
आँखों की करूणा-भीख , रिक्त हाथों में , नहीं कोई दे सकता दान !
छोड़ ठिठोली जीवन के , तज सूने अनुभूति सुस्वप्नों का निर्माण ,
ना कभी हताश – निराश हो , तज जीवन के आस , छेड़ विकल विप्लव तान ;
शत्रु को शोणित-सिक्त धाराशायी कर , वीर ! समरभूमि में देना प्राण !

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